देश के ज्यादातर बड़े राज्यों में पिछले साल से ही सूखे-से हालात पैदा हो गए हैं। मौसम विभाग के मुताबिक देश के चौदह राज्यों में सामान्य से 60 से 90 प्रतिशत तक कम वर्षा दर्ज की गई है। सिर्फ कर्नाटक, तटीय आंध्र प्रदेश और तटीय महाराष्ट्र, गोवा में मानसून सामान्य रहा है, जबकि तमिलनाडु, केरल, आंध्र के रायलसीमा इलाके और जम्मू-कश्मीर में सामान्य से बहुत अधिक बारिश दर्ज की गई। लेकिन मुश्किलों का सामना कर रहे किसानों के लिए राहत प्रदान करने वाली खबर यह है कि मौसम विभाग ने उम्मीद जताई है कि दो वर्षों के अंतराल के बाद इस साल मानसून बेहतर रह सकता है, क्योंकि अल नीनो का प्रभाव कम हो रहा है। पिछले साल यह काफी तीव्र था जिस वजह से मानसून प्रभावित हुआ। देश में पिछले दो साल में मानसून के दौरान कम बारिश हुई, जिससे कई हिस्सों में सूखे की स्थिति पैदा हो गई। अल नीनो प्रभाव के कारण 2015 में भी मानसून प्रभावित हुआ। इस वजह से सर्दी भी कम पड़ी और तापमान असामान्य रूप से अधिक रहा।

मौसम में आ रहे बदलाव को लेकर विश्व मौसम संगठन (डब्ल्यूएमओ) की ताजा रिपोर्ट चौंकाने वाली है। साथ ही, यह भावी खतरे की ओर भी संकेत करती है। रिपोर्ट में कहा गया है कि पिछले चार सालों से औसत वैश्विक तापमान बढ़ रहा है, जिसकी वजह ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में बढ़ोतरी होना है। हवा में कार्बन की औसत मात्रा 400 पार्ट प्रति मिलियन तक के खतरनाक स्तर पर पहुंच गई है। यह तय मानकों से 43 फीसद ज्यादा है। रिपोर्ट के अनुसार पहले 2014 को सबसे गरम वर्ष माना गया था, क्योंकि उस दौरान औसत वैश्विक तापमान 0.61 डिग्री सेल्शियस बढ़ा था। लेकिन 2015 में यह बढ़ोतरी कहीं ज्यादा 0.70 डिग्री सेल्शियस दर्ज की गई। इस प्रकार बीता वर्ष सदी का सबसे गरम वर्ष रहा है। यह साल भी इसी राह पर बढ़ता दिख रहा है। दुनिया भर में तापमान बढ़ रहा है लेकिन इससे पृथ्वी पर क्या असर हो रहा है? यह प्रश्न आज भी वैज्ञानिकों के लिए शोध का विषय है। जलवायु परिवर्तन पृथ्वी के लिए कोई नया मसला नही है। पृथ्वी का तापमान पिछले 4.6 अरब सालों में अनगिनत बार बदला है। लेकिन इन बदलावों के बाद भी पृथ्वी का तापमान सामान्य हो जाता रहा है। लेकिन अब ऐसा नहीं हो रहा है। इसका सबसे अहम कारण है ग्रीन हाउस इफेक्ट। ग्रीन हाउस गैस यानी कार्बन डाइऑक्साइड, मीथेन और जलवाष्प मिलकर पृथ्वी के बाहर एक ऊनी कंबल जैसा बनाते हैं। यह कंबल अब गहरा होता जा रहा है।

पृथ्वी पर मनुष्य का अस्तित्व बहुत पुराना नहीं है। लेकिन हमने पृथ्वी के जलवायु को सबसे ज्यादा प्रभावित किया है। जीवाश्म र्इंधन को जलाने और पेड़ पौधों को काटने से हम वायुमंडल में कार्बन डाइ-आॅक्साइड का स्तर बढ़ा रहे हैं, इससे तापमान बढ़ रहा है। 2000 से 2010 के बीच कार्बन उत्सर्जन की दर पिछले दशक की तुलना में चार गुना बढ़ चुकी है। ऐसे में पृथ्वी का क्या होगा? इसे समझने के लिए वैज्ञानिकों ने कंप्यूटर मॉडल के आधार पर पृथ्वी के जलवायु के बारे में अंदाजा लगाना शुरू कर दिया है। इसका आकलन जटिल जरूर है। लेकिन यह सामान्य भौतिक विज्ञान पर आधारित है जो वायु और जल की प्रकृति पर निर्भर करती है। मानव निर्मित बदलावों और प्राकृतिक बदलावों के आधार पर इन मॉडलों ने जलवायु परिवर्तन के कारण का पता लगाना शुरू किया है। इन आकलनों को ‘इंटरगर्वनमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज’ (आईपीसीसी) ने रिपोर्ट के तौर पर 2013-14 में प्रकाशित किया था। इसके मुताबिक अगर अगले 50 सालों तक मौजूदा दर से कार्बन उत्सर्जन बढ़ता रहा तो दुनिया का तापमान कम से कम चार डिग्री सेल्शियस तो अवश्य ही बढ़ जाएगा। इसके मुताबिक 2200 तक ओद्यौगिक दौर शुरू होने से पहले दुनिया का तापमान सात डिग्री सेल्शियस तक बढ़ जाएगा। इसके बाद तापमान स्थिर हो जाएगा। यह तभी होगा जब मनुष्य कार्बन गैसों का उत्सर्जन बंद कर देगा।

