भारत जैसे पुरुष प्रधान समाज में आए दिन महिलाओं के लिए फतवे जारी किए जाते हैं। उनको चलने से लेकर उठने-बैठने, खाने-पीने तक के तरीके पुरुषों द्वारा बनाए जाते हैं, वहीं पुरुषों के लिए कोई नियम नहीं हैं।

महिलाओं के लिए हर जगह असुरक्षा का माहौल है। चाहे घरेलू महिला हो या कामकाजी, खेत में काम करने वाली या दफ्तर में काम करने वाली। सुरक्षा का प्रश्न हर जगह मुंह बाए खड़ा रहता है। गर्भ से लेकर वृद्धावस्था तक महिलाएं कहीं भी सुरक्षित नहीं हैं। विश्वविद्यालय के प्रोफेसरों से लेकर दफ्तर के साथी कर्मचारी के कुकृत्यों तक का शिकार वह जाती है। छोटी-छोटी बच्चियां अपने परिवार के लोगों के बीच और विद्यालय में सुरक्षित नहीं हैं। सड़क, रेलवे स्टेशन, बस स्टैंड आदि सब जगह लोग घात लगाए बैठे हैं। कभी उनका शारीरिक शोषण किया जाता है तो कभी उनके ऊपर तेजाब फेंक दिया जाता है। छोटी-छोटी बच्चियों को जबरदस्ती वेश्यावृत्ति में ढकेला जा रहा है। कितनी ही महिलाएं घरेलू हिंसा का शिकार होती हैं और आज तो उनको लेकर साइबर क्राइम भी बढ़ रहे हैं।

अब इन सबके साथ जीना महिलाओं के लिए चुनौती बनता जा रहा है। इससे उनकी कार्यकुशलता और कार्यक्षमता पर भी प्रभाव पड़ता है और यह उन्हें अंदर ही अंदर काटता रहता है। असुरक्षा के डर से लोग बेटियों को जन्म देने से डरते हैं और इस कारण देश में शिशु लिंगानुपात कम होता जा रहा है। समय से पहले परिवारवाले लड़कियों का विद्यालय जाना बंद करा देते हैं। 2011 की जनगणना के अनुसार जहां महिला साक्षरता दर 65.46 फीसद है तो पुरुष साक्षारता 82.14 फीसद। यह उनके बीच की विषमता को दिखा रहा है। ऐसा तो नहीं है कि देश और समाज की समृद्धि में महिलाओं की कोई भूमिका नहीं है, लेकिन न जाने क्यों हमारा समाज उनसे हमेशा ही परहेज करता दिखता है।

विश्व में जहां दूसरे देशों में महिलाओं को लेकर सजगता बढ़ रही है उनके अधिकारों को लेकर चर्चाएं हो रहीं है, आर्थिक-सामाजिक- राजनीतिक भागीदारी सुनिश्चित की जा रही है। वहीं हम उनकी सुरक्षा के मुद्दे से ही भयभीत हैं। जैसे-जैसे अर्थव्यवस्था का विकास और शिक्षा का प्रसार होता है, यह माना जाता है कि महिलाओं की भूमिका भी देश के विकास में बढ़ती जाती है, कामकाजी महिलाओं की संख्या में वृद्धि होती जाती है। लेकिन हमारे देश में यह कहानी उलटी दिशा में चलती है। आंकडेÞ बताते हैं की 2005 के बाद से अब तक लगभग ढाई करोड़ महिलाएं कामकाजी तबके से अलग हो चुकी हैं। हो सकता है इसके कई कारण हों लेकिन सुरक्षा की समस्या को इससे अलग नहीं किया जा सकता। देश एवं समाज के विकास में महिलाओं की भूमिका पुरुषों की अपेक्षा व्यापक है। क्योंकि जब एक महिला आर्थिक और सामाजिक रूप से सशक्त होती है तो न केवल उसका परिवार बल्कि देश भी सुदृढ़ होता है।

