चले आ रहे हैं बरसों से, नहीं सदियों से, न जाने कब से, चले आ रहे हैं, सड़कों-बाजारों चौक-चौराहों, मुहल्लों-चौपालों में, तरह-तरह के वेश धर कर, अपनी देह को कभी-कभी पूरी तरह कई रंगों-रूपों में रंग कर, वे चले आ रहे हैं, ‘बहुरूपिए’। पर, अब कम दिखाई पड़ रहे हैं। जो चले आ रहे हैं, वे तो चले आ रहे हैं, पर यह जो उनका कम दिखाई पड़ना है, वह बता रहा है कि अब उनमें से बहुतेरे शायद कहीं और चले गए हैं। कहना कठिन है, कहां चले गए हैं या ओझल हो रहे हैं, पर सच यही है कि वे रोज-रोज शहरों-गांवों में उस तरह नहीं दिखाई पड़ रहे हैं, जैसे पहले दिखाई पड़ते थे, कभी शिव बन कर, कभी शक्ति बन कर, कभी दस सिरों वाला रावण बन कर, कभी किसी पक्षु की शक्ल में भी। हां, पक्षु की शक्ल में।
कुछ बरस पहले देश के जाने-माने फिल्मकार बुद्धदेव दासगुप्ता ने ‘बाघ बहादुर’ (1989) नाम से एक पूरी फीचर फिल्म बनाई थी- इसमें बाघ की शक्ल धारण करने वाले एक बहुरूपिए की मानो जीवन-कथा ही बुनी गई थी। बहुरूपिए के बहुरूपीपन के मर्म में भी उतरे थे बुद्धदेव दाससुप्ता। फिल्म को राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला था। देखी थी मैंने यह फिल्म, और तब मानो ध्यान गया था, एक बार फिर बहुरूपी समाज पर! हां, उनका एक पूरा समाज, समुदाय रहा है, जो पेशेवर ढंग से मानो प्रशिक्षित करता रहा है, अपने ‘समाज’ की नई पीढ़ी को।

इस समाज में बहुरूपियों के भी कई रूप रहे हैं। और भौगोलिक अंचलों के हिसाब से उनमें मित्रताएं भी रही हैं। मसलन, बुद्धदेव दासगुप्ता की फिल्म ‘बाघ बहादुर’ का बहुरूपिया या बहुरूपिया होकर भी ‘एकरूपिया’, बाघ की भूमिका में उतरने वाला, धुनूराम (भूमिका निभाई थी फिल्म में पवन मलहोत्रा ने) नाचता है। साल के ग्यारह महीने वह मेहनत-मजूरी भी करता है, पर एक महीना नोनपुरा गांव में आकर नाच दिखाता है, क्योंकि उसे वहां इज्जत और प्रेम मिलता है। उसका साथी एक बुजुर्ग ढोल वादक भी है, जिसकी अंगुलियां फड़फड़ाती रहती हैं कि कब धुनूराम आए और वह उसके नाच के साथ ढोल बजाए! लड़के-लड़कियां, स्त्री-पुरुष गांव में बाघ बहादुर को घेर लेते रहे हैं और फिल्म में बाघ बहादुर कहता है ढोल बादक से कि जीवन में सबसे बड़ी चीज है इज्जत। वह नोनपुरा आता है, इज्जत पाने के लिए, अपने गुण की सराहना पाने के लिए! पर, परिस्थितियां धीरे-धीरे बदलती जाती हैं!
हां, बहुरूपियों की परिस्थितियां आज बहुत बदल गई हैं। बंगाल में ही जिस तरह बाउल गाते हुए ‘बाउल’ (गायक) दिखा करते थे और बहुरूपिए भी, वहां भी अपने पहले जितने बहुरूपिए नहीं मिलते। (बहुरूपिया बंगाल और गुजरात में ही अधिक प्रचलित भी रहा है।) इज्जत बहुरूपियों को कितनी मिलती रही है, इसका तो पता नहीं, पर, हां उन्हें दर्शक पहले काफी मिला करते थे। ये दर्शक उन्हें देखते हुए कौतूहल और विस्मय से भर उठते थे। कुछ में उनके प्रति जुगुप्सा भी जागती थी, और वे उन्हें मारने के लिए, पत्थर फेंकने के लिए तैयार हो जाते थे। पर भला इसमें क्या शक कि बहुरूपिए लोगों का मनोरंजन किया करते थे। उस जमाने में तो विशेष रूप से, जब न रेडियो था, न टीवी, और मोबाइल की तो दूर-दूर तक खबर नहीं थी। फिल्में भी नहीं थीं। सो, क्या गांव, क्या कस्बे और क्या शहर, उनके दृश्य में प्रकट होते ही मानो एक मजमा भी अपने आप लग जाता था। वे गुजरते थे, तो लोग उन्हें देखते थे, कुछ अचंभे से ही। सब बहुरूपिए नाचते या कोई करतब नहीं दिखाते थे, पर वे जिस तैयारी के साथ शिव का भेष धरते थे, और जिस तैयारी के साथ कुछ विचित्र-सी वेशभूषाओं में भी उतरते थे, वह लोगों को आकर्षित और कभी-कभी तो सम्मोहित भी करती थी।

