हिंदी साहित्य व्यंग्य के तेवर से तो बहुत पहले लैस हो चुका था पर इसे विधात्मक मंजूरी मिलने में समय लगा। व्यंग्य आज हिंदी गद्य की अहम विधा है तो इसका ऐतिहासिक श्रेय हरिशंकर परसाई को जाता है। स्वाधीनता के बाद के भारतीय समाज और सार्वजनिक जीवन के विरोधाभासों और स्फीतियों को लेकर जितनी बातें परसाई ने कही हैं, उतनी शायद ही किसी और ने कही हों। परसाई प्रगतिशील जीवन मूल्यों के प्रति सचेत थे। उन्होंने एक तरफ जहां जीवन और समाज में व्याप्त पाखंड को लेकर करारा व्यंग्य किया, तो वहीं आजादी के बाद विकास और आधुनिकता के बने नए साझे के बीच जगह बनाते भ्रष्टाचार को उन्होंने एक बड़े खतरे के तौर पर रेखांकित किया। यह भी कि प्रेमचंद की तरह परसाई को भी यह यश प्राप्त है कि उन्होंने हिंदी साहित्य की न सिर्फ गरिमा बल्कि उसकी लोकप्रियता भी बहाल रखी। उनकी यह रचनात्मक सफलता हर लिहाज से असाधारण है।
परसाई का जन्म मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिले के जमानी गांव में हुआ था। उनकी प्रारंभिक शिक्षा गांव में ही हुई। आगे चलकर उन्होंने नागपुर विश्वविद्यालय से हिंदी में एमए किया। कुछ सालों तक अध्यापन करने के बाद 1947 से वे लेखन में जुट गए। उन्होंने जबलपुर से ‘वसुधा’ नामक साहित्यिक पत्रिका निकाली। वे अपने सामने एक तरफ स्वाधीन भारत की विकासयात्रा को देख रहे थे, वहीं राजनीति और समाज के उस नैतिक पराभाव से भी वे वाकिफ हो रहे थे जो स्वाधीनता पूर्व की उम्मीदों के उलट था और एक नए खतरे के तौर पर सामने आ रहा था। इन खतरों के बीच भारतीय मध्यवर्ग की वह बनावट भी सामने आ रही थी, जिसमें संयम और त्याग की नैतिकता पर पाखंड और स्वार्थ से भरा जीवन आचारण भारी पड़ रहा था। इन स्थितियों को देखते-समझते हुए परसाई ने लेखन के लिए व्यंग्य की विधा को चुना। उन्हें लगा कि सम-सामयिक जीवन की व्याख्या, उसके विश्लेषण, उसकी भर्त्सना और विडंबना को सामने लाने के लिए व्यंग्य से कारगर दूसरा कोई औजार नहीं हो सकता।
परसाई के जीवन की यह त्रासदी रही कि आर्थिक परेशानी से वे आजीवन जूझते रहे। इस अभाव ने जहां उन्हें कई तरह की परेशानियों में डाला, वहीं उनके भीतर एक ऐसा जीवन संस्कार भी आकार लेता गया, जो यथार्थ से निर्भीक मुठभेड़ की प्रेरणा देता है। देश और समाज की दुरावस्था पर व्यंग्यात्मक चोट करने वाले परसाई ने खुद को भी नहीं बख्शा। दरअसल, आजीवन अविवाहित रहकर पारिवारिक जिम्मेदारियों को पूरा करने वाले परसाई के लेखन की बड़ी ताकत वह पारदर्शी मानक है, जो सबके लिए समान है।
व्यंग्य संग्रह ‘विकलांग श्रद्धा का दौर’ के लिए 1982 में साहित्य अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित परसाई का रचना संसार विपुल है। एक तरफ उनके प्रसिद्ध व्यंग्य संग्रह हैं, तो दूसरी तरफ लेख और कहानी संग्रह के साथ उपन्यास भी। इतने व्यापक और विविधतापूर्ण लेखन के बावजूद व्यंग्य न सिर्फ उनकी रचनात्मक धुरी है, बल्कि यही उनकी सबसे बड़ी रचनात्मक ताकत है। दरअसल, परसाई व्यक्ति और व्यक्तिनिर्मित कला की सामाजिक सोद्देश्यता के पक्षधर हैं। वे कहते हैं, ‘मनुष्य की छटपटाहट है मुक्ति के लिए, सुख के लिए, न्याय के लिए। पर यह बड़ी लड़ाई अकेले नहीं लड़ी जा सकती है। अकेले वही सुखी है, जिन्हें कोई लड़ाई नहीं लड़नी।’ अपने लेखन के इसी मकसद और कसौटी के कारण परसाई अपने अक्षर सृजन के साथ आज भी प्रगतिशील जीवनमूल्यों के लिए संघर्ष कर रहे लोगों की प्रेरणा हैं।