भारतीय सिनेमा जगत में बड़े अभिनेताओं और अभिनेत्रियों का जादू टूट रहा है। इसकी गवाह हैं हाल में रिलीज हुई कुछ बड़े बजट की फिल्में। इसके उलट, गुमनाम अभिनेताओं और छोटी बजट की फिल्मों ने कहीं ज्यादा कमाल किया है। क्या सिनेमा की सफलता का सूत्र बदल रहा है? पड़ताल कर रहें हैं श्रीशचंद्र मिश्र।
इ स साल के पहले छह महीने में बॉक्स आफिस पर फिल्मों का जिस तरह का हश्र हुआ है, उससे एक बात सो साफ हो गई है कि फिल्मों का कारोबारी गणित तेजी से बदल रहा है। इससे फिल्म बाजार की नब्ज समझने का दावा करने वाले दिग्गज भौंचक हैं। वे बूझ नहीं पा रहे हैं कि दस साल पहले सफलता का जो फार्मूला उन्होंने सेट किया था, वह बिखर क्यों रहा है? इस फार्मूले का ही जलवा था कि फिल्म का पिटना भी निर्माताओं को खलता नहीं था। टिकट खिड़की धोखा दे जाए तो कमाई के अन्य स्रोत उपलब्ध थे। फिल्म बनाने में जोखिम घटता देख लगभग हर सितारे ने निर्माता की तख्ती गले में लटका ली थी। फिल्म बनाने में सौ करोड़ या ज्यादा तक लगा देना मामूली बात हो गई थी। भरोसा था कि लागत तो आसानी से निकल ही आएगी, भारी भरकम मुनाफा मिलेगा सो अलग। पहले किसी बड़े सितारे की फिल्म आती थी तो कयासबाजी इस बात पर लग जाती थी कि वह पांच सौ करोड़ रुपए कमाएगी या सात सौ करोड़।
आज हालत यह हो गई है कि 2016 की पहली छमाही में किसी फिल्म का सौ करोड़ रुपए कमाना भी मुश्किल हो गया है। अगली छमाही में तस्वीर बदल जाए तो बात अलग है। लेकिन फिलहाल जो आसार दिख रहे हैं और फिल्मों के हिट या फ्लाप होने के जो कारण सामने आ रहे हैं उससे ज्यादा उम्मीद नहीं बंधती। वजहें कई हैं और यह हाल फिलहाल की देन नहीं है। संकेत पिछले कुछ समय से मिलने शुरू हो गए थे लेकिन उन्हें अनदेखा कर दिया गया। अब खतरा सामने है।
इस साल हालांकि ‘नीरजा’ ने 75 करोड़ 61 लाख रुपए ‘कपूर एंड संस’ ने 73 करोड़ रुपए और ‘की एंड का’ ने करीब पचास करोड़ रुपए का कारोबार कर किसी तरह अपनी लागत निकाल ली लेकिन अच्छे मुनाफे का झुनझुना सिर्फ अक्षय कुमार की दो फिल्मों ‘एयर लिफ्ट’ व ‘हाउसफुल-3’ के ही हाथ लग सका। अपवाद के रूप में ‘हाउसफुल-3’ को छोड़ दें तो बाकी चार फिल्में अपने अलग विषय की वजह से पसंद की गर्इं। यह इस बात का साफ इशारा है कि लोग अब बड़े सितारों या बड़े बजट की मसाला फिल्मों से सम्मोहित नहीं हो रहे। इसका प्रमाण शाहरुख खान की ‘फैन’ की नाकामी है। ज्यादा समय नहीं हुआ जब शाहरुख खान की फिल्म पहले तीन दिन में सौ करोड़, पहले हफ्तों में डेढ़ सौ करोड़ और कुल मिला कर दो से तीन सौ करोड़ रुपए आसानी से जुटा लेती थी। दावा किया गया था कि ‘फैन’ कमाई के मामले में