कलाएं सम्मोहन पैदा करती हैं। और बहुरूपिए को एक कला-रूप मानने में कठिनाई नहीं होनी चाहिए। आखिरकार वेश धरने में, अभिनय करने में, कला के गुण तो अनिवार्य रूप से होते ही हैं। ‘बहुरूपिया’ नाट्य शास्त्र में अभिनय के लिए गिनाए गए वाचिक, आहार्य, सात्विक और आंगिक में से दो-तीन गुण तो पूरे करता ही है, जिसमें आहार्य की भूमिका विशिष्ट है। और उसके अभिनय को सात्विक भले न मानें, पर उसके बिना तो बहुरूपिए की कल्पना भी नहीं की जा सकती। यह तो रोजमर्रा की जिंदगी में भी हमारे यहां एक मुहावरे की तरह किसी के लिए कहा जाता रहा है कि वह आदमी बड़ा बहुरूपिया है। बहुरूपिया है, यानी रंग-रूप दोनों बदल लेता है। तो एक साथ बहुरूपिया, सम्मान और तिरस्कार की तरह रहा है।
‘बहुरूपी’ शब्द के लिए रंगकर्मी और रंगचिंतक शंभू मित्र द्वारा प्रकट किया सम्मान ही तो था कि उन्होंने अपनी सुप्रसिद्ध रंग-संस्था का नामकरण किया था: ‘बहुरूपी’। मुंबई के रंगकर्मी अतुलकुमार ने शेक्सपियर के एक नाटक पर आधारित अपने अत्यंत स्फूर्तिवान नाटक का नाम रखा है ‘पिया बहुरूपिया’। और यह तो हम अनुमान से भी जान सकते हैं कि ‘बहुरूपिया’ बनने की या कहें बहुरूपिया के रूप में ‘सजने’ की प्रक्रिया कितनी कठिन भी होगी। अपनी देह में रंग-रेत का लेप करना, सिर पर किसी भूमिका के लिए चित्र-विचित्र चीजें घारण करना आसान कहां होता होगा। शिव बनना, हनुमान बनना, देवी बनना- और बन कर वैसा ही दिखना कि पात्र से परिचय करने की जरूरत न रह जाए, निश्चय ही लगन और मेहनत की मांग करते हैं। तकनीकी बारीकियों की अपेक्षा तो करते ही हैं।

यह भी उल्लेखनीय हैं कि ‘बहुरूपिया’ बनना पुरुष का ही अधिकार क्षेत्र रहा है। सो, बहुरुपिया पुरूष ही बनता है देवी भी! ‘बहुरूपिया’ दृश्य को तत्काल बदल देता है, क्योंकि वह चाहे खेतों-खलिहानों के बीच हो या भरे बाजारों के बीच, उस पर निगाह अलग से टिकती ही टिकती है। वह खेतों में खड़े ‘डरौने’ की तरह एक जगह खड़ा नहीं रहता- वह चलता है और अपनी चाल से, अपनी गति से, अपनी ऊर्जा से दृश्य में एक स्फूर्ति भी भरता है। वह मानो अभिनेता है, पर साथ ही एक नट और बाजीगर भी।उत्तर से लेकर दक्षिण तक और पूर्व से पश्चिम तक, इस देश के विभिन्न भू-भागों में न जाने कितने लोक कला-रूप प्रचलित रहे हैं : नृत्य, नाटक, गायन- सभी क्षेत्रों में। स्वांग-तमाशा हो, भबई हो, छत्तीसगढ़ी पंडवानी हो, तरह-तरह की लीलाएं हों, मार्शल आर्ट्स हों, या ‘भगत’ (नाटक) की परंपरा हो, राजस्थानी ‘कांवड़’ हो, और भी कथा सुनाने-कहने की ढेरों परंपराएं हैं या कूडियाआट्टम, कथकलि जैसी उच्च धरातलीय परंपराएं हों, उनका कोई शेष नहीं है। आदिवासी और लोक कलाओं की विपुलता से भी समृद्ध हमारा देश, लोक रंजन की न जाने कितनी चीजें सिरजता आया है। कपिला वात्स्यायन की पुस्तक ‘टेÑडिशनल थिएटर’ न जाने कितने रंगकर्मी रूपों से हमारा परिचय कराती रही है।

