मनीषा सिंह
वह वक्त अब नहीं रहा, जब यह मशहूर शेर एक एक सच लगता था, ‘बाजार से निकला हूं, खरीदार नहीं हूं।’ अब तो बाजार इतना आक्रामक हो गया है कि वह पहले हमारी जेबों पर सफलता से डाका डाल देता है और फिर चुपके से हमें इस तरह अपना दास (खरीदार) बना लेता है कि हम आधुनिक जीवनशैली अपनाने के उसके झांसे में आ जाते हैं। आधुनिक जीवनशैली पर बाजार की लफ्फाजी इतनी मोहक प्रतीत होती है कि लोग इस पर गौर ही नहीं कर पाते हैं कि जिस तरफ वह हमें धकेल रहा है, वह अच्छी सेहत की बजाय हमें बीमारियों की गिरफ्त में ले जा रहा है। इसका सबसे ज्यादा असर महिलाओं पर होता दिखाई दे रहा है। खेती जैसे श्रमसाध्य कार्यों पर निर्भर समाज की महिलाओं को क्या बदलते जीवन की चिंता करनी चाहिए? यह सवाल आज से पंद्रह-बीस साल पहले भारतीय महिलाओं के लिए अप्रासंगिक था, लेकिन आज यह चिंता का विषय बन गया है। मसला सिर्फ शहरों का नहीं है, बल्कि छोटे कस्बों में नए और आधुनिक जीवन को छू लेने की चाहत सिर चढ़ कर बोल रही है और खास तौर से महिलाओं और बच्चों को अपना गुलाम बना रही है। इसकी शुरुआत टेलीविजन से हुई थी। अब तो टीवी चैनल घर-घर में पैठ बना चुका है। इसका सबसे पहला हमला लोगों की नींद पर हुआ है। खासकर महिलाएं और बच्चे, इसके शिकार हैं। रही-बची कसर इंटरनेट सुविधा से लैस मोबाइल रूपी स्मार्टफोन पूरी कर रहा है। जिसको देखो, वही आज मोबाइल पर व्यस्त है। उसने हिलते-डुलते शरीरों को एक जगह बांध कर जैसे स्थिर ही कर दिया। ग्रामीण-कस्बाई स्त्रियों के जीवन में टीवी-मोबाइल और सोशल मीडिया की घुसपैठ ने घर के बाहर की उनकी गतिविधियों पर विराम लगा दिया है। घरों में ज्यादातर कुछ न कुछ टूंगते हुए टीवी पर चल रहे कार्यक्रमों को देखना या कंप्यूटर पर इंटरनेट-चैटिंग करना लड़कियों और लड़कों का प्रिय शगल बन गया है।
ज्यादातर अभिभावक भी नहीं चाहते कि उनकी बच्चियां आउटडोर गेम खेलें या शाम के वक्त आस-पड़ोस में खेलने के लिए जाएं। घर में कैद हो जाने वाली लड़कियों-महिलाओं के लिए इसके सिवा कोई विकल्प नहीं बचता कि वे अपना मन टीवी-इंटरनेट से बहलाएं। नई जीवनशैली ने कम पैसे में गुजारा करने की सुविधा को खत्म कर दिया है। जरूरतें पूरा करने के लिए ज्यादा से ज्यादा पैसा चाहिए। इसलिए पलायन भी बढ़ रहा है। गुजारे का विकल्प सीमित हो गया है। शहरों को कूच करने वाली लड़कियों को भी अब बदलती जीवनशैली से तालमेल बिठाना है, इसलिए उन्हें दूध-छाछ व मोटे अनाजों से बनने वाले देहाती भोजन की जगह शहरी किस्म के भोजन-नाश्तों से काम चलाना पड़ता है। ऐसे में ये लड़कियां भी आम तौर पर समोसा, बर्गर, चिप्स जैसी उन चीजों पर निर्भर रहती हैं, जिन्हें कभी भी बेहतर विकल्प नहीं माना गया।कस्बों में शिक्षा और नौकरी संबंधी आई जागृति का विरोधाभासी पहलू यह है कि अपना सारा ध्यान करिअॅर पर लगाने वाली लड़कियां खानपान के मामले में बेहद लापरवाह हो जाती हैं। खानपान और शारीरिक व्यायाम का यह आलस्य उन्हें एक तरह की निष्क्रियता की तरफ धकेल रहा है। नई जीवनशैली में मोटापा एक बड़ी समस्या की तरह आया है। एक तरफ महिलाओं की बड़ी आबादी कुपोषण से ग्रस्त है, वहीं शहरी मध्यवर्ग और उच्चवर्ग में महिलाओं में मोटापा तेजी से बढ़ रहा है। लड़कियों भी इस रोग की शिकार हो रही हैं। इसमें कुछ लोगों को कारोबार नजर आने लगा है और बड़ी संख्या में फिटनेस सेंटर और परामर्श केंद्र खुल रहे हैं।
