जीवन वास्तव में है क्या? इस सवाल का जवाब तलाशने में ही दुनिया के सारे दर्शन बने-विकसित हुए हैं। कुछ ने इसे पदार्थ से जोड़ कर पहचानने-परिभाषित करने की कोशिश की, तो कुछ ने इसे अलौकिक शक्ति से संचालित सत्ता के रूप में जाना-पहचाना। पर लगभग सब इस बात पर सहमत हैं कि मनुष्य का जीवन उसके विचारों के अनुसार आकार लेता है। हम जैसा सोचते हैं, वैसा हो जाते हैं। फ्रांसीसी विचारक रेने देकार्त ने तो कहा कि ‘मैं सोचता हूं, इसलिए मैं हूं’।
इस विचार ने पूरे यूरोप में तहलका मचा दिया था। मनुष्य के होने को लेकर अब तक चले आ रहे सिद्धांतों का रुख ही बदल गया। उसके बाद पश्चिम में ‘विचार की शक्ति’ पर गहन चिंतन-मनन शुरू हो गया। जबकि भारतीय चिंतन परंपरा में विचार की शक्ति को बहुत पहले से जीवन में महत्त्वपूर्ण माना जाता था। मगर विचार ही जीवन को आकार देता है, ऐसा भारतीय दर्शन अंतिम सिद्धांत के रूप में प्रतिष्ठापित नहीं करता। हालांकि ‘उच्च विचार’ की महत्ता तो भारतीय चिंतन परंपरा में सदा से महत्त्वपूर्ण रही है।
जीवन की शुरुआत
पर सबसे टेढ़ी बात है कि विचार बनते कैसे हैं। व्यक्ति विचारों को जीना कब और कैसे शुरू करता है। व्यक्ति के जीवन का स्वरूप इस बात पर निर्भर करता है कि वह किस विचार को ग्रहण करता और उसे किस प्रकार जीता है। भारतीय आचार में ‘सादा जीवन उच्च विचार’ का सिद्धांत प्रचलित है। ये ‘सादा’ और ‘उच्च’ दो ऐसे शब्द हैं, जो कठिनाइयां पैदा करते हैं। सादगी या सादापन आखिर है क्या? इसका मानक क्या है? सादगी का अर्थ अगर व्यक्ति ने गरीबी में जीवन गुजारने से लगा लिया, तो विचार की उच्चता प्रश्नांकित होने लगती है। गरीबी में जीवन जीने का विचार आदमी को संपन्न होने से रोकता है। गरीबी कोई उच्च या आदर्श मूल्य तो है नहीं। संपन्नता से ही मनुष्य का जीवन खुशहाल हो सकता है। पर फिर वही विकट सवाल, कि संपन्नता का मानक क्या है? इसका एक मानक तो यह बताया गया कि ‘साईं इतना दीजिए, जामे कुटुम समाय/ मैं भी भूखा ना रहूं, साधु न भूखा जाय’।
मानवतावादी दृष्टि से निस्संदेह यह एक आदर्श विचार है। मगर पदार्थवादियों को इतने भर से संतोष कहां। इस विकासवादी समय में तो बिल्कुल नहीं।
विचारों की शक्ति को जिस तरह पश्चिम ने महिमामंडित किया है, वैसा भारतीय चिंतन परंपरा ने नहीं किया। पश्चिम का सारा जीवन दर्शन पदार्थ पर केंद्रित है। भौतिक उन्नति में ही वह मनुष्य के जीवन की उन्नति देखता है। भारतीय दर्शन का बल आत्मिक उन्नयन पर है। इसके लिए बहुत सारी साधना पद्धतियां बताई गई हैं। इसलिए यह थोड़ा कठिन मार्ग लगता है। पश्चिम का विचार-शक्ति का सिद्धांत बहुत सहज लगता है- जैसा सोचोगे, वैसा ही बन जाओगे। इसलिए कहा गया कि ‘बड़ा बनना है तो बड़ा सोचो’। इसके अनगिनत दृष्टांत दिए जाते हैं। इसे लेकर दुनिया भर में सैकड़ों किताबें लिखी जा चुकी हैं। युवा उनसे बहुत आसानी से प्रभावित हो जाते हैं। ‘बड़ा’ सोचने में कोई धन खर्च तो होता नहीं, इसलिए ‘ऊंचे ख्वाब’ लिए फिरने वाले हमारे आसपास बहुतेरे मिल जाते हैं। युवा ही नहीं, बड़े भी मिल जाते हैं।
