भारत में झुग्गी बस्तियों में रहने वालों की आबादी लगातार बढ़ रही है। 2011 की जनगणना के अनुसार भारत में साढ़े छह करोड़ से ज्यादा लोग मलिन झुग्गी बस्तियों में रहते हैं, जिसमें से 32 प्रतिशत आबादी 18 साल से कम है। करीब 3.65 बच्चे छह साल से कम उम्र के है, जिसमें से लगभग अस्सी लाख बच्चे मलिन बस्तियों में रहते हैं। हाल ही में जारी यूएन हैबिटैट की रिपोर्ट ‘वर्ल्ड सिटीज रिपोर्ट-2016’ के अनुसार 2050 तक भारत के शहरों में और 30 करोड़ तक की आबादी का अनुमान लगाया गया है। वर्तमान में भी बड़ी संख्या में ग्रामीण क्षेत्रों से लोग शहरों की तरफ पलायन कर रहे हैं।

भारत सरकार इसका कारण शहरीकरण के प्रति बढ़ते आकर्षण को मानती है जबकि यह सर्वविदित है कि गांवों से शहर की तरफ पलायन का प्रमुख कारण ग्रामीण भारत में रोजगार के अवसरों में कमी का होना है। इधर शहरों में लगातार बढ़ रही आबादी के अनुपात में तैयारी देखने को नहीं मिल रही है। हमारे शहर बिना किसी नियोजन के तेजी से फैलते जा रहे हैं क्योंकि उन्हें बिल्डरों के हवाले कर दिया गया है। आज शहरों में जगह की कमी एक बड़ी समस्या है। यहां ऐसी बस्तियां बड़ी संख्या में हैं जहां जीने के लिए बुनियादी सुविधाएं मौजूद नहीं हैं। तमाम चमक-दमक के बावजूद अब भी शहरों में करीब 12.6 फीसद लोग खुले में शौच जाते हैं। झुग्गी बस्तियों में तो यह दर 18.9 फीसद है। इसी तरह से केवल 71.2 प्रतिशत परिवारों को अपने घर के परिसर में पीने के पानी की सुविधा उपलब्ध है। शहरी भारत में अभी भी सीवेज के गंदे पानी का केवल 30 प्रतिशत हिस्सा ही परिशोधित किया जाता है बाकी का 70 फीसद गंदा पानी नदियों, समुद्र, झीलों आदि में बहा दिया जाता है।

शहरी बस्तियों में रहने वाले बच्चों के संदर्भ में बात करें तो पीडब्ल्यूसी इंडिया और सेव दि चिल्ड्रन की ओर से जारी रिपोर्ट में असलियत सामने आ जाती है। ‘फॉरगॉटेन वॉयसेस: दि वर्ल्ड आॅफ अर्बन चिल्ड्रन इंडिया’ के अनुसार शहरी मलिन बस्तियों में रहने वाले बच्चे देश के सबसे वंचित लोगों में शामिल हैं। कई मामलों में तो शहरी बस्तियों में रह रहे बच्चों की स्थिति ग्रामीण इलाकों के बच्चों से भी अधिक खराब है। शहरी क्षेत्रों में जिन स्कूलों में ज्यादातर गरीब और निम्न मध्यवर्गीय परिवारों के बच्चे शिक्षा के लिए जाते हैं उन स्कूलों की संख्या बच्चों के अनुपात में कम है।

इस कारण 11.05 प्रतिशत स्कूल दोहरी पाली में लगते हैं, जहां शहरी क्षेत्रों में एक स्कूल में बच्चों की औसत संख्या 229 है। वहीं ग्रामीण क्षेत्रों में यह संख्या 118 है। शहरी क्षेत्रों के इन स्कूलों में बच्चों के स्कूल छोड़ने की दर भी अधिक है। इसी तरह से पांच साल से कम उम्र के 32.7 प्रतिशत शहरी बच्चे कम वजन के हैं। बढ़ते शहर बाल सुरक्षा के बढ़ते मुद्दों को भी सामने ला रहे हैं। 2010-11 के बीच बच्चों के प्रति अपराध की दर में 24 प्रतिशत की वृद्धि हुई थी जबकि 2012-13 में 52.5 प्रतिशत तक बढ़ी है। चाइल्ड राइटस एंड यू (क्राई) के अनुसार 2001 से 2011 के बीच देश के शहरी इलाकों में बाल श्रम में 53 फीसद की वृद्धि दर्ज की गई है।

