देश में सौ स्मार्ट शहर चिह्नित किए गए हैं और मैं उनमें से किसी एक में मुकम्मल सह-सांस्कृतिक यानी कॉस्मोपोलिटन शहर ढंूढ़ रहा हूं!
‘दिल्ली जो एक शहर था’ देखा। नई दिल्ली देखी। लटयन्स की दिल्ली देखी। कोलकाता देखा। मुंबई देखी। नवीं मुंबई देखी। बृहन्मुंबई देखी। पुणे, नागपुर, चेन्नई देखी। बंगलुरू, हैदराबाद देखा। जयपुर देखा। लखनऊ, आगरा, कानुपर, भोपाल, पटना देखा, और भी देखे, लेकिन एक भी कॉस्मोपोलिटन कहने लायक न मिला!
क्यों मिलता?
हमारे सभी शहर न पूरी तरह स्थानीय रह गए हैं, न पूरी तरह ग्लोबल हो सके हैं। वे न पूरी तरह प्राचीन रह गए हैं, न कॉस्मोपोलिटन हो सके हैं।
जब दुनिया ‘ग्लोबल गांव’ बनी, तो दुनिया के बड़े नगर कॉस्मोपोलिटन कहलाने लगे। ऐसे नगर अमेरिका, यूरोप में ही ज्यादा नजर आए! एशिया तो ग्लोबलाइजेशन से दुश्मनी करते-करते निपट गया और अपने में अधिक सिकुड़ गया। उसके शहर भी सिकुड़ गए।लास एंजेल्स, न्यूयार्क, वाशिंगटन, लंदन, ब्रसेल्स, मानचेस्टर, बर्लिन, बॉन, फ्रैंकफुर्त, ज्यूरिख, जेनेवा, म्यूनिख, पेरिस, टोकियो सभी कॉस्मोपोलिटन शहर कहलाते हैं। इनकी तुलना में अपने शहर ‘आधे तीतर आधे बटेर’ लगते हैं।
दिल्ली के कनाट प्लेस, जनपथ, साकेत, वंसत कुंज, गुड़गाव के मॉल जैसी जगहों में हर शाम एक अमेरिका जगर-मगर करता मिलेगा, लेकिन रात हुई नहीं कि नशे में धुत हुए नहीं, चाकू निकले नहीं। हर बाशिंदा अमेरिकी जैसा दिख कर भी सामंती मिजाज का मालिक है।
मुंबई का जुहू बीच, उससे सटे इलाके, रेसकोर्स, बॉलीवुड, सितारों के रिहाइशी इलाके, एकदम कॉस्मोपालिटन दिखते हैं, लेकिन दो कदम आगे बढ़ते ही सड़क का गढ्ढा आपको तीसरी दुनिया में पटक देता है और तरह-तरह के ‘सैनिक’, ‘लिंच मॉब्स’ आपको बता देती हैं कि यह शहर अब भी उन्मदी भीड़ का है, लता मंगेशकर, अमिताभ बच्चन, जावेद अख्तर, सचिन तेंदुलकर या शोभा डे का नहीं।
कॉस्मोपोलिटन होना ‘उदारमना’ होना है। सहनशील होना है। बाहर से आए को जगह देना है। अपने अहंकार, अपने सांस्कृतिक अहंकार को उदात्त बनाना है और एक बहुसांस्कृतिक, बहुभाषिक समाज के लिए जगह बनाना है।
कॉस्मोपोलिटन एक स्वभाव है, एक आदत है, एक संस्कृति है, जो सबको बराबर समझती है, जो सबके मानवाधिकारों का सम्मान करती है, जो लिंग, धर्म, जाति, नस्ल, भाषा भेद को जगह नहीं देती।
आप दुनिया के किसी कॉस्मोपोलिटन श्रेणी के शहर में चले जाएं, आपको परस्पर सहयोगिता-सहकारिता की एक तहजीब दिखेगी। सार्वजनिक स्थानों पर सांस्कृतिक बहुलता नजर आएगी। ट्रैफिक जाम नहीं होंगे। होंगे तो रोडरेज न होंगे। गाड़ियों के हॉर्न नहीं चिंघाड़ेंगे। अगर सामने कोई वरिष्ठ नागरिक, विकलांग या बालक है तो कार वाले पहले उसको निकलने देंगे, फिर आगे बढ़ेंगे। बड़ी-बड़ी गाड़ियां होंगी, लेकिन उनमें जोर-जोर से गाने-बजाने वाले व्हूपर्स नहीं लगे होंगे! बड़ी कार होगी, लेकिन दिखाऊ शो पीस न होगी। उनके पीछे किसी देवता की स्तुति नहीं लिखी होगी।
क्या है सह-सांस्कृतिकता