पद, पैसा, प्रतिष्ठा
दरअसल, हमारे भीतर विचारों के जड़ें जमाने, पनपने, पल्लवित-पुष्पित और छतनार होने की एक प्रक्रिया होती है। उसमें हमारे परिवार, आस-पड़ोस, समाज, पढ़ाई-लिखाई, संगी-साथी, राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय वातावरण आदि का सहयोग होता है। हमारे समय का सबसे बड़ा विचार है- पैसा, पद और प्रतिष्ठा। इन तीनों का सहसंबंध थोड़ा उलट-पलट हो सकता है। ऐसा नहीं कि यह विचार पहले नहीं था, अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष का सोपान हमारे यहां प्राचीन काल से बना हुआ है। मगर अर्थ की प्रधानता हमारे समय में जिस तरह से बढ़ी है, वह दरअसल, जीवन दर्शन नहीं, बाजार की रणनीति के तहत बढ़ी है। संपन्नता का विचार बाजार ने हमारे भीतर बोया है। इसके पनपने, पल्लवित-पुष्पित होने के लिए लंबे समय से वातावरण बनाया गया। औद्योगिक क्रांति के बाद वैश्वीकरण और आर्थिक उदारीकरण ने बाजार को बलवान बना दिया, जिसने हमें उपभोक्ता के रूप में तराशना शुरू कर दिया। संपन्नता से जीवन में खुशहाली का सिद्धांत उसी का दिया हुआ है।
नैतिकता की जगह
इस सिद्धांत से बाजार को फलने-फूलने में तो खूब मदद मिली है, मगर समाज में ऐसी-ऐसी विकृतियां उभरी और उभर रही हैं कि जिनके बारे में कल्पना भी नहीं की जाती थी। पैसे के प्राबल्य ने नैतिकता को शिखर से खाई में धकेल दिया। जबकि भारतीय ‘जीवन मूल्य’ के बरक्स ‘नैतिकता’ पद पश्चिमी दर्शन का गढ़ा हुआ है। अब यह सिद्धांत रूप में ऐसे कथन अक्सर सुनने को मिल जाते हैं कि ‘पैसे से हर चीज संभव है’, ‘पैसे के बिना जीवन नहीं चलता’ आदि। इसलिए पैसे के लिए हर धतकरम किया जा रहा है। इंटरनेट का तो मतलब ही अब ऐसे व्यापार का मंच हो गया है। इस पर देह का सुख ही वास्तविक सुख साबित कर दिया गया है। इस कारोबार ने समाज में नए तरह के अपराधों को जन्म दिया और हर तरह के अपराधों को बढ़ाया है। अब कौन इस विचार को नहीं जीता, पहचान करना मुश्किल है। युवा मन में इस विचार ने गहरी जड़ें जमा ली है।
हमारे समय की सबसे बड़ी चुनौती यही है कि किस तरह विकृत विचारों की गिरफ्त से लोगों को बाहर निकाला जाए, ताकि समाज कुछ साफ-सुथरा हो सके, कुछ समरस हो सके। तमाम शिक्षण संस्थाएं इस मामले में खुद को विफल ही पा रही हैं। गलत विचार रोप कर जीवन को एक जंग में तब्दील कर दिया गया है। हर कोई दूसरे को पछाड़ कर संपन्न बनने के लिए विचार के घातक हथियार का इस्तेमाल कर रहा है। विचारों का हथियार की तरह इस्तेमाल तो तभी रुक सकेगा, जब हम समझेंगे कि जीवन जंग नहीं, दूसरों के लिए जीने का सलीका है। जैसे ही जीवन में ‘दूसरे’ के लिए जीने का भाव पैदा होता है, उसका स्वरूप स्वत: मानवीय हो जाता है।