शहरी भारत में बड़ी संख्या में बच्चे बदहाल वातारण में रहने को मजबूर हैं और उनके लिए जीवन संघर्षपूर्ण और चुनौती भरा है। सरकारों द्वारा शहरों के नियोजन के लिए पंचवर्षीय योजनाओं में प्रावधान किए जाते रहे हैं। केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा समय समय पर आवास नीतियां भी बनाई गई हैं। पिछले दशकों में जवाहर लाल नेहरू राष्ट्रीय शहरी नवीनिकरण मिशन और राजीव गांधी आवास योजना में शहरी नियोजन, विकास से लेकर शहरी गरीबों की स्थिति सुधारने, मूलभूत सुविधाएं देने के लंबे चौड़े दावे किए गए थे लेकिन इन सब के बावजूद आज भी न तो शहरों का व्यवस्थित नियोजन हो सका है और न ही झुग्गी बस्तियों में जीवन जीने के लायक न्यूनतम नागरिक सुविधाएं उपलब्ध हो सकी हैं, आवास का मसला अभी भी बना हुआ है।

जेएनयूआरएम के तहत शहरी गरीबों को जो मकान बना कर दिए गए थे वे टूटने-चटकने लगे हैं। इन सब नीतियों और योजनाओं में बच्चों की भागीदारी और सुरक्षा के सवाल नदारद रहे हैं। स्मार्ट सिटी परियोजना में भी बच्चों से संबंधित मुद्दों और उनके हितों को लेकर बातें सिरे से गायब हैं। कोई भी शहर तब तक स्मार्ट सिटी नहीं बन सकता, जब तक वहां बच्चे सुरक्षित न हों, उनके लिए खेलने की जगह और जीवन जीने के लिए बुनियादी नागरिक सुविधाओं का अभाव हो। शहर की योजना बनाते समय बच्चों की समस्याओं को दूर करने के उपाय किए जाने चाहिए और उनसे राय भी लेना चाहिए।

बहुचर्चित स्मार्ट सिटी परियोजना के लिए एक लाख करोड़ रुपए के बजट का आवंटन और एफडीआई की शर्तों में ढील दी जा चुकी है। लेकिन इनको लेकर सवाल पूछे जा रहे हैं कि आखिरकार स्मार्ट सिटी किसके लिए है। यहां कौन रहेगा और इससे सबसे ज्यादा किसे फायदा होने जा रहा है। हमारे शहर में अव्यवस्था और अभावों की मारी एक बड़ी आबादी झुग्गी बस्तियों में बहुत ही अमानवीय स्थिति रहती है। ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी है कि इन बुनियादी समस्याओं को दूर किए बिना शहरों को स्मार्ट कैसे बनाया जा सकता है? इसको लेकर विरोध भी देखने को मिल रहे हैं। मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में तो नागरिक संगठनों, आम जनता, विपक्षी पार्टियों के साथ खुद भाजपा के कई नेता इसके विरोध में सामने खड़े दिखाई दिए। भोपाल शहर के तुलसी नगर और शिवाजी नगर क्षेत्र को स्मार्ट सिटी के चुना गया था।

ये इलाके पॉश और हरे-भरे हैं। परियोजना की वजह से करीब चालीस हजार पेड़ों के काटे जाने का खतरा मंडरा रहा था। इसलिए तुलसी नगर और शिवाजी नगर क्षेत्र में स्मार्ट सिटी बनाए जाने को लेकर भोपाल के जागरूक नागरिकों ने जोरदार विरोध किया। उनकी मांग थी कि स्मार्ट सिटी का स्थान बदला जाए। जनदबाव के चलते कांग्रेस और भाजपा के कई स्थानीय नेता भी इस विरोध में शामिल हो गए। अंत में मध्य प्रदेश सरकार को मजबूर होकर इस परियोजना को शिवाजी नगर और तुलसी नगर से स्थानांतरित करके नॉर्थ तात्यां टोपे नगर ले जाने का फैसला करने को मजबूर होना पड़ा।