सलमान खान की ‘बजरंगी भाईजान’ और आमिर खान की ‘पीके’ को पछाड़ देगी। ‘फैन’ एक हफ्ते में 70 करोड़ रुपए ही कमा सकी। यह एक सुपर स्टार की हार थी लेकिन इसे दर्शकों की जीत के रूप में देखा जाना चाहिए जो अब फिल्म में नया विषय चाहने लगे हैं। विषय के प्रस्तुतीकरण में भी उन्होंने ईमानदारी की चाह रखनी शुरू कर दी। तभी तो सत्य घटना या बायोपिक के नाम पर कुछ भी परोस दिए जाने की कोशिश को ‘सरबजीत’, ‘अजहर’ व ‘वीरप्पन’ उन्होंने ठुकरा दिया। नए विषय और उसके अनूठे प्रस्तुतीकरण की ही वजह से ‘फैन’ के मुकाबले दर्शकों ने एनीमेटिड फिल्म ‘जंगलबुक’ को ज्यादा सराहा।
पिछले एक साल में नया ट्रेंड यह भी आया कि फिल्में तात्कालिक सफलता का मोहताज नहीं रह गई हैं। हर मोर्चे पर धुआंधार प्रचार कर हजारों प्रिंट के साथ हफ्ते-दो हफ्ते में दो सौ-तीन सौ करोड़ रुपए कूट लेने का चलन खत्म हो रहा है। मल्टीप्लैक्स का दौर आने के बाद मान लिया गया था कि कोई भी फिल्म दो-तीन हफ्ते से ज्यादा नहीं चल सकती। यह धारणा टूट रही है। पहले की तरह फिल्म के 25 या 50 हफ्ते चलने का दौर तो नहीं लौटा है लेकिन ‘बाहुबली’ सोलह हफ्ते चली और उसने 110 करोड़ रुपए से ज्यादा कमाए।
अब यह जरूरी नहीं रह गया कि कोई फिल्म पहले हफ्ते में ढीली रहे तो उसे फ्लाप मान लिया जाए। फिल्म के लिए अब ढिंढोरा पीटने की जरूरत नहीं है। फिल्म अगर अच्छी होगी तो उसे दर्शक मिलेंगे और मल्टीप्लैक्स वाले भी उसे चलाए रखने में रुचि लेंगे। इसके कई उदाहरण सामने आए हैं। बड़े सितारों की फिल्में शुरुआत में तो धमाल मचा देती हैं लेकिन उतनी तेजी से उनकी हवा भी निकल जाती है। अक्षय कुमार की ‘एयर लिफ्ट’ ने पहले तीन दिन में 44 करोड़ 30 लाख रुपए और ‘हाउसफुल-3’ ने 53 करोड़ 31 लाख रुपए की कमाई की, लेकिन दूसरा हफ्ता आते-आते ये फिल्में कमजोर पड़ गर्इं। सलमान खान की ‘प्रेम रतना धन पायो’ और शाहरुख खान की ‘दिलवाले’ पहले हफ्ते के बाद ढीली पड़ गई। ‘फैन’ ने पहले तीन दिन में 52 करोड़ 35 लाख कमाए लेकिन पहले हफ्ते के बाकी चार दिन में वह 17 करोड़ रुपए ही जुटा सकी और दूसरे हफ्ते में तो उसके हिस्से में सात करोड़ रुपए ही आए।
बड़े सितारों की महंगी फिल्मों के मुकाबले कम बजट की अपेक्षाकृत नए कलाकारों को लेकर बनाई गई फिल्मों ने ज्यादा लंबी और ज्यादा सफल उम्र पाई। ‘दम लगा के हइशा’ पहले हफ्ते में आठ करोड़ 80 लाख रुपए ही जुटा सकी। लेकिन मौखिक प्रचार से फिल्म को बल मिला। वह दस हफ्ते चली और 28 करोड़ 61 लाख रुपए कमा गई। ‘नीरजा’ 11 हफ्ते और ‘एबीसीडी-2’ दस हफ्ते चली। ‘तनु वेड्स मनु रिटर्न्स’ को पहले हफ्ते के बाद औसत फिल्म मान लिया गया था। लेकिन यह 11 हफ्ते चली और उसने डेढ़ सौ करोड़ रुपए से ज्यादा का कारोबार किया।
