लाहौर की कृष्णा गली वाली ‘जगमाई’ का असली नाम जमना देवी था। उस दिन चौदह अगस्त की सुबह जब वह उठी तो शोर पूरी गली में था और घर के भीतर भी। बदहवास से दोनों बेटे मां के कमरे में गए। दोनों के चेहरों पर घबराहट थी। आवाजें भी कांप-सी रही थीं। जमना देवी ने पूछा, ‘क्या हुआ? सुख तो है? इतने घबराए हुए क्यों हो? बड़ा बेटा रामलाल बोला, ‘मां यह सब तो कई दिन से चल रहा था। बस हमें अब यहां से फौरन निकलना होगा।’ ‘मगर जाना कहां है?’ छोटा शामलाल बोला, ‘मां यह तो पता नहीं, अब यह घर, सब कुछ यहीं छोड़ कर निकलना होगा। ज्यादा बातों का वक्त नहीं है मां। यह मुल्क अब अपना नहीं रहा। यहां रहे तो मार डाले जाएंगे। बस अब एकाध धोती और अपनी पूजा वाली माला ले लो। ज्यादा सामान भी नहीं ले जा पाएंगे।… मां! यह मुल्क अब हिंदुस्तान नहीं रहा। अब यहां पाकिस्तान बन गया है। बाहर सब तरफ मारकाट चल रही है। पड़ोसी लाला आया था। कह गया जल्दी निकलेंगे तो शायद जानें बच जाएंगी। हमें अगले मोड़ पर एक काफिला मिलेगा। उस काफिले के साथ डोगरा सिपाहियों का एक ट्रक भी होगा। वे हमें बार्डर पार करा आएंगे।’
जमनादेवी धाम से खाट पर बैठ गई। अपनी लाठी की मूंठ पर उसने दो हाथ जमा लिए। फैसलाकुन आवाज में बोली, ‘देखो, मैं तो न आज जाऊं, न कल। मेरे लिए तो यही हिंदुस्तान, यही पाकिस्तान। मैं तो यहीं रहूंगी। यह मकान मेरा है। यहां पर कोई कब्जा नहीं कर सकता। तुम लोग जाओ, मैं तो यहीं रहूंगी। थोड़े हालात ठीक हो जाएं, तुम लोग भी लौट आना। अपना घर, ठीया भी कोई छोड़ता है क्या?’ लंबी बहस का वक्त नहीं था। कुछ देर तक मान-मनौवल जारी रही। मगर जमनादेवी टस से मस न हुई। आखिर फैसला हुआ कि उसे वहीं छोड़ दिया जाए और बच्चों तथा औरतों के साथ फौरन निकला जाए। रोते-रोते सबने मां को माथा टेका और भीतर से ताला लगाने की ताकीद कर के परिवार के सभी लोग गली में निकल गए। जमना देवी को थोड़ी बेचैनी भी हुई। मगर उसने मन बना लिया कि अब वह तो यहीं रहेगी। कुछ दिन तक उसने चूल्हा भी नहीं जलाया। बिस्कुट और पानी के भरोसे दो-तीन दिन काट लिए। चौथे दिन शौकत मिर्जा नाम का एक शख्स आया। बंदा तमीजदार था। वह भी तीन दिन पहले ही दिल्ली से उजड़ कर लाहौर आया था। यहां उसे अस्थायी रूप में वही मकान ‘अलॉट’ कर दिया गया, जहां जमनादेवी अकेली रहती थी। उसने दरवाजा थपथपाया। अंदर से कांपती आवाज आई, ‘कौन है भाई। मैं तो बूढ़ी औरत हूं। मेरे पास है भी कुछ नहीं। कहीं और जाकर लूट-मार कर लो। यहां तो वक्त ही बर्बाद होगा।’ शौकत मिर्जा बाहर से ऊंची आवाज में बोला, ‘बेबे, दरवाजा खोल दो। यह घर अब मेरे नाम ‘अलॉट’ हो चुका है। अब इसमें मैं रहूंगा। दरवाजा न खोला तो पुलिस वाले बुलाने पड़ेंगे। मैं भी उजड़ कर दिल्ली से आया हूं। मेरे साथ भी बच्चे हैं, बूढ़े मां-बाप हैं।’ जमना देवी की आवाज कठोर होती गई, ‘तुम चाहे किसी को ले आओ। मैं दरवाजा नहीं खोलूंगी। ज्यादा तंग करोगे तो सारे घर को आग लगा दूंगी। बीच में जल मरूंगी, मगर दरवाजा नहीं खोलूंगी।