बहुरूपिया लोकरंजक ही रहा है, पर उसकी कुछ और भूमिकाएं भी रही हैं। कहते हैं, राजाओं-बादशाहों के जमाने में वे खुफियागीरी भी करते थे। जासूसी का यह काम उनसे इसलिए संभव हो पाता था कि उनकी पहुंच हर जगह हो जाती थी। वे शत्रु राज्य की गतिविधियों का पता लगाते थे और गुणी शासक कभी उनसे यह पता करने को कहते थे कि लोग उनके राज में सुखी हैं या नहीं? उनकी क्या शिकायतें है? आदि। जो भी हो, इतना तय है कि खानाबदोशों का-सा जीवन जीने वाले बहुरूपिए ‘कहां से’ आते रहे हैं, ‘कहां’ रहते रहे हैं, ऐसी जिज्ञासा सर्वसाधारण में नहीं जागती रही है। उनका ‘दिख’ जाना ही पर्याप्त हुआ करता था! और वे भला कहां नहीं दिखते रहे हैं? वे दिखते रहे हैं कोलकाता में, मुंबई में, दिल्ली में, भोपाल, में, लखनऊ, पटना आदि आदि में। बहुरूपिया अपने आप में एक लीला है। एकल (सोलो) लीला। वह नाटक है, प्रकृति-नटी के किसी स्थल में, वह नाटक है, भीड़ भरे बाजारों में, मेलों-उत्सवों में, वह नाटक है, दैनंदिन जीवन में। बहुरूपिए ज्ञात होकर भी अज्ञात रहे हैं। स्थानीय स्तरों पर भले कभी किन्हीं को ज्ञात रहता हो कि अमुक बहुरूपिया अच्छे वेश धरता है, पर उनके नाम हमें मालूम नहीं रहते हैं प्राय:। चाहें तो कह लें कि बहुरूपिया होना एक साधना है। यह साधना फलवती होती रही है लोक के समदर्शन से ही- वही उन्हें आटा-चावल, रुपए-पैसे आदि देता रहा है कि वे अपनी जीविका चला सकें।

अब लोक बदल रहा है। बदल रहा है शहरी समाज भी। भला, कैसे प्रवेश कर सकता है अब कोई बहुरूपिया या नट-नर्तक उन बहुमंजिली इमारतों के परिसर में, जहां सिक्यूरिटी गार्ड खड़े हैं, और जहां उन्हें देखने की चाहना रखने वाले भी अब कहां हैं? और किसे फुरसत है आज मोबाइल में बतियाने से। क्या पता बहुरूपिया स्वयं रखने लगा हो मोबाइल और लोगों की नजरों से बाहर वह स्वयं मोबाइल पर कहीं बतिया रहा हो। क्या पता अब बहुरूपिया बहुरुपिया न रह गया हो। न रह जाना चाहता हो। और अपनी भूमिका वह कुछ राजनीति की दुनिया को, कुछ आधुनिक समाज को, सौंप कर, निश्चिंत होकर सो रहा हो! तो अब कम दिखते हैं ‘वास्तविक’ बहुरूपिए। कलाकार बहुरूपिए। सभी तो कम दिखते हैं या अब नहीं दिखते हैं, संपेरे, मदारी, नट-नटनियां, कथा-वाचक, कठपुतली वाले, सान धरने वाले (जयशंकर प्रसाद की कहानी ‘मधुआ’ की याद आती है) स्वांग भरने वाले- सड़क-बाजार-पगडंडी पर अब कम दिखते हैं कम दिखते हैं। फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ के उपन्यासों कहानियों के कई लोक रंजक कलाकार। बहुतेरे अन्य हुनर और कारीगरी के काम भी तो कम हो रहे हैं। बहुतेरे लोक वाद्य भी। सो, पूछने का मन करता है, ‘कहां चले बहुरूपिया?’ १