सौ-डेढ़ सौ करोड़ रुपए में बनने वाली हर फिल्म सुपरहिट हो जाए, यह ट्रेंड पहले भी हमेशा नहीं चलता था और अब तो इसके आसार सिकुड़ते जा रहे हैं। फिर निर्माता जोखिम उठाने से बाज नहीं आ रहे हैं। यह संकट खड़ा हुआ है स्टार सिस्टम के आगे शीश नवाने से। सफल सितारों को मुंह मांगे मेहनताने पर साइन करने की होड़ बढ़ती जा रही है। लेकिन उससे जुड़े खतरों की तरफ कोई गौर नहीं करना चाहता। आज सलमान खान सुपर स्टार हैं। ‘सुल्तान’ के लिए कहा जाता है कि उन्हें सौ करोड़ रुपए दिए जा रहे हैं। इससे पहले ‘एक था टाइगर’ के लिए उन्हें 28 करोड़ रुपए मिले थे। कुछ साल पहले ‘जॉली एलएलबी’ जितनी लागत से बनी थी, उससे दोगुने से ज्यादा पैसा उसके सीक्वेल के लिए अक्षय कुमार को दिया जा रहा है। वजह साफ है। अक्षय के नाम पर आज फिल्में हिट जो हो रही हंै। ‘जॉली एलएलबी-2’ का कुल बजट 62 करोड़ रुपए है। लगातार शूटिंग करके फिल्म को पचास दिन में पूरा करने की योजना है। अक्षय कुमार का काम 42 दिन का है। हर दिन के लिए उन्हें एक करोड़ रुपए मिलेंगे। यहीं तक गनीमत नहीं है। सुना है ‘रोबोट’ के सीक्वेल ‘2-0’ में खलनायक की भूमिका निभाने के लिए उन्हें 80 करोड़ रुपए दिए जाने की खबर है। ‘रोबोट’ के लिए करीब दस साल पहले रजनीकांत को 35 करोड़ रुपए मिले थे जो एशिया में एक फिल्म के लिए किसी कलाकार को मिलने वाला सबसे ज्यादा मेहनताना बताया गया था। हालांकि अब जैकी चैन आगे निकल गए हैं। फिर भी ‘2-0’ से पहले तक रजनीकांत एक फिल्म का 80 से 85 करोड़ रुपए लेने लगे थे। नई फिल्म के लिए तो उन्हें डेढ़ सौ करोड़ रुपए मिल रहे हैं। इसमें थोड़ा कम ज्यादा फिल्म के मुनाफे से तय होगा।
मुंबइया सितारे भी ज्यादा पीछे नहीं हैं। फिल्म के लिए एक मुश्त फीस मांगने से ज्यादा फायदेमंद उन्हें मुनाफे में हिस्सेदारी तय करना लगने लगा है। हर स्टार फिल्म या तो खुद बनाने लगा है या अपनी पूंजी लगाए बिना निर्माण में हिस्सेदारी निभाने लगा है। उन्हें लगता है कि उनके नाम पर फिल्म चलेगी ही। ‘सुल्तान’ के लिए सलमान को सौ करोड़ रुपए मिलने का गणित यह है कि उन्हें मुनाफे का एक तिहाई हिस्सा मिलने का अनुबंध हुआ है। अनुमान है कि फिल्म तीन सौ करोड़ रुपए तो कमा ही लेगी। 