शौकत मिर्जा ने साथ वाले एक खाली मकान में सामान रखा। परिवार को भीतर ले आया और जमना देवी के बारे में शिकायत करने थाने चला गया। थोड़ी देर में वह दो सिपाहियों के साथ लौटा। सिपाहियों ने पहले तो आराम से दरवाजा खुलवाने की कोशिश की। मगर जब नहीं खुला तो उन्होंने दरवाजा तोड़ने की मशक्कत शुरू कर दी। तभी भीतर से जमनादेवी ने चीखती आवाज में धमकी दी, ‘मैंने पूरा घर जलाने की तैयारी कर ली है। मिट्टी के तेल का कनस्तर मेरे एक हाथ में है। दूसरे में माचिस है। पूरी जिम्मेदारी तुम लोगों पर होगी। अब दरवाजे को धकेला तो अगले ही लम्हे आग लगा दूंगी। धमकी का असर हुआ। पुलिस वाले लौट गए। तय हुआ कि कुछ दिन तक इस बुढ़िया को न छेड़ा जाए। अपने आप चली जाएगी या इसके कोई रिश्तेदार आकर ले जाएंगे। शौकत मिर्जा को पास वाले घर में अस्थायी रूप से रहने की इजाजत मिल गई। मिर्जा खुद एक ‘रिफ्यूजी’ था। वह एक ‘रिफ्यूजी’ की पीड़ा से पूरी तरह वाकिफ था। दो एक दिन के बाद उसने आटे की एक पोटली, थोड़ा नमक और अचार बांध कर दीवार की अपनी तरफ से उधर फेंक दिया। मन में आया था कि बुढ़िया के पास जब आटा-नमक भी नहीं होगा, तो क्या पकाएगी, क्या खाएगी। कुछ दिन बाद मिर्जा ने आवाज लगाई, ‘बेबे जी! अगर दरवाजा खोल देंगी तो अल्लाह कसम, हम लोग आपकी भी देखभाल कर लेंगे। आप एक नेकदिल बुजुर्ग हैं। यकीनन आपको बच्चे छोड़ गए होंगे। ऐसी बातें अक्सर हुई हैं इन हालात में। अगर एकाध दिन बाद, हम पर यकीन आ जाए तो दरवाजा खोल दीजिएगा या फिर अपने घर को ताला लगाकर इधर ही आकर मिल जाइएगा।’
जमना देवी ने उस दिन तो कोई जवाब नहीं दिया। अगले दिन सुबह-सुबह मुंह अंधेरे ही उसने चूल्हा जलाया। थोड़ी सेवइयां बनार्इं। कटोरी में भर कर बाहर निकली। घर को ताला लगाया और पास वाले मिर्जा के घर गई। मिर्जा और उसका सारा परिवार हैरान हुआ। जब जमनादेवी ने इशारा करते हुए बताया, ‘मैं आपकी पड़ोसन जमना…’ तो मिर्जा और उसकी बेगम ने आगे बढ़ उसके पैर छुए। बच्चे भी सलाम करते हुए आगे बढ़े। जमना देवी ने सबके सिर पर हाथ फेरा, ‘सुखी रहो, ईश्वर, तुम्हारा अल्लाह, तुम सबको सुखी रखे।’ पहले तो जमना देवी सेवइयां देकर लौटने को थी, मगर शौकत के इसरार पर बैठ गई। बच्चों को पास बुलाया। उन्हें भरपूर प्यार दिया। फिर बोली, ‘अच्छा चलती हूं। फिर आऊंगी। अब तुम्ही लोग मेरा सहारा हो।’ शौकत की बीवी झट से अंदर गई। एक छोटा-सा खेस ले आई, ऊपर कुछ मिश्री रखी और छोटी सी पोटली में चावल रखे। बोली, ‘बेबे! अब आप हमारे भी बुजुर्ग हो। अब्बा अभी मस्जिद तक गए हैं और अम्मी भी पड़ोस के घर तक गई हैं। दोनों अभी लौट आएंगे। आप बैठें तो उन्हें भी बेहद खुशी होगी। अगर जल्दी में हों तो हम सब बाद में मिलने आ जाएंगे। आप पहली बार आई हैं। बुजुर्ग कभी खाली हाथ नहीं जाते। ये थोड़ी चीजें हैं, इन्हें कबूल करें। बस सबके लिए दुआ करें कि ऐसे दिन किसी को न देखने पड़ें।’ जमनादेवी की आंखें गीली होने लगीं। आवाज भर्रा गई। कुछ बोल नहीं पाई, बस सारा कुछ माथे पर लगाया। बिना कुछ बोले, लौटने से पहले अपनी धोती का पल्लू खोला। कुछ सिक्के निकाले और शौकत के तीनों बच्चों के हाथ में थमा कर बिना बोले लौट गई। उसके बाद जमनादेवी कभी-कभार खीर या मीठी रोटी बना कर शौकत के घर दे आती। धीरे-धीरे सिलसिला बढ़ने लगा। शौकत जब भी बाजार से कुछ लाता, एकाध सब्जी या फल जमनादेवी के लिए भी ले आता। अब तो आस-पड़ोस में किसी का भी बच्चा बीमार होता, जमनादेवी फौरन कोई काढ़ा या देसी टोटका पीस कर दे आती। धीरे-धीरे जमनादेवी को लोग जगमाई के नाम से पुकारने लगे।
इसी बीच खबर आई, दोनों ओर से ऐसे पुराने बाशिंदों को एक बार अपने-अपने पुराने घरों में दबा या छूटा सामान लाने की इजाजत मिली। घर छोड़ते समय बहुत से लोग अपने जरूरी कागजात और सोने के जेवर वगैरह अपने-अपने घरों के किसी कोने या दीवारों की ईंटों के पीछे छिपा कर रख आए थे। जमनादेवी को लगा, शायद उसके बेटों में से कोई आए। उसे यह तो भनक लग गई थी कि घर छोड़ने से पहले रामलाल दीवार में कुछ ठुक ठुक तो कर रहा था। बाद में उसकी पत्नी ने उस दीवार पर गोबर का लेप भी किया था। मौका मिला है तो हो सकता है वह एक बार आए। जमना देवी ने दो दिन तक किवाड़ खुले रखे। पूरी गली में बीसियों पुराने बाशिंदे आए। चार-पांच घर छोड़ कर रहने वाला श्यामसुंदर तो खासतौर से जमना देवी का पता करने आया। गले मिला। रोया भी। जमनादेवी भी रोई। सबका हालचाल पूछा। पता चला कि रामलाल का परिवार यूपी में कहीं जाकर बस गया था। जमना देवी ने दरवाजा भीतर से बंद किया। उसने श्यामसुंदर को बताया, ‘शायद रामलाल भी कुछ छिपा कर रख गया है। हो सकता है वह भी आए। हो सकता है न भी आ पाए।’ श्यामसुंदर ने इजाजत मांगी कि अगर जमना देवी बताए तो वह गड़ा हुआ सामान खोदने में मदद कर सकता है। भीतर ले जाकर उसने इशारा किया। श्यामसुंदर ने दीवार को देखा। धीरे-धीरे उसने चार ईंटें एहतियात से निकालीं। एक लोहे का डिब्बा मिला। उसने पूरे भरोसे के साथ डिब्बा जमना देवी के हाथों में थमा दिया। ‘ले बेबे! लगता है तेरे चार दिन भी अच्छे कट जाएंगे।’ जमना देवी ने बड़े ध्यान से उसे खोला। कुछ जेवर और कुछ चांदी के सिक्के थे। जमना देवी ने दो एक जेवर रख लिए, कुछ चांदी के सिक्के भी रख लिए। बाकी सामान श्यामसुंदर को थमाते हुए बोली, ‘हो सके तो थोड़ा दौड़-धूप करके सामान रामलाल तक पहुंचा देना। अपना खर्चा पानी इन सिक्कों से निकाल लेना।’ मगर श्यामसुंदर ने सभी समान जमना देवी को वापस थमाया, ‘बेबे यहां से जो भी मिलता है, उसका हिसाब-किताब सरकारी रिकार्ड में दर्ज होता है। मैं अपना सामान पहले ही ले चुका हूं। अब अगर कुछ और रखा तो ये पुलिसिए ही खा जाएंगे। इसे आप रखो, जब भी रामलाल का पता चला, उसे बता आऊंगा। वह खुद आएगा और आपको और सामान को ले जाएगा।’ जमना देवी ने भारी मन से अपने संदूक में वह डिब्बा ज्यों का त्यों रख लिया। श्यामसुंदर लौट गया। जमना देवी ने दो एक दिन इंतजार किया फिर वह निराश होकर अपनी पुरानी जिंदगी पर लौट आई। वही शौकत का घर या एक-दो पड़ोसी। वही ‘काढ़े’ और देसी ‘टोटके’। अब तो कुछ लोग और औरतें उसके पास भी आने लगे थे।