भारत जैसे पुरुष प्रधान समाज में आए दिन महिलाओं के लिए फतवे जारी किए जाते हैं। उनको चलने से लेकर उठने-बैठने, खाने-पीने तक के तरीके पुरुषों द्वारा बनाए जाते हैं, वहीं पुरुषों के लिए कोई नियम नहीं हैं। वर्षों पहले पुरुषों को सचेत करते हुए जयशंकर प्रसाद ने ‘कामायनी’ में लिखा था ‘तुम भूल गए पुरुषत्व मोह में कुछ सत्ता है नारी की।समरसता है संबंध बनी अधिकार और अधिकारी की।’ प्राकृतिक रूप से महिलाओं की शारीरिक सरंचना इस प्रकार बनी है की पुरुष उन पर हावी हो जाते हैं और उन्हें शरीर के साथ ही साथ मानसिक रूप से भी प्रताड़ना देते हैं। इसका यह अर्थ कतई नहीं है कि समाज का प्रत्येक पुरुष बुरा है लेकिन जो बुरे हैं उनको उनके कुकृत्यों की सजा नहीं मिलती इसीलिए उनका दुस्साहस बढ़ता जाता है। देश और प्रदेश की शासन व्यवस्था क्या इतनी लाचार है कि वह महिलाओं को सुरक्षा नहीं दे सकती। जो पुलिस हमारी सुरक्षा के लिए बनाई गई है, हम उन्हीं के पास जाने से डर जाते हैं। कभी तो ऐसा दिन आना चाहिए कि लगे अब बस बहुत हो गया। महिलाओं के प्रति किसी तरह के अपराध को किसी भी रूप में बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। पुरुषों को भी यह शिक्षा दी जाए कि वे ाहिलाओं के प्रति सम्मान का भाव रखें। समाज में इज्जत से रहने, खड़े होने की जिम्मेदारी उनकी भी है। ऐसी लड़कियां और महिलाएं जिनके साथ ऐसे अपराध होते हैं उनको हम अपने बीच में उतना ही सम्मान दें जितना दूसरी लड़कियों और महिलाओं को देते हैं।

भारत के अतिरिक्त विश्व में शायद ही कोई ऐसा देश है जहां नारी को देवी का दर्जा दिया गया हो। लेकिन उसे एक इंसान के रूप में मान्यता कभी नहीं मिलती। यही कारण है कि इक्कीसवीं सदी में भी वह अपने जीवन से जुड़े निर्णयों को लेने अक्षम। उन्हें भयमुक्त वातावरण न दिया गया तो उनको विकास की मुख्यधारा से जोड़ने में मुश्किल होगी। पुरुषों और महिलाओं के बीच असामनता से न केवल देश की छवि धूमिल होती है बल्कि आर्थिक-सामाजिक-राजनीतिक रूप से भी देश कमजोर होता जाता है। क्योंकि असुरक्षित और भयभीत महिलाओं से हम बहुत ज्यादा उम्मीद नहीं कर सकते।

लैंगिक समानता सूचकांक के आधार पर भारत विश्व में दिन-प्रतिदिन पीछे होता जा रहा है। महिलाओं से जुड़े अपराधिक आंकड़े बढ़ते ही जा रहें हैं। केंद्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्री मेनका गांधी ने राष्ट्रीय महिला नीति-2016 का प्रारूप प्रस्तुत किया है। इसका मकसद महिलाओं को आर्थिक-सामाजिक-राजनितिक रूप से सशक्त बनाना है। यह बात यही है कि अकेले सरकार ही सब कुछ नहीं कर सकती, लेकिन महिलाओं को सुरक्षित वातावरण मुहैया कराने में उसकी भूमिका अहम है। सरकार को इस बात पर ध्यान देना होगा की अब केवल महिलाओं के कल्याण की बातें करने का वक्त नहीं है बल्कि उनके अधिकारों और भागीदारी की बात होनी चाहिए। १