2015 में ‘बाहुबली’ ने थोड़ा झटका दिया। अब ‘सुल्तान’ के सामने दोहरी चुनौती है। रजनीकांत की हिंदी में डब की गई ‘कबाली’ मुकाबले में आ गई है तो गुरिल्लाओं के बीच पले बढ़े हॉलीवुड के टारजन भी टक्कर में है। ‘जंगल बुक’ ने शाहरुख खान की ‘फैन’ को किस कदर डुबोया था, यह भूलने वाली बात नहीं है। स्टारों पर आश्रित रह कर महंगी फिल्म बनाने की मजबूरी से निकल कर फिल्मकार अगर नए व अच्छे विषय पर ध्यान केंद्रित नहीं करेंगे तो कारोबार का गणित तो गड़बड़ाएगा ही। रास्ता मराठी फिल्मों ने दिखा ही दिया है। चार करोड़ रुपए में बनी ‘सैराट’ ने 40 करोड़ रुपए वाली ‘बागी’ से ज्यादा कारोबार करके बता दिया है कि अब विषय ही चलेगा। हिंदी में भी लीक से हट कर बनने वाली फिल्मों की सफलता ने बार-बार इसकी पुष्टि की है।
हॉलीवुड की फिल्मों का ग्लैमर हमेशा से अपने यहां छाता रहा है लेकिन पिछले कुछ सालों में वहां की फिल्मों ने हिंदी फिल्मों के कारोबार में गहरी सेंध लगानी शुरू कर दी है। इस साल तो यह धमक कुछ ज्यादा ही तेज हो गई है। साल की पहली छमाही में सबसे ज्यादा कारोबार करने वाली फिल्म हिंदी की नहीं बल्कि हॉलीवुड की ‘जंगल बुक’ है। 2010 में आमिर खान की फिल्म ‘थ्री इडियट्स’ ने बॉक्स आफिस पर ढाई सौ करोड़ रुपए जुटाए थे। ‘जंगल बुक’ छह हफ्ते में दो सौ करोड़ रुपए के पास पहुंच गई। यह तुक्के में मिली सफलता नहीं है। इससे पहले ‘फास्ट एंड फ्यूरियस’ भी सौ करोड़ रुपए से ज्यादा का कारोबार कर चुकी थी। पिछले साल हिंदी में डब हुई ‘बाहुबली’ पहली दक्षिण भारतीय फिल्म थी जिसने टिकट खिड़की पर सौ करोड़ रुपए से ज्यादा इकट्ठे किए। हॉलीवुड की तो हर तीसरी फिल्म पिछले सात आठ साल से यह आंकड़ा पार कर रही है।
ए क समय था जब ‘गोन विद द विंड’, ‘माय फेयर लेडी’, ‘टेन कमांडमेंट्स’ जैसी क्लासिक, ‘ब्लो हॉट ब्लो कोल्ड’, ‘द ब्ल्यू लैगून’ जैसी उत्तेजक या जेम्स बांड की एक्शन फिल्मों को ही भारत में अच्छा बाजार नसीब हो पाता था। स्टीवन स्पीलबर्ग की ‘जुरासिक पार्क’ से अंग्रेजी फिल्म को हिंदी व तमिल, तेलुगू, बांग्ला जैसी क्षेत्रीय भाषा में डब करके रिलीज करने का प्रयोग हुआ। हॉलीवुड की फिल्मों को एक नया फार्मूला मिल गया। ‘अवतार’ व ‘टाइटैनिक’ के बाद से कोई साल ऐसा नहीं गया जब हॉलीवुड की कम से कम आधा दर्जन फिल्मों ने हिंदी फिल्मों की कमाई में कतरब्योंत न की हो। 2015 में तो हॉलीवुड की फिल्मों का भारत में राजस्व 92 फीसद बढ़ गया जबकि हिंदी फिल्मों की कुल कमाई पांच साल में पहली बार घट गई। 2014 में हॉलीवुड की फिल्मों ने 227 करोड़ 62 लाख रुपए कमाए। 2015 में यह आंकड़ा बढ़ कर 437 करोड़ 79 लाख रुपए का हो गया। इस साल ‘द एंग्री बर्ड्स मूवी’, ‘एक्स मैन’, ‘कैप्टन अमेरिका: सिविल वार’, ‘द कॉन्ज्यूरिंग’, ‘इंडिपेडेंस डे’ जैसी फिल्मों ने हिंदी फिल्मों को बराबर की टक्कर दी है। यह हिंदी फिल्मों के सामने नई चुनौती है। जाहिर है इससे पार पाने के लिए फिल्मकारों को कुछ नया और अलग सोचना पड़ेगा। १