वे टाटा समूह के संस्थापक जमशेदजी टाटा के बड़े बेटे थे। उनकी प्राथमिक शिक्षा मुंबई के प्रोप्राइटरी हाई स्कूल, कैंब्रिज के गोनविले और कैयस कालेज से हुई। फिर उन्होंने सेंट जेवियर्स कालेज, मुंबई में पढ़ाई की और 1882 में डिग्री प्राप्त की। स्रातक करने के बाद दोराबजी ने ‘बाम्बे गजट’ में एक पत्रकार के रूप में दो साल तक काम किया। फिर 1884 में वे अपने पिता की फर्म के कपास व्यवसाय प्रभाग में शामिल हो गए। उन्हें पहले पांडिचेरी भेजा गया, यह देखने के लिए कि क्या वहां एक कपास मिल लाभदायक हो सकती है। उसके बाद उन्हें ‘एम्प्रेस मिल्स’ में कपास का व्यापार सीखने के लिए नागपुर भेजा गया, जिसकी स्थापना उनके पिता ने 1877 में की थी।

लोहे की खानों का ज्यादातर सर्वेक्षण उन्हीं के निर्देशन में पूरा हुआ

पिता की मृत्यु के बाद वे उनके अधूरे स्वप्नों को पूरा करने में जुट गए। लोहे की खानों का ज्यादातर सर्वेक्षण उन्हीं के निर्देशन में पूरा हुआ। वे टाटा समूह के पहले चैयरमैन बने और 1908 से 1932 तक चैयरमैन बने रहे। साक्ची को एक आदर्श शहर के रूप में विकसित करने में उनकी मुख्य भूमिका रही, जो बाद में जमशेदपुर के नाम से जाना गया। 1910 में उन्हें ब्रिटिश सरकार ने ‘नाइटहुड’ से सम्मानित किया था।

1919 में स्थापित की जनरल इंश्योरेंस कंपनी, न्यू इंडिया एश्योरेंस कंपनी लिमिटेड

उन्होंने 1911 में टाटा पावर की स्थापना की थी, जो वर्तमान टाटा समूह का मूल उद्यम है। दोराबजी के प्रबंधन के तहत, वह व्यवसाय जिसमें कभी तीन कपास मिलें और ताज होटल, मुंबई शामिल थे, बढ़कर भारत की सबसे बड़ी निजी क्षेत्र की स्टील कंपनी, तीन इलेक्ट्रिक कंपनियां और भारत की अग्रणी बीमा कंपनियों में से एक शामिल हो गई। उन्होंने 1919 में भारत की सबसे बड़ी जनरल इंश्योरेंस कंपनी, न्यू इंडिया एश्योरेंस कंपनी लिमिटेड की स्थापना की।

दोराबजी का विवाह होर्मूसजी भाभा की इकलौती बेटी मेहरबाई से हुई थी। मेहरबाई के भाई, जहांगीर भाभा, एक प्रतिष्ठित वकील थे। वे वैज्ञानिक होमी जहांगीर भाभा के पिता थे। टाटा समूह ने भाभा के अनुसंधान और टाटा इंस्टीट्यूट आफ फंडामेंटल रिसर्च सहित उनके अनुसंधान संस्थानों को वित्त पोषित किया।

कर्ज के लिए उन्होंने अपनी पत्नी के गहने गिरवी रख दिए

स्टील कंपनी के शुरुआती दिन बेहद मुश्किल वाले थे। उस समय भारत समेत दुनिया भर के देश प्रथम विश्व युद्ध में शामिल थे, लेकिन 1919 में युद्ध खत्म होते ही दुनिया भर में मंदी बढ़ती चली गई। इससे भारत में भी स्थिति गंभीर हो गई। जापान की ओर से स्टील की मांग घट गई। टाटा स्टील का उत्पादन गिरता चला गया और सन 1924 में इसके बंद होने तक की नौबत आ गई। ऐसे में टाटा स्टील को बचाने और कर्मचारियों का वेतन देने के लिए दोराबजी टाटा ने बैंकों से बड़ा कर्ज लिया। कर्ज के लिए उन्होंने अपनी पत्नी के गहने गिरवी रख दिए।

मेहरबाई टाटा की 1931 में बावन वर्ष की आयु में ल्यूकेमिया से मृत्यु हो गई। उनकी मृत्यु के कुछ समय बाद, दोराबजी ने रक्त की बीमारियों के अध्ययन को आगे बढ़ाने के लिए लेडी टाटा मेमोरियल ट्रस्ट की स्थापना की। अपने पिता की तरह, सर दोराबजी का मानना था कि अपनी संपत्ति का उपयोग रचनात्मक प्रयोजनों के लिए करना चाहिए। इसलिए उन्होंने ट्रस्ट को अपनी सारी दौलत दान कर दी।

वह ट्रस्ट आज सर दोराबजी टाटा ट्रस्ट के नाम से जाना जाता है। दोराबजी ने भारत के प्रमुख वैज्ञानिक और इंजीनियरिंग अनुसंधान संस्थान, भारतीय विज्ञान संस्थान, बंगलुरू की स्थापना के लिए प्रारंभिक धनराशि भी प्रदान की। उन्हें खेलों से बेहद लगाव था और वे भारतीय ओलंपिक आंदोलन में अग्रणी थे। भारतीय ओलंपिक संघ के अध्यक्ष के रूप में उन्होंने 1924 में पेरिस ओलंपिक के लिए भारतीय दल को वित्तपोषित किया।