दूरदराज के ठेठ गांवों में खेतिहर और शहरों में मजदूर महिलाओं के लिए खानपान संबंधी हालात अब भी ज्यादा नहीं बदले हैं, इसलिए उन्हें मोटापे की चिंता से नहीं निपटना है। समस्या आम कस्बाई और शहरी लड़कियों-महिलाओं के लिए है। खानपान के साथ जिनकी दिनचर्या में पिछले एक-डेढ़ दशकों में आमूलचूल परिवर्तन आया है। पहले किशोरियां अपने घर के आसपास बैडमिंटन जैसे शहरी और शारीरिक व्यायाम को अनिवार्य बनाने वाले कुछ देहाती खेल खेला करती थीं और उनका खानपान भी ऐसा सुपाच्य था, जो शरीर की चर्बी को संतुलित रखता था। लेकिन अब शारीरिक परिश्रम को लगभग खत्म करने वाली उनकी दिनचर्या ने मोटापे को उनके लिए भी समस्या बना दिया है।
भारतीय कस्बों और शहरों में घरेलू और कामकाजी- दोनों ही श्रेणी की महिलाएं अब ऐसे कामकाज नहीं कर पाती हैं जिनसे उनके शरीर में जमा चर्बी कम हो सके। उनके घरों में झाड़ू-पोंछा करने वाली महरी आती है, गेहूं का आटा पिसा-पिसाया मिलता है, मसाला पीसने से लेकर चटनी बनाने तक रसोई के ज्यादातर काम अब मिक्सर-ग्राइंडर जैसी मशीनों के हवाले हो चुके हैं। शहरों में तो घरों में एयरकंडीशनरों ने गरमी के मौसम में शरीर के पसीने के जरिए चर्बी पिघलाने की प्राकृतिक व्यवस्था को भी खत्म कर दिया है। ऐसी स्थितियों में महिलाएं एक ऐसी निष्क्रिय जीवनशैली की आदी हो गई हैं जो आखिरकार उनके स्वास्थ्य पर गंभीर असर डालती है। ऐसी जीवनशैली ही मधुमेह, हृदयरोग, उदर विकार जैसे रोग पैदा कर रही है। मुश्किल यह है कि छोटे शहरों-कस्बों में तो कोई इसे स्वीकारने तक को राजी नहीं है। बदलती जीवनशैली असल में हमें जिस व्यस्तता में फंसा रही है, वह एक निष्क्रिय किस्म का जीवन है। टीवी देखना, मोबाइल पर चैटिंग, फेसबुक देखना, कंप्यूटर के सामने बैठकर इंटरनेट से दुनिया जहान की जानकारी लेना-ये सब ऐसी क्रियाएं हैं, जिनमें शारीरिक श्रम न के बराबर है। इससे दिमागी सक्रियता तो बढ़ता है लेकिन शरीर आरामतलब होता जाता है। ब्रिटिश हार्ट फाउंडेशन की एक रिपोर्ट में दावा किया गया है कि वहां की बड़ी आबादी मेहनतकश कामकाज और व्यायाम से कोसों दूर चली गई है, जिसके नतीजे में ब्रिटेन में दिल की बीमारियों का खतरा बढ़ता ही जा रहा है। शहरी कामकाजी महिलाओं को लगता है कि वे जितना व्यस्त रहेंगी, उतना चुस्त-दुरुस्त रहेंगी, पर उनकी यह धारणा गलत साबित हो रही है। घर-रसोई का सारा कामकाज मशीनों और महरी आदि घरेलू सहायकों के जिम्मे छोड़कर कार से दफ्तर जाने वाली महिलाएं दिन भर कंप्यूटर के सामने काम करने के बाद थक कर घर आती हैं तो उन्हें लगता है कि उन्होंने एक व्यस्त जीवनशैली जी है। पर सचाई यह है कि इस तरह वे अपना ज्यादातर समय कुर्सी पर बैठे हुए बिताती हैं।
आधुनिक जीवनशैली से जुड़ी मुश्किल यह है कि यह अपने आप में एक बीमारी है। चिकित्सकों की राय में रेशों से भरपूर भोजन, कम वसीय पदार्थ, कम मीठी और कम कैलोरी वाली चीजें खाने पर तोंद नहीं निकलती। रोजाना तीस मिनट का व्यायाम अतिरिक्त चर्बी को छांट देता है। अगर महिलाएं इन बातों पर ध्यान देंगी और विशेषज्ञ सलाहों पर अमल करेंगी तो वे खुद का ही नहीं, बल्कि अपने परिवार-समाज का भी कुछ भला करेंगी, क्योंकि तब वे कई पीढ़ियों को स्वास्थ्य समस्याओं से छुटकारा दिलाने में मददगार साबित हो सकती हैं। ०
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