रूपा

यह कहावत प्रचलित है कि दुविधा में दोऊ गए माया मिली न राम। यानी जीवन को लेकर दृष्टि स्पष्ट होनी चाहिए। जाना किधर है, साफ होना चाहिए। जहां यह संशय पैदा हो जाए कि सही रास्ता कौन-सा है, वहीं दुविधा पैदा होती है। हालांकि दुविधा नकारात्मक होते हुए भी पूरी तरह गलत नहीं होती। दुविधा से नए प्रश्न बनते और उनके उत्तर भी मिलते हैं। दुविधा विवेक की कसौटी भी है। विवेकवान व्यक्ति दुविधा के भीतर से नई राह पैदा कर लेता है। दुविधा के क्षण हर किसी के जीवन में आते हैं, बार-बार आते हैं।

हर किसी को अपने विवेक से उस दुविधा के बाहर निकलना पड़ता है। दुविधा वहीं पैदा होती है, जहां दो या उससे अधिक विकल्प सामने उपस्थित हो जाते हैं और उनमें से किसी एक को चुनना होता है। मगर इसका अर्थ यह कतई नहीं कि उसमें केवल एक विकल्प सही होता है। सारे विकल्प सही हो सकते हैं। उनमें से किसी एक का चुनाव आपको अपनी प्रकृति, अपने स्वभाव, अपने लाभ-हानि को ध्यान में रख कर करना होता है। मगर हम मार वहीं खाते हैं, जब इन बातों का ध्यान रखे बगैर किसी लोभ या लाभ को ऊपर रख कर विकल्प तय करते हैं।

अंग्रेजी की एक कहावत है, ‘फर्स्ट डिजर्ब देन डिजायर’ यानी जो तुम्हें चाहिए उसके लिए पहले योग्यता हासिल करो, फिर उसकी इच्छा मन में पालो। मगर आजकल यह कहावत उलटी हो गई लगती है। पहले इच्छा करो फिर योग्यता के बारे में सोचो। कुछ तो यहां तक इस कहावत को बदल चुके हैं कि इच्छा रखो, योग्यता की परवाह कतई मत करो। कहावतों, सिद्धांतों का प्रतिपक्ष सदा रचा जाता रहा है, रचा भी जाना चाहिए। इसलिए कि जीवन में कुछ भी अंतिम रूप से सही नहीं होता। सच और सही की तलाश निरंतर बनी रहती है। इच्छा और काबिलियत का अन्योनाश्रित संबंध होता भी नहीं।

आधुनिक प्रबंधन शास्त्र तो कहता है कि अपनी इच्छाओं को ऊंची रखो, छोटी इच्छाओं से बड़ी चीजें कभी हासिल नहीं होतीं। विज्ञान भी साबित कर चुका है कि जैसा हम लक्ष्य तय करते हैं, जैसी हम इच्छा पालते हैं, उसी के अनुसार हमारे दिमाग और शारीरिक तंत्र में रासायनिक परिवर्तन होने शुरू हो जाते हैं। शोध तो इस बात को लेकर भी हो चुके हैं कि जब व्यक्ति किसी बड़े पद पर पहुंच जाता है, तो उसके भीतर बहुत तेजी से रासायनिक परिवर्तन होते हैं और उसका कार्य-व्यवहार उस पद के अनुसार बदल जाता है। उसके काम करने का तरीका, उसका आचरण तक उस पद के मुताबिक हो जाता है।

इस तरह कई लोग जब विकल्प के चुनाव में दुविधाग्रस्त होते हैं, तो सबसे अधिक लाभकारी विकल्प को चुनते हैं। हमारे समय में हर कोई लाभ के पीछे भाग रहा है, इसलिए इस भेड़चाल में ऐसा करना कोई चकित करने वाली बात नहीं। मगर उनमें से बहुत सारे लोग विफल देखे जाते हैं। क्यों? इसलिए कि वे अपने स्वभाव, अपनी प्रकृति को नजरअंदाज करते हुए विकल्प का चुनाव करते हैं। इसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है। नौकरी हर किसी को चाहिए और बेहतर नौकरी चाहिए, जिससे व्यक्ति खुद भी सुखमय जीवन जी सके और परिवार को भी खुशहाल जिंदगी दे सके। मगर दुविधा वहां भी पैदा होती है कि कौन-सी नौकरी चुननी चाहिए।