कॉस्मोपोलिटन ग्रीक भाषा के ‘कॉस्मोपोलिटिक’ से बना है, जिसका मतलब है ऐसी जगह, जो दुनिया के लोगों का घर हो, जिसमें अलग-अलग तरह के लोग, देश, प्रदेश, धर्म, जाति, लिंग भेद से मुक्त होकर ‘दुनिया के नागरिक’ (सिटीजन आॅफ द वर्ल्ड) बनते हैं। कॉस्मोपोलिटन शहर में रहने वाले ‘सिटीजन आॅफ द वर्ल्ड’ कहलाते हैं।
ऐसे शहर शरणार्थियों (माइगे्रंट्स) और बहिरागतों के लिए हमेशा तैयार रहते हैं, बल्कि कई कॉस्मोपोलिटन तो बहिरागतों से ही बने हैं। अमेरिका पूरा का पूरा बहिरागतों से बना है। आस्ट्रेलिया भी ऐसा ही है और उसके शहर सिडनी, मेलबर्न भी ऐसे ही कॉस्मोपोलिटन हैं।
‘वसुधैव कुटंबकम्’ कहने वाला भारतीय समाज तो न जाने कब से कॉस्मोपिालिटन स्वभाव का रहा है। दुनिया भर के सताए हुए, दंडित किए हुए या निकाले हुए, अतिचारित, अनेक धर्मों और नस्लों के लोगों के लिए भारत ही एक शरणस्थली रहा है। यहूदी, ईसाई, पारसी, बहाई, अफगानों, चीनियों सबको यहीं ठौर मिला है। ये इतिहास की बातें हैं।
कुछ विशेषताएं सब कॉस्मोपोलिटन शहरों में समान रूप से पाई जाती हैं। एक उदार सहनशील जीवन-शैली, सबको बराबर मानने वाला, सबका सम्मान करने वाला, सबको नागरिक स्पेस देने वाला नागरिक-नजरिया कॉस्मोपोलिटन शहर के नागरिकों के आम व्यवहार के अंग होते हैं। धार्मिक कट्टरताएं, अपनी-अपनी अस्मिता की श्रेष्ठता के आग्रह और हर ‘दूसरे’ के प्रति घृणा और सिकुड़ कर अपने ‘घेरे’ (घेटो) में रहने की मानसिकता यहां नहीं चलती। ऐसे शहरों में रहने वाला अपने आप को विश्व नागरिक की तरह देखता है। उसी तरह व्यवहार करता है। वह उदार, सहनशील और दूसरे को जगह देने वाला होता है।
दिल्ली किसके दिल में है
भारत के सबसे बड़े और कॉस्मोपालिटन के दावेदार शहर दिल्ली में आदमी से ज्यादा गाड़ियां हैं। गाड़ियों से ज्यादा उनका दिखावा है और उससे सवाया उनका धुआं है, उससे ज्यादा ट्रैफिक जाम है, उसके ऊपर रोडरेज है, सड़कों के बीचोंबीच गऊ माताएं बैठी हैं या कुत्ते दौड़ रहे हैं, उनको बचाने में दुर्घटना है। हर सड़क के पास कूड़े के ढेर हैं। बारिश आती है, तो यह शहर सड़ने लगता है।
इस नजर से दिल्ली ऊपर कॉस्मोपोलिटन मेकअप किया लगता है, लेकिन अंदर से सामंती, कस्बाई मिजाज का नजर आता है। यह कंक्रीट से बना एक बेडौल जंगल है, जहां सार्वजनिक जगहों में जंगल का न्याय चलता है। पार्क में मंदिर या स्कूल वालों का कब्जा है। हर आदमी अपने मकान का नक्शा तोड़ता सरकारी या दूसरे की जगह पर कब्जा करता, अपनी कार दूसरे के घर के आगे खड़ी करता, अपना कूड़ा दूसरे के दरवाजे पर फेंकता और ट्रैफिक नियमों को तोड़ता, शोर करता, लड़ता-झगड़ता नजर आता है। हालांकि यह सबसे लंबी और सघन मेट्रो लाइनों का शहर भी है। आप मेट्रो में घुसते हैं तो कुछ समय के लिए कॉस्मोपोलिटन हो जाते हैं, लेकिन जैसे ही बाहर निकलते हैं, आप अपने ‘प्री-मेट्रो’ वाले मिजाज में आ जाते हैं।
दिल्ली में कई दिल्ली
दिल्ली शहरों का शहर है। दिल्ली में दस तरह की दिल्लियां हैं। एक पुरानी दिल्ली है, दूसरी लटयन्स दिल्ली है, तीसरी दिल्ली डीडीए की रोहिणी, द्वारका, जनकपुरी किस्म की बड़ी-बड़ी कॉलोनियों की है। फिर कोआपरेटिव सोसाइटीज के इलाके हैं, एक ओर गुड़गांव है, दूसरी ओर नोएडा और तीसरी ओर गाजियाबाद। दिल्ली एनसीआर इतना बड़ा है कि यूरोप के कई देश समा जाएं!
