महिलाओं के सामाजिक और आर्थिक विकास के लिए अपना जीवन लगा देने वालीं इला रमेश भट्ट का जन्म 7 सितंबर, 1933 को गुजरात के अहमदाबाद में हुआ था। अंतरराष्ट्रीय श्रम, सहकारिता, महिलाओं और लघु-वित्त आंदोलनों की बेहद सम्मानित नेता रहीं इला को कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार मिले हैं। उन्होंने 1971 में केवल सात सदस्यों के साथ सेल्फ इंप्लाएड वुमन एसोसिएशन (SEWA- सेवा ) का गठन किया, जिसने आगे चलकर एक व्यापक आंदोलन का रूप लिया और कितनी ही महिलाओं का जीवन बदल दिया।

लालची व्यापारियों की आंखों के लिए हमेशा कांटा बनी रहीं इला

इस संस्था के काम को जहां कई प्रतिष्ठित मंचों से सराहा गया, वहीं यह सस्ते श्रम के लालची व्यापारियों की आंखों का कांटा भी बनी। इला लघु ऋण देने, स्वास्थ्य, जीवन बीमा और बच्चों की देखभाल के लिए काम करने वाली संस्था सेवा की साल 1972 से 1996 तक महासचिव रहीं। इस दौरान तेजी से इसके सदस्यों की संख्या बढ़ी, जो बाद के वर्षों में दस लाख से ऊपर पहुंच गई।

इला के पिता का नाम सुमंतराय भट्ट था, जो कानून के ज्ञाता थे। उनकी माता वानालीला व्यास भी महिलाओं के आंदोलनों में सक्रिय रहीं। मां के ही गुण इला में भी आए। इला भट्ट ने 1940 से 1948 तक सार्वजनिक कन्या हाई स्कूल, सूरत से अपनी प्रारंभिक शिक्षा हासिल की। वर्ष 1952 में उन्होंने एमटीबी कालेज, सूरत से स्नातक किया। इसके बाद अहमदाबाद के सर एलए शाह कालेज से 1954 में कानून की उपाधि प्राप्त की। हिंदू कानून पर किए गए सराहनीय कार्य के लिए उन्हें स्वर्ण पदक भी मिला।

इला रमेश भट्ट गांधी जी के विचारों से बहुत प्रभावित थीं, इसीलिए उन्होंने स्त्रियों की आत्मनिर्भरता पर अपना ध्यान केंद्रित किया। कुछ समय श्रीमती नाथी बाई दामोदर ठाकरे महिला विश्वविद्यालय में अंग्रेजी पढ़ाने के बाद वे 1955 में अहमदाबाद की एक इकाई की टेक्सटाइल लेबर एसोसिएशन के कानून विभाग में आ गईं और वहीं से उनमें यह चेतना उभरी कि उन्हें कामकाजी महिलाओं के हित में काम करना है।

वर्ष 1971 में अहमदाबाद की बाजार हाथगाड़ी खींचने वाली और सर पर बोझा ढोने वाली प्रवासी महिला कुलियों ने अपने सिर पर छत की मांग को लेकर इला भट्ट से मदद मांगी थी। इला ने इस विषय पर स्थानीय अखबारों में लिखा, तो कपड़ा व्यापारियों ने जवाबी लेख लिखकर उनके आरोपों को खारिज कर दिया और महिला कुलियों को उचित मजदूरी देने का दावा किया।

इला भट्ट ने व्यापारियों वाले लेख की अनेक प्रतियां बनवाईं और महिला कुलियों में बांट दीं, ताकि वे व्यापारियों से अखबार में छपी मजदूरी की ही मांग करें। इला भट्ट की इस युक्ति से कपड़ा व्यापारी हार मान गए और उन्होंने इला भट्ट से वार्ता की पेशकश की। दिसंबर, 1971 में इसी बैठक के लिए सौ महिला मजदूर जुटीं और इस तरह सेवा संगठन का गठन हुआ। इस संस्था के जरिये स्वरोजगार में लगी महिलाओं को परामर्श दिया जाता था।

वर्ष 1979 में इला ने वुमन वर्ल्ड बैंकिंग की स्थापना की। वहे 1980 से 1988 तक इसकी अध्यक्ष रहीं। इला को अंतरराष्ट्रीय श्रम, सहकारिता, महिलाओं और लघु-वित्त आंदोलनों से जुड़ने के लिए बहुत आदर-सम्मान मिला। उन्होंने ‘लड़ेंगे भी, रचेंगे भी’ एवं ‘अनुबंध’ जैसी चर्चित कृतियों समेत कई पुस्तकें लिखीं। इला भट्ट ने महिलाओं को सशक्त करने में अहम भूमिका निभाई। महिलाओं की स्थिति सुधारने एवं तमाम सामाजिक कार्यों के लिए भट्ट को अनेक पुरस्कार एवं सम्मान मिले।

वर्ष 1977 में इला भट्ट को सामुदायिक नेतृत्व श्रेणी में मेग्सेसे पुरस्कार दिया गया। इसके बाद 1984 में उन्हें स्वीडन की संसद द्वारा राइट लिवलीहुड सम्मान मिला। इला को भारत सरकार द्वारा 1985 में पद्मश्री और अगले ही वर्ष 1986 में पद्मभूषण जैसे शीर्ष सम्मान से नवाजा गया। जून, 2001 में हार्वर्ड विश्वविद्यालय ने उन्हें आनरेरी डाक्टरेट की डिग्री प्रदान की। वर्ष 2010 में उन्हें जापान के प्रतिष्ठित निवानो शांति पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया।

इला को यह पुरस्कार भारत में 30 वर्षों से अधिक समय से गरीब महिलाओं के विकास और उत्थान के कार्यों व महात्मा गांधी की शिक्षाओं का पालन करने के लिए मिला। यही नहीं, वह राज्यसभा सांसद भी बनीं और योजना आयोग की सदस्य के रूप में भी काम किया। पढ़ाई के दौरान इला की मुलाकात एक निडर छात्र नेता रमेश भट्ट से हुई।

दरअसल, दोनों ने वर्ष 1951 में भारत की पहली जनगणना के दौरान मैली-कुचैली बस्तियों में रहने वाले परिवारों का विवरण दर्ज किया। इसी दौरान दोनों ने एक-दूसरे को समझा और जाना। वर्ष 1955 में दोनों ने विवाह कर लिया। इला भट्ट ने 89 साल की उम्र में अहमदाबाद के अस्पताल में 2 नवंबर 2022 को अंतिम सांस ली।