किस नौकरी के लिए परिश्रम करना चाहिए। पर जब भी नौकरी का विकल्प चुनने की बात आती है, तो अक्सर लोग लाभ वाले पदों को चुनना पसंद करते हैं। चाहे वे उनकी योग्यता से कमतर भी क्यों न हों। सारी कठिन प्रतियोगिताएं लाभ वाले पदों के लिए ही आयोजित करनी पड़ती हैं। बहुत सारे लोग इन प्रतियोगिताओं में सफल भी होते हैं। पर सवाल फिर वही उठता है कि क्या वे अपने काम से संतुष्ट रहते हैं। क्या वे अपने काम के साथ न्याय कर पाते हैं?

अपनी नौकरियों में बहुत सारे लोग इसलिए असंतुष्ट हैं कि उन्होंने अपने स्वभाव, अपनी प्रकृति को ध्यान में रख कर उनका चुनाव नहीं किया होता है। लाभ के लोभ में चुनाव किया होता है। बहुत सारे युवा इसलिए पुलिस में भर्ती हो जाते हैं कि वहां उन्हें अतिरिक्त कमाई का जरिया नजर आता है। हमारे देश के हजारों युवा इसलिए फौज में भर्ती हो जाते हैं कि उन्हें और कोई नौकरी नहीं मिल पाती। बस, पैसा कमाने के लिए नौकरी कर लेते हैं। मगर उनकी प्रकृति उन नौकरियों से मेल नहीं खाती।

मसलन, कोई युवा अध्यापक बनना चाहता था, उसका स्वभाव भी उससे मेल खाता था। वह शिक्षक के पेशे में रह कर पढ़ना-लिखना चाहता था, कविताएं लिखना चाहता था, उपन्यास-कहानी लिखना चाहता था, मगर घर-परिवार का नौकरी के लिए जोर इतना था कि उसने फौज की नौकरी कर ली। वह वहां जाकर स्वाभाविक रूप से असहज महसूस करेगा। आजकल सेना में खुदकुशी और अपने अधिकारियों-साथियों पर गोली चला देने की घटनाएं इसलिए भी बढ़ रही हैं कि उनमें बहुत सारे युवा केवल नौकरी करने के भाव से मजबूरी में भर्ती हो गए हैं। वास्तव में वे करना कुछ और चाहते थे।

यह स्थिति केवल नौकरी के विकल्प को लेकर नहीं है। व्यवसाय में भी लोग दुविधाग्रस्त होकर गलत विकल्प का चुनाव कर लेते और फिर विफल होते हैं। हर व्यक्ति हर काम नहीं कर सकता। व्यक्ति अपनी मूल प्रकृति और स्वभाव के अनुरूप काम का चुनाव करे, तभी वह उसे बेहतर कर पाता है। अपनी प्रकृति को पहचानना जरूरी है। ऐसा भी नहीं कि प्रकृति तक सीमित होने से विकल्प कम हो जाते हैं।

विकल्प वहां भी कई होते हैं, उन विकल्पों में से चुनाव थोड़ा गड़बड़ हो भी जाए तो वैसा असंतोष नहीं होता, जैसा विसंगत विकल्प चुनने से होता है। लोग रिश्तों के चुनाव में भी यही गड़बड़ियां करते हैं, जिसके चलते समाज में झगड़े, विवाद, कटुता लगातार बढ़ रही है। इस तरह गलत विकल्प का चुनाव कर लेने के बाद तो जीवन में दुविधाएं और बढ़ जाती हैं। वे बनी ही रहती हैं। लोग कभी इधर तो कभी उधर डोलते रहते हैं।