यह दिल्ली सबकी है। हर रोज दो लाख आदमी उसकी ड्योढ़ी पर उतरते हैं। कुछ यहां बसने आते हैं, बाकी वापस हो जाते हैं। यही उसका कॉस्मोपालिटन मिजाज है कि वह सबकी है, लेकिन उसका यही दुर्भाग्य भी नहीं है। दिल्ली का कोई नहीं है, फिर भी वह देश भर के लोगों का अपना शहर है। दिल्ली ‘प्रवासियों’ का शहर है। यह उसे एक हद तक ही कॉस्मोपोलिटन बनाता है।
दिल्ली में कहीं बिहार जमा है, तो उसमें भी कहीं मिथिलांचल है, तो कही भोजुपरी अंचल है। कहीं बंगाली हैं, तो कहीं बांग्लादेशी हंै। कहीं पहाड़ जमा है, तो उसमें गढ़वाली, कुमाऊनी अलग-अगल जमा हैं। कहीं पूर्वी उत्तर प्रदेश के भैये जमे हैं, तो कहीं पश्चिमी उत्तर प्रदेश के खड़ी बोली वाले। कहीं मध्यप्रदेश के बुंदेलखंडी जमे हैं, तो कहीं मालवा वाले। दिल्ली में तमिल, तेलुगू, कन्नड़, मलयाली, सिंधी, बंगाली से लेकर असमी पूर्वाेत्तरी भी रहते हैं। दिल्ली में म्यांमी, अफगानी, तिब्बती शरणार्थी भी हैं और नेपाली तो अपने राज्य की मांग कर रहे हैं। यहां अफ्रीकी, लातीनी और बाल्टिस्तानी भी मिल सकते हैं।
दिल्ली एक अर्थ में ‘मिनी इंडिया’ है, जहां सभी प्रदेशों के लोग रहते हैं, लेकिन इनसे पूछो तो वे यही कहते हैं कि हम यूपीवाले हैं, बिहारी हैं, हम पहाड़ी हैं, हम तमिल हैं, हम तेलुगू हैं, हम बंगाली हैं।
दिल्ली कभी सांप्रदायिक सहिष्णुता का शहर माना जाता था, लेकिन अब अंदर ही अंदर धार्मिक असहिष्णुता बढ़ती दिखती है। हर इलाका अपनी खास सांस्कृतिक पहचान रखता है, जहां दूसरी पहचान वाले को किराए पर भी नहीं रखा जाता।
ये है मुंबई नगरिया
मुंबई का हाल भी ऐसा ही है। एक तथाकथित ‘मुंबइकरों’ यानी (मुंबई के उच्च मध्यवर्ग) की मुंबई है। दूसरी वह है, जो ‘सैनिकों’ की है, तीसरी बहिरागतों ने बनाई है। चौथी धारावी वाली है। पांचवीं बॉलीवुड वाली है। बॉलीवुड इस शहर का शायद सबसे बड़ा कॉस्मोपोलिटन स्पेस है, जिसमें हर प्रदेश के लोग काम करते हैं। यह बजे व्यवसाय और स्टॉक मार्केट का शहर है। यह ‘मैक्सिमम सिटी’ कहलाती है, यानी यही एक ‘अधिकतम शहर’ हम बना पाए हैं। बॉलीवुड के अलावा यह शहर तमाम तरह की पापूलर कल्चर, फैशन, ग्लैमर और मानोरंजन इंडस्ट्री का अड्डा है, लेकिन इतना बड़ा बिजनेस हब होने के बावजूद मुंबई में दुनिया की सबसे बड़ी झुग्गी कॉलोनी ‘धारावी’ है। सड़कों पर यहां भी जाम रहते हैं और जरा-सी बारिश सड़कों को नदी बना देती है। मेट्रो यहां भी है, लेकिन मुंबई को पूरी तरह कॉस्मोपोलिटन नहीं कहा जा सकता!
