योगेंद्र शर्मा

उस दिन हर इतवार की तरह शरद और सुनंदा, तीन बजे शहर में थे। रेलवे रोड में खरीदारी के बाद लौटते समय छेरत में उन्होंने सब्जी खरीदी थी। किसी इतवार वे तीन से छह ‘अप्सरा’ या ‘नंदन’ में फिल्म देख लिया करते थे। सूरज छिपने को था। कुछ सब्जी, स्कूटर की डिक्की में, कुछ सुनंदा के पास थैले में थी, जिसे लेकर वह बैठ भी नहीं पाई थी कि स्कूटर आगे बढ़ गया था। शरद थोड़ा भुलक्कड़ तो पहले था, ऊपर से लेखन का शौक चर्रा आया था। सो, बेखुदी जुलाई-अगस्त की नदिया-सी बढ़ चली थी। करीब एक किलोमीटर चल लिया, तो उसने सुनंदा से पूछा कि कहीं उसे ठंड तो नहीं लग रही। नवंबर का आगाज था। कोई उत्तर नहीं मिला तो उसने पलट कर देखा। पीछे सीट खाली थी।

अब काटो तो खून नहीं। कहां रह गई? चलते स्कूटर से अगर गिरती, तो स्कूटर डगमगाता, आवाज होती। तो, क्या उसके बैठने से पहले ही मैंने स्कूटर चला दिया। हां यही हुआ है, उसके बैठने से पहले।… शरद ने खुद को कोसा- कितने लापरवाह हो तुम। वह सोच रहा था कि सुनंदा सब्जी की दुकान पर इंतजार कर रही होगी। वह लौटा, तो उसे कासिमपुर वाली बस रास्ते में मिली थी। सुनंदा न रास्ते में मिली, न सब्जी वाले के पास। क्या सुनंदा, उसी बस में थी? पर अगर थी, तो उसने मुझे पुकारा क्यों नहीं? बस रुकवाई क्यों नहीं? निराश शरद वापस लौट रहा था। लगभग नौ किलोमीटर दूर कासिमपुर पावर हाउस कॉलोनी में रहते थे दोनों पति-पत्नी। इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग में डिप्लोमा किया था। शरद पावर हाउस में कार्यरत था। सुनंदा स्थानीय कन्या इंटर कॉलेज में अध्यापिका थी। बस सवारी उतार कर चली गई थी। क्वार्टर पर पहुंचा, तो वहां ताला लगा था। अरे, यहां भी नहीं है। फिर गई कहां? सब्जी फ्रिज में रखी। स्कूटर अंदर रखा। पड़ोसी गुप्ता जी को अपनी समस्या बताई, तो बोले, ‘अरे यार, फिकर क्यों करते हो? यहां ताला बंद देखा होगा, तो अपनी किसी सहेली के घर चली गई होगी। सुबह आ जाएगी।’ उसने सोचा, उसकी सहेलियों के घर जाकर पूछते हैं। सुषमा, मायके गई हुई है। उसने अनीता के घर जाकर पूछा। वंदना और कविता के घर जाकर पूछा, पर वह कहीं नहीं मिली। वह सोच कर परेशान था कि कहां गई सुनंदा? वह हताश, परेशान अपने क्वार्टर लौट आया था। सुबह की दाल-सब्जी फ्रिज से निकाल कर गरम की और डबल रोटी के साथ खा ली। पता नहीं क्यों, जब भी हमारा कोई प्रिय कहीं अटक जाए, समय पर घर न लौटे, तो तमाम अप्रिय विचार, गली के गुंडों की तरह हमें आ घेरते हैं और अच्छे, प्रिय विचार सिर पर पैर रख कर भाग निकलते हैं। उसे सहसा ऐसा लगा कि सुनंदा उससे मदद की गुहार लगा रही है। सुनंदा सड़क पर चली जा रही है, तभी दो गुंडा किस्म के मुस्टंडे उसका पीछा करने लगते हैं। उनमें एक नशीले द्रव वाला रूमाल उसे सुंघा देता है। पीछे से दो व्यक्ति और आ जाते हैं और बेहोश सुनंदा को गन्ने के खेत में उठा ले गए हैं।
फिर प्रिय विचार आया कि सुनंदा ने मुझे पुकारा होगा, फिर पीछे आती बस को हाथ दिया होगा, और चढ़ गई होगी। क्वार्टर पर मुझसे पहले आ गई होगी। वहां ताला लगा देख कर अपनी किसी सहेली के घर चली गई होगी… सुबह आ जाएगी।