करीब 5.5 करोड़ साल पहले पृथ्वी का तापमान तेजी से बढ़ा था। तब ध्रुवीय इलाकों में समुद्र तल का तापमान दस डिग्री सेल्शियस था, जो आज माइनस दो डिग्री सेल्शियस ही है। उस समय ध्रुवीय इलाके में कोई बर्फ नहीं थी। कुछ प्रजातियां तो गरमी की वजह से बच गर्इं, लेकिन कुछ खत्म भी हो गईं। उस दौर की तुलना हम आज कर सकते हैं। अगर आज मौजूद सभी जीवाश्म र्इंधनों को जला दिया जाए तो उतनी ही गरमी पैदा हो सकती है जो उस दौर में थी। इन गैसों की बदौलत कम से कम पांच और अधिक से अधिक आठ डिग्री सेल्शियस तापमान बढ़ सकता है। धरती अपने से गरम नहीं हो रही। इसे हम उबाल रहे हैं। पृथ्वी के गरम होने से ज्यादा ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जित होती है। अगर ऐसा होता रहा तो पृथ्वी का तापमान सैकड़ों डिग्री बढ़ सकता है। गनीमत है कि पृथ्वी के साथ ऐसा कभी नहीं हुआ। अगर ऐसा होता तो यहां जीवन ही नहीं होता। लेकिन शोध से पता चला है कि ऐसा पृथ्वी की बगल वाले ग्रह शुक्र पर तीन से चार अरब साल पहले हो चुका है।

शुक्र ग्रह सूर्य से पृथ्वी की तुलना में ज्यादा नजदीक है। इसलिए यह पहले से ही बहुत गरम रहा होगा। धीरे-धीरे उसकी सतह का तापमान इतना ज्यादा हो गया कि ग्रह का पूरा जल वाष्प बनकर उड़ गया। इसके बाद वहां कार्बन डाइआॅक्साइड नहीं बची। क्योंकि इसको स्टोर करने का कोई तरीका ही नहीं था। इससे ग्रीन हाउस की स्थिति खराब हो गई। जिसके कारण अब ग्रह का तापमान 462 डिग्री सेल्शियस हो चुका है। इस गरमी से शीशा भी पिघल जाएगा। आज शुक्र सबसे गरम ग्रह बन चुका है। यह बुध से भी ज्यादा गरम हो चुका है।

कहीं यही हालात पृथ्वी की भी न हो जाए। ऐसा माना जा रहा है कि पृथ्वी की स्थिति भी अगले कुछ अरब सालों में ऐसी ही होने वाली है। गरमी के कारण कुछ प्रजातियां पहले ही विलुप्त हो चुकी है जो चिंता का कारण है। हमारे सौरमंडल का संभावित नवां ग्रह प्लैनेट एक्स पृथ्वी पर समय-समय पर होने वाली सामूहिक विलुप्ति का कारक हो सकता है। एक नए अध्ययन के बाद अनुसंधानकर्ताओं ने कहा है कि अब तक अज्ञात प्लेनेट एक्स उल्का पिंडों की बौछार का कारक हो सकता है, जो हमारे ग्रह पर करीब 2.7 करोड़ वर्षों के अंतराल पर होने वाली सामूहिक विलुप्ति से जुड़ा है।

हमारे शरीर का तापमान सैंतीस डिग्री सेल्शियस होता है। ग्लोबल तापमान आठ डिग्री सेल्शियस बढ़ने से दुनिया के कुछ हिस्सों में रहना बहुत मुश्किल हो जाएगा। भविष्य में अगर तापमान बारह डिग्री सेल्शियस बढ़ा तो पृथ्वी का आधा हिस्सा रहने लायक ही नहीं रह जाएगा। हालांकि, कुछ लोग एअर कंडीशनर लगाकरजी लेंगे, लेकिन बाकी का क्या होगा? ऐसे लोगों को महीनों तक इन इमारतों के अंदर ही रहना होगा। वैसे ऐसी सूरत न भी हो तो भी मौजूदा हालात के मुताबिक पृथ्वी का तापमान इस शताब्दी के अंत तक चार डिग्री सेल्शियस तक बढ़ सकता है। इससे मानव समुदाय सीधे प्रभावित नहीं भी हो फिर भी जीवन तो सिमट ही जाएगा।