तरह-तरह की कट्टरताएं इस शहर के मिजाज को कॉस्मोपोलिटन नहीं बनने देतीं। शहर के मिजाज में नई असहनशीलताएं पैदा हुई हैं। गोमांस बंदी के पीछे खड़े नेता मुंबई को अंतत: कॉस्मोपोलिटन नहीं बनने दे सकते। मराठी और मराठावाद उसे ऐसा नहीं होने देते! शहर में तरह-तरह के धार्मिक और भाषाई विभाजन हैं और वैसी असहिष्णुताएं हैं। ऐसे में कोई महानगर कॉस्मोपोलिटन कैसे कहला सकता है?
दक्षिण के संकरे गलियारे
बंगलुरू ऊपर से कॉस्मोपोलिटन दिखता है। उसे भारत की ‘सिलिकॉन वैली’ कहा जाता है। दुनिया की बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियां वहां दफ्तर रखती हैं, लेकिन श्रीरामसेने जैसे समूहों का स्त्रियों के प्रति असहिष्णुता और गैरकन्नड़ भाषियों को कन्नड़ भाषियों का किराए पर मकान तक न देना जैसी घटनाएं बंगलुरू के कॉस्मोपोलिटन मिजाज को फलने-फूलने नही देतीं। अब तो कन्नड़ भाषा के कट्टरतावादी तत्त्व मेट्रो स्टेशनों के संकेत पट्टों में तीसरी भााषा के रूप में लिखी हिंदी को भी मिटाने में लगे हैं। ऐसी कट्टरताएं उसे कॉस्मोपोलिटन नहीं बनने दे सकती! जो शहर अपने कूड़े का बंदोबस्त नहीं कर सकता वह कॉस्मोपोलिटन कैसे कहला सकता है? एक इनफोसिस के होने से कोई शहर कॉस्मोपोलिटन नहीं हो जाता!
चेन्नई भी ऊपर से कॉस्मोपोलिटन जैसा दिखता है, लेकिन शहर में सक्रिय तमिल कट्टरता उसे कॉस्मोपोलिटन नहीं बनने देती। तमिल अस्मिता सिर्फ हिंदी के प्रति घृणा पर जीवित है। जिस शहर के लोग हिंदी से दुश्मनी मानते हों, वह शहर ‘कॉस्मोपोलिटन’ तो क्या ‘मेट्रोपोलिटन’ तक कहलाने का हकदार नहीं। हर बात पर तमिल अस्मिता का रुदन और जल्लीकट्टू जैसी परंपराओं को लेकर हिंसक आंदोलन करना उसके ‘अनुदार स्थानीयतावादी मिजाज’ को ही स्थापित करता है। एक रजनीकांत या कमल हासन किसी शहर को कॉस्मोपोलिटन नहीं बना सकते।
सोनार बांग्ला का कोलकाता</strong>
कोलकाता शहर तो अब भी अपने रवींद्र संगीत और बांग्ला गर्व से मुक्त नहीं हो पाया है। वहां भी बांग्ला हिंदी के बीच दुराव है। बंगालियों का नया हिंदी विरोध एक प्रकार का नया संकीर्णतावादी माहौल रचता है, जिसकी प्रतिक्रिया में नेपाली जनता आंदोलनरत है। मेट्रो यहां भी है, लेकिन मेट्रो होने से कोई शहर कॉस्मोपोलिटन नहीं बन जाता!