रात के सवा नौ बजे हैं। पेट की भूख तो शांत हो गई है, पर दिमाग में विचारों की रेलमपेल थमने का नाम नहीं ले रही। चलो बुद्धू बक्से से ही समय काटा जाय! खबरें आ रही हैं। पाकिस्तान की गोलीबारी से दो जवान और तीन नागरिक मारे गए हैं, सरकार ने विरोध व्यक्त करने की औपचारिकता निभा दी है। पहाड़ी रास्ते में एक बस खाई में गिर गई थी। लगभग पैंतीस यात्री काल के गाल में समा गए थे। एक छह वर्षीय बालिका का क्षत-विक्षत का शव गन्ने के खेत में बरामद। बलात्कार के बाद हत्या की आशंका। अरे बाप रे, लोग ऐसी कमसिन बच्चियों को भी नहीं बख्श रहे, मेरी सुनंदा तो जवान और खूबसूरत है, अभी बीस बसंत ही देखे हैं। उसने बेचैनी में पहलू बदला और सीरियल देखने लगा। सीरियल में एक एमपी साहब हैं, जिन्हें एक छोटे से गांव के अलावा अपने चुनाव क्षेत्र में कुछ भी नहीं दिखता। वह सात-आठ लाख की जनसंख्या के नेता हैं, लेकिन एक अबोध बंधुआ मजदूर लड़की की जान के पीछे हाथ धोकर पड़े हैं। अजीब परिवार है उनका। बाप, बेटे को कत्ल करने को तैयार है, और बेटा, बाप की हत्या को तत्पर है। बहन, भाई की हत्या करने को है, तो भाई भी बहन की हत्या का इच्छुक है। वाह, हमारा बुद्धू बक्सा समाज के सामने कितना आदर्श परिवार/ एक अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत कर रहा है। चैनल बदला तो सास बहू का सीरियल आ रहा था। नायिका, खलनायिकाआें के गैंग से घिरी रहती थी। उसके आंसू कभी थमते ही नहीं थे और हंसी जाड़े की धूप-सी अल्पजीवी थी। ‘टीआरपी’ के अलावा ये लोग ‘विज्ञापन रोग’ से भी पीड़ित हैं। आज हम टीवी के साथ विज्ञापन नहीं, विज्ञापनों के साथ टीवी देखते हैं। अगर चार घंटे टीवी देखो तो दो घंटे विज्ञापन झेलो। एक ही विज्ञापन कम से कम तीस बार देखो।
वह प्रयास करके हार गया था। हर बार वही चित्र बन रहा था कि चार मुस्टंडे मिल कर उसकी सुनंदा के साथ ज्यादती कर रहे हैं। क्या करें? बेचैनी के कारण गैस जैसे ऊपर चढ़ रही थी। नवंबर का महीना था, लेकिन उसे पसीना आ रहा था। एक गिलास पानी पिया, कमरे से बाहर निकला। पतला-सा चांद आसमान में मुंह चिढ़ा रहा था। फिर उसे याद आया, दो सीडी उसने छुपा कर रखी थी।

एक सुंदर सुडौल शरीर वाली युवती तीन युवकों के साथ केलिरत थी, कुछ हंसी मजाक भी करती जा रही थी। सहसा वही चित्र दिलो-दिमाग में ताजा हो गया था। ऐसा लगा जैसे वह युवती सुनंदा है और चीख रही है, मदद की गुहार लगा रही है। फिर उसे याद आया कि आज तो उसने काले रंग का ब्लाउज पहना था, जिसमें पीछे एक बड़ी सी खिड़की थी, जिसके ऊपर रेल के डिब्बे में लटकती चेन-सा एक फुंदना लटका हुआ था।… विश्वामित्र जैसे ब्रहमर्षि भी फिसल गए थे।… बेचैनी में गैस ऊपर चढ़ रही थी। बार-बार डकार आ रही थी। फिर उसे याद आया, पुदीन हरा कैप्सूल। दो कैप्सूल के साथ एक गिलास पानी पिया, थोड़ी देर वज्रासन में बैठा। अब वह दूसरी सीडी देख रहा था। इसमें तीन स्त्रियां, एक पुरुष।… उसके दिलो-दिमाग में वह चित्र आ विराजा था। असहाय चीखती-चिल्लाती सुनंदा, और उसे अपनी हवस का शिकार बनाते चार-चार मुस्टंडे। घबरा कर उसने वही सीडी दुबारा चला दी। घड़ी की ओर देखा, सवा तीन बज रहे थे। अकस्मात उसे लगा कि जैसे सुनंदा उसके सामने खड़ी है। फटा हुआ ब्लाउज, बाल बिखरे हुए, हांफती-कांपती ‘शरद श…र…द… मैं… लुट गई… शरद। मुझे ज-ह-र दे दो… मैं मरना चाहती हूं। इज्जत की मौत।’ वह संशयग्रस्त-सा खड़ा है…। किंकर्तव्यविमूढ़। उसे ऐसा लगा कि उसकी आत्मा एक सजग पत्रकार की तरह उसका साक्षात्कार ले रही है। ‘कहिए श्रीमान शरद कुमार, इस ‘अपवित्र’ स्त्री को स्वीकार करेंगे?’ ‘क्या करूं… सोचता हूं लोग क्या कहेंगे? बाहर निकलना दूभर हो जाएगा।’… ‘अरे जिसकी जेब कटी, डकैती, राहजनी जिसके साथ हुई, क्या उसे ही दंड दोगे? उन मरखने साड़ों के तो बाल टेढ़े कर नहीं पाते। यह समाज तो सदा कमजोर के गाल पर ही थप्पड़ मारेगा।’… ‘नहीं मैंने अग्नि को साक्षी मान कर उससे विवाह किया है। मैं मर्यादा पुरुषोत्तम की तरह अपनी सुनंदा को वनवास नहीं दूंगा। मैं तो उस धोबी को दो थप्पड मारूंगा, और पूछूंगा कि उसका पति अभी जिंदा है, वह कौन होता है, किसी की पत्नी को चरित्र-प्रमाण पत्र देने वाला।…’ करीब साढ़े पांच बजे उसे कुर्सी पर बैठे-बैठे नींद आ गई थी। लगभग साढ़े छह बजे द्वार पर घंटी बजी थी। ‘अरे वह आ गई।’ सोचते हुए उसने झपट कर सीडी प्लेयर बंद किया, और द्वार खोला। और वाकई वह आ गई थी। वह सुनंदा ही थी, उसकी अपनी सुनंदा। न उसका ब्लाउज फटा था और न बाल बिखरे थे। सब्जी का थैला और बैग जमीन पर पटका और शरद को मुस्करा कर देखा। वह उसे गुस्से में थोड़ी देर घूरता रहा, ‘कहां चली गई थी, यार?’
‘अच्छा जी, मुझे बिना बिठाए ही स्कूटर हांक दिया, अब पूछ रहे हो कि कहां थी?’ लेकिन उसने जैसे सुना ही नहीं, उसे बांहों में भर कर ऐसे भींचा कि वह चिल्ला पड़ी, ‘अरे, मारोगे क्या?… अरे मरी! अरे सुनो, तुम्हें दो बार पुकारा, फिर बस आ रही थी, पीछे से उसे हाथ दिया और आ गई।’

