अथक साधना और घरानेदारी भारतीय शास्त्रीय संगीत की ऐसी खासियत है, जिसकी सराहना और चर्चा दुनिया भर में होती है। बड़े गुलाम अली, पंडित ओंकारनाथ ठाकुर, कुमार गंधर्व जैसे शास्त्रीय गायकों ने स्वर और आस्था के साथ भारतीय संगीत को जो ऊंचाई दी है, वह अप्रतिम है। इन बड़े नामों के बीच पंडित भीमसेन जोशी की संगीत यात्रा ने जिस तरह शास्त्र, परंपरा और आधुनिकता के बीच संगीत की पवित्रता को बनाए और बचाए रखा, वह अपनी मिसाल आप है।
हिंदी के वरिष्ठ आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी कहते हैं कि उन्हें सुनने पर निराला की ‘बादल राग’ कविता को पढ़ने की अनुभूति होती है। निश्चय ही भीमसेन जोशी उस बादल राग के गायक हैं जो निदाघ में लंबी प्रतीक्षा के बाद धरती और आसमान की संधि का रंग लिए पूरे आसमान पर छाता चला जाता है। मेघ गर्जन जब स्वर नर्तन में बदलता है तो संगीत का एक आत्मीय देशकाल जन्म लेता है। दरअसल, वे इसी देशकाल के गायक है जहां मेघ और मल्हार से लेकर नदी और झरने तक सबकी सस्वर और अखिल उपस्थिति है।
आधुनिक भारत के तानसेन कहे जाने वाले भीमसेन का जन्म चार फरवरी, 1922 को कर्नाटक के गड़ग जिले के एक छोटे से गांव में हुआ। मां के भजन गाने से प्रेरित होकर शास्त्रीय गायन के क्षेत्र में समर्पण के साथ दाखिल हुए पंडित भीमसेन जोशी बताते हैं कि उनके भीतर गायक बनने की तीव्र ललकउस्ताद अब्दुल करीम खान के कारण पैदा हुई।
उन्होंने उस्ताद की दो ठुमरी ‘ये बसंत’ और ‘पिया बिन नही आवत’ की रिकार्डिंग को सुना था और उसी पल यह फैसला कर लिया था कि अगर जीवन में उन्हें कुछ करना है तो यही कि शास्त्रीय संगीत सीखना है। इस जज्बे ने उनके दिल में इस कदर घर बना लिया कि वे अपना घर-बार सब छोड़ कर गुरु की खोज में दक्षिण भारत से उत्तर भारत की ओर चल पड़े।
शास्त्रीय संगीत के सम्मोहन में कम उम्र में ही घर छोड़ देने वाले इस महान गायक ने गुरु की तलाश में ग्वालियर से जलंधर तक का सफर तय किया। जलंधर में विनायक राव पटवर्धन से एक समारोह के दौरान हुई मुलाकात में भीमसेन को गुरु सवई गंधर्व से मिलने की सलाह मिली। सवई गंधर्व ने उन्हें राग गायन में निष्णात बनाया। गुरु सान्निध्य में उन्होंने स्वर और आस्था का ऐसा साझा रचा, जो आज भी संगीत प्रेमियों के बीच अटूट कर्णप्रियता के साथ बरकरार है। किराना घराने से जुड़े भसेन जोशी ने खासतौर पर खयाल तर्ज के संगीत को देश-विदेश में लोकप्रिय बनाया।
दूरदर्शन की शुरुआती लोकप्रियता के दौर में वे ‘जब मिले सुर मेरा तुम्हारा’ के आलाप के साथ सामने आए तो परंपरा और संस्कृति के भारतीय मन-मिजाज से नए दौर के लोगों को जोड़ने में सफल रहे। उनका यह सांगीतिक प्रयास इस बात की भी गवाही देता है कि विचलन और विरोधाभास के दौर में भी भारतीय शास्त्रीय संगीत लोगों के दिलों में न सिर्फ उतरती है बल्कि इसका सम्मोहन अद्वितीय है। 1972 में उन्हें भारत सरकार ने पद्म श्री से नवाजा।
पुरस्कार और सम्मान का यह सिलसिला 1976 में संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार, 1985 में पद्म भूषण और 1999 में पद्म विभूषण तक पहुंचा। इस दौरान संगीत जगत के और भी कई बड़े खिताबों से वे नवाजे गए। 2008 में उन्हें सरकार की तरफ से भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से सम्मानित किया गया। स्वाधीन भारत में स्वर और साधना को मिला यह समादार एक प्रेरक सुलेख की तरह है।