एक जमाना था जब दुनिया की हर संस्कृति का आदमी कोलकाता को अपना घर समझता था, वे इलाके अब भी वहां हैं, लेकिन नई राजनीतिक कट्टरताएं, उनके तनाव, आपसी हिंसक संघर्ष, पुरानी उदार जगहों को खत्म करते जा रहे हैं। एक अच्छे कॉस्मोपोलिटन शहर को एक शिष्ट नागरिक और शांत जगह चाहिए!
आप हैदराबाद देखें तो वहां एक ओर इस्लामी कट्टरताएं और उससे स्पर्धा करती हिंदुत्ववादी कट्टरताएं शहर के समूचे सार्वजनिक स्थान को आए दिन कुपरिभाषित करती रहती हैं। चारमीनार, हैदराबादी बिरयानी का मजा भले मिले, ऐसी कट्टरताएं उसे ग्लोबल सिटी नहीं बनने देती।
चंड़ीगढ़ अवश्य एक ऐसा शहर है, जिसके कॉस्मोपोलिटन मिजाज के बारे में कम ही सोचा गया है, जबकि अपने शहरी नियोजन से लेकर शहरी सुविधाओं तक में चंड़ीगढ़ शायद सबसे कम अराजक शहर है। यों वह पंजाबी मिजाज का शहर है, लेकिन वह पंजाब और हरियाणा की शामिल राजधानी है। जब ऐसा न होगा तब इस शहर का क्या बनेगा, यह देखने की बात है।
संकीर्णता के खतरे
कॉस्मोपोलिटन शहरों का विचार खतरे में है। ट्रंपवाद अमेरिका को सिकोड़ता है और ब्रेक्जिट ब्रिटेन को, खासकर लंदन और बाकी शहरों की उदारता पर नई चोटें करता है। नए कट्टरतावादी समय में यूरोप अमेरिका के शहरों की कॉस्मोपोलिटन संस्कृति सिकुड़ने लगी है। राष्ट्रवाद, स्थानीयतावाद, स्वदेशीवाद और ‘हेट स्पीच’ और ‘हेट क्राइम’ सार्वजनिक जगहों को सिकोड़ने लगे हैं और उदारतावाद सहनशीलता और शरणागतों के लिए जगह कम होने लगी है।
भारत की स्थिति और गई-बीती नजर आती है। तथाकथित ‘पहरेदार’, नृशंस भीड़ें, असहमति और अल्पसंख्यकों के प्रति बढ़ती घृणा, बढ़ता अंधराष्ट्रवाद, अंध देशभक्ति, आजादी के प्रति बढ़ती असहिष्णुता, हर असहमत को राष्ट्रदोही या देशद्रोही करार देना और चैनलों का अंधराष्ट्रवादी होना आदि सब मिल कर भारत में बचे-खुचे कॉस्मोपोलिटन तत्त्वों को सकेर कर बाहर किए दे रहे हैं।
स्मार्ट सिटीज की परिकल्पना तो की जा रही है, लेकिन इस योजना के अंतर्गत पुराने शहरों का एक बेहद छोटा-सा इलाका यानी सिर्फ ढाई प्रतिशत इलाका ‘स्मार्ट सिटी’ बनाया जाना है। वहां चैबीस घंटे वाईफाई होगा, सड़कें-गलियां पानी की निकासी की साझा जगहें, बाजार, खेल की जगह, सब नियोजित होंगे। लोग अपना व्यवसाय, अपने रोजमर्रा के काम डिजिटल तरीके से करेंगे।
मगर क्या वाईफाई या डिजिटल होने से आदमी का दिमाग सहनशील हो जाएगा, सह-अस्तित्ववादी हो जाएगा, एक-दूसरे का मददगार हो जाएगा?