‘अच्छा, अब तो बता दो कि किसके घर गई थी? तुम्हारी सारी सहेलियों के घर पूछ आया। और यह बताओ कि तुम बस में थी, तो मुझे पुकारा क्यों नहीं।’
‘अरे बाबा, सुषमा के घर गई थी। और बस ठसाठस भरी थी, बाहर कोहरा था।’
‘अच्छा, सुषमा के घर…? पर, वह तो मायके गई थी।’
‘अरे तो, मायके कोई हमेशा को थोड़े गई थी। एक हफ्ते में लौट आई। मैं बैग और थैला लिए जा रही थी, तो अपने द्वार पर खड़ी मिल गई। बोली कि ये तो लखनऊ गए हैं, आज तू ही बिस्तर गरम कर दे।’
‘तो एक चक्कर भी नहीं लगाया कि ससुरा हसबैंड रो-रो कर बैंड बजा रहा है। सारी रात बेचैनी में गुजरी। बुरे-बुरे विचार आते रहे।’
‘आई थी करीब सात बजे… ताला बंद था, वापस चली गई। सुषमा ने भी कह दिया कि जागने दे बच्चू को, बीवी बैठी है या नहीं, बिना देखे चल दिए। बीवी का ध्यान रखना सीख जाएंगे।’
‘अच्छा… ऐसा कहा उस काली कलूटी ने। ठीक है, जा चली जा उसी के पास।’
‘अरे कैसी बात करते हो, मैं तो मजबूरी में उसके घर रही। मैं तो तुम्हारी चीज हूं, मैं क्यों कहीं जाऊं?… वैसे, रात में नीली वाली सीडी देख रहे थे, मैं आई तभी सीडी प्लेयर बंद किया है… है न।’ इतराते हुए सुनंदा ने कहा और गोरी बाहों का हार शरद के गले में डाल दिया था।
‘तो इसी बात पर ‘मीठा मुंह तो करा दो।’ थोडी देर बाद सुनंदा चाय बनाने चली गई थी। शरद को एक पुराना गाना याद आ रहा था, ‘संसार की हर शै का इतना फसाना है, इक धुंध से आना है, इक धुंध में जाना है।’ दरअसल, जिंदगी एक कोहरे से भरी सड़क पर चलना ही तो है। दो-चार मीटर दूर का भी दिखाई नहीं देता। पता नहीं कौन-सा वाहन सामने आ जाए। जीवन का भी क्या पता, अगले पल क्या होगा? पता नहीं अगले पल कौन-सी बाधा सामने आ जाए? हर बाधा/ मुसीबत अपना टैक्स लेती, कर्ज वसूलती है, जैसे कुछ समय शारीरिक-मानसिक कष्ट या धन…। जैसे कल हुई उसकी एक भूल, उसकी एक रात का चैन ले गई थी।