उसका मन कॉस्मोपोलिटन बन जाएगा? शायद नहीं! कॉस्मोपोलिटन शहर अब भी एक संभावना है! १
विविधता की अपनी खूबसूरती होती है : जतीन दास
कॉस्मोपोलिटन दरअसल, पश्चिमी देशों की अवधारणा है। वहां शहरों का वर्गीकरण नगर, महानगर और कॉस्मोपोलिटन के रूप में किया गया है। कॉस्मोपोलिटन का अर्थ है कि ऐसा शहर, जहां दुनिया भर के लोग आकर बसते हों, वहां सबकी एक साझा संस्कृति हो। आपस में सौहार्द और एक-दूसरे के प्रति सम्मान का भाव हो। पश्चिमी देशों में ऐसे अनेक शहर हैं। उन शहरों से जुड़े हुए कई शहर हैं। उनमें सिर्फ उन्हीं देशों के लोग नहीं रहते, बल्कि बाहर से आए लोगों की तादाद भी खासी बड़ी है।
मगर भारत में अभी इस तरह के किसी शहर की अवधारणा आकार नहीं ले पाई है। पहले कुछ अर्थों में मुंबई का चरित्र कॉस्मोपोलिटन था। वहां एंग्लो इंडियन भी रहते थे, पारसी भी रहते थे, इटैलियन भी रहते थे, गुजराती, मराठी और देश के विभिन्न हिस्सों से आए हुए लोग रहते थे। सबकी खानपान, मनोरंजन की जगहें साझा होती थीं। सब एक-दूसरे के खानपान का स्वाद लेते थे। अब काफी हद तक दिल्ली का चरित्र कॉस्मोपोलिटन होता गया है। दिल्ली कॉस्मोपोलिटन के रूप में विकसित हो रहा है, अभी बना नहीं है। यहां दुनिया भर के लोग रहते हैं, देश के विभिन्न हिस्सों से आकर लोग रहते हैं। हर जगह का खानपान यहां मौजूद है। सब जगहों के पर्व-त्योहार, कला-संस्कृतियां यहां मिल जाएंगी। मगर मुकम्मल तौर पर भारत में अब भी कोई शहर कॉस्मोपोलिटन नहीं बन पाया है। कोलकाता कभी कॉस्मोपोलिटन बनने की तरफ आगे बढ़ा ही नहीं। बंगलुरू में बहुराष्ट्रीय कंपनियों की वजह से देश और दुनिया के तमाम हिस्सों से जाकर लोग रहने जरूर लगे हैं, पर वह कॉस्मोपोलिटन चरित्र नहीं ले पाया है।
भारत में किसी शहर के कॉस्मोपोलिटन न बन पाने की कुछ वजहें तो राजनीतिक हैं, जिसके चलते अक्सर संस्कृतियों का टकराव उभर आता है। मगर सबसे बड़ा कारण है भारत की सांस्कृतिक बनावट। भारत एक अनोखा देश है। यहां पश्चिम की तरह कोई एक भाषा और संस्कृति नहीं है। विभिन्न भाषाएं और बोलियां हैं। अनेक धर्म हैं- यहां हिंदू, मुसलिम, जैन, पारसी, सिख, ईसाई, बौद्ध- हर तरह की आस्था के लोग हैं। ऐसी धार्मिक विविधता और कहीं नहीं मिलेगी। भारत में हर वर्ग की अपनी संस्कृति है, अपना खानपान, पहनावा भी है। दिल्ली में हर धर्म और आस्था वाले, हर भाषा-बोली वाले रहते हैं। इन सबका किसी एक संस्कृति में घुल-मिल जाना आसान नहीं है। लेकिन इस विविधता की अपनी खूबसूरती है। इस विविधता में एकता का जो सूत्र लगातार बना रहता है, वही एक मिश्रित, पर अलग संस्कृति का आधार बनता है।
दिल्ली में विविधता जरूर है, पर उसमें कॉस्मोपोलिटन शहर बनने की संभावना है। इसमें अभी वक्त लगेगा, पर बन सकता है। एक तो इसलिए कि यह दुनिया के तमाम बड़े शहरों से हवाई मार्ग के जरिए जुड़ा है। देश की राजधानी और व्यावसायिक केंद्र होने की वजह से रोज यहां देश और दुनिया से बहुत सारे लोग आते हैं। उन सबकी जरूरतों को ध्यान में रखते हुए यह शहर विकसित हो रहा है। नोएडा, गुरुग्राम, गाजियाबाद आदि आसपास के छोटे शहरों को अपने में समेट रहा है, जैसे पश्चिम के अनेक बड़े शहरों के भीतर बहुत-सारे शहर घुलते-मिलते गए हैं। इसलिए यह कॉस्मोपोलिटन बनने की तरफ अभी बढ़ रहा है। मगर इसके लिए यहां के नागरिकों में खुलापन और उदारता भी आना जरूरी है। अपनी पहचान के साथ लोग रहें, पर दूसरे की पहचान को नकार कर नहीं, तभी इसके उदार होने की पहचान बन सकेगी।

