संगीत को जिंदा जादू की संज्ञा दी गई है। इस बात की पुष्टि अमेरिका के कैलीफोर्निया विश्वविद्यालय में हुए शोध से भी हुई है। इस शोध में पाया गया कि मधुर संगीत बीमार आदमी को ठीक करने और उसका मन प्रसन्न करने में मदद करता है। शायद यही कारण है कि भारतीय समाज में संगीत का इतना महत्त्व है कि जन्म से लेकर मत्यु तक में इसका चलन है। लेकिन समय-समय पर इसके स्वरूप में बदलाव आया है। जब से फिल्म संगीत का दौर शुरू हुआ है तभी से लगभग दूसरे सभी तरह का संगीत पीछे छूटता गया है। जिस सुगम संगीत ने शास्त्री संगीत को राजदरबारों से बाहर निकाला उस संगीत तक को भी फिल्म संगीत ने पीछे छोड़ दिया। फिल्म संगीत की लोकप्रियता का अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि एचएमवी म्युजिक कंपनी दुनिया भर में मशहूर ही फिल्म संगीत के बलबूते पर हुई थी। लेकिन आज हालात इतने बदल गए हैं फिल्म संगीत में वह मधुरता नहीं रह गई, जिस कारण कई म्युजिक कंपनिया बंद हो गर्इं।
जिस पुराने संगीत को सुनकर बीमार लोग सुकून महसूस करते थे, अब वैसा संगीत सुनने को नहीं मिल रहा। उसकी जगह शोर ने ले ली है। शोर भी ऐसा कि लोगों के सिर में दर्द हो जाए। कभी लोग गाना सुनने के लिए रास्ते में रुक कर खड़े हो जाते थे । वह दौर गायब हो गया है। अब उलटा हो रहा है- जहां गाना बज रहा होता है वहां से लोग जल्दी निकल जाने को बेताब रहते हैं। आज के गीतों का सबसे कमजोर पक्ष यह है कि उस पर संगीत हावी हो गया है। इसके कुछ कारण भी हैं। आज गद्य और पद्य में अंतर करना मुश्किल हो गया है। इससे गायक और संगीतकार दोनों के सामने समस्या खड़ी हो चुकी है कि क्या करें। अर्थपूर्ण गीतों और शायरी का तो नामोनिशां तक नहीं रह गया। जो बात हम कहना चाहते हैं उन्हें हम शायरी में नहीं ढाल पाते इसलिए गद्य को ही गाने लगते हैं।
फिल्मी गीत संगीत की गरिमा पर सवाल उस समय उठा जब ‘जय हो’ गीत के लिए एआर रहमान को आॅस्कर अवार्ड के लिए चुना गया था। रहमान के फ्यूजन संगीत पर कोई आपत्ति नहीं लेकिन संगीत के जानकारों ने उस समय यह सवाल उठाया कि आखिर इस गीत या संगीत में ऐसा क्या है जिसे इतने बड़ा अवार्ड के लिए चुना गया। लोगों को इससे भी ज्यादा हैरत तब हुई थी जब ‘मैं कुतुबमीनार पर चढ़ जाऊं, मेरी मरजी’ जैसे गीत के लेखक को फिल्म फेयर अवार्ड के लिए चुना गया। इससे संगीत के गिरते स्तर का अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है।
नांचेंगे सारी-सारी रात टांग उठाके, चार बोतल वोदका काम अपना रोज का, बेबी को बेस पसंद है और जग घुमिया जैसे गीतों को लोकप्रिय बताया जा रहा है। इस बात से आज के संगीत की लोकप्रियता का पता चलता है। पिछले सालों पर नजर डालें तो पाएंगे कि मधुर संगीत का ढलान बहुत पहले ही शुरू हो चुका था। 1998 में महेश भट्ट के निर्देशन में बनी ‘जख्म’ का गीत ‘तुम आए तो आया मुझे याद…गली में मेरे चांद निकला।’ इस तरह के गीत कहां बिला गए? ऐसे गीत अब कभी-कभार भी सुनने को नहीं मिलते।
ऐसा नहीं है कि पहले सिर्फ विरह के गीत लिखे जाते थे या फिर प्यार के गीतों में हीरो हीरोइन डूबे रहते हों। पहले भी हर तरह के गीत लिखे जाते थे लेकिन उनमें भी मर्यादा का ख्याल रखा जाता था। उसे आप चाहकर भी फूहड़ता की श्रेणी में नहीं डाल सकते थे। ‘मेरी याद में यंू न आंसू बहाना मुझे भूल जाना’, ‘चौदहवीं का चांद हो या आफताब हो’, ‘न रो ये दिल कहीं रोने से तकदीरें बदलती हैं’, ‘मिलो न तुम तो हम घबराएं मिलो तो आंख चुराएं’, ‘मैं जब भी अकेली होती हंू तुम चुपके से आ जाते हो’ आदि गाने लोगों के ओठों बस गए थे।
सवाल नए दौर के संगीत का है। प्रश्न उठना स्वभाविक है कि जब गीत चल नहीं रहे तो बन क्यों रहे हैं। दरअसल आज सामाजिक, धार्मिक, पौराणिक फिल्में कम बन रही हैं या बन ही नहीं रहीं। मारधाड़, कॉमेडी या फिर सब्जेक्ट- मूवी ज्यादा बन रही हैं। ऐसी फिल्मों के फिल्मकारों को शायद अब गानों की जरूरत ही महसूस नहीं होती। बेहतर गानों की तो कतई नहीं।
उन्हें लगता है कि बिना संगीत के ही उनकी फिल्म चल जाएगी। इसलिए वह औपचारिक तौर पर फिल्म में गाने डाल लेते हैं। चल गए तो ठीक नहीं चले तो भी ठीक। इसलिए वह गीत-संगीत की गुणवत्ता को देखते तक नहीं। पहले ऐसा होता था कि फिल्म नहीं भी चली तो भी उसकी लागत गीत-संगीत निकाल देता था। कई बार ऐसा भी हुआ कि फिल्म फ्लाप हो गई लेकिन लोग गाने सुनने के लिए फिल्म देखने जाते रहे। फिल्मी गीतों की लोकप्रियता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि वह लोक संगीत पर भी भारी पड़ गया है। महिलाएं अपने कार्यक्रमों ब्याह-शादियों या अन्य फंक्शनों में पुराने फिल्मी गीत गाती थीं। उन्हीं गीतों की तर्ज पर भजन, भक्ति गीत, कव्वालियां तैयार कर लिए जाते। अब के गीतों का उनमें कहीं नामोनिशां नहीं। पहले के गीत आज तक गाए जा रहे हैं और अब की फिल्मों के गीत एक सप्ताह चल जाएं तो समझो बड़ी बात है।
ऐसा क्यों है, आज न तो संगीतकार के पास संगीत विद्या का विधिवत ज्ञान है और न गीत लिखने वालों को रदीफ काफिया की जानकारी है। अच्छे और दिल को छू लेने वाले गाने के लिए दो चीजें बहुत जरूरी हैं। भावनाओं का ज्वार जिसमें दर्द, तड़प के साथ शब्दों के चयन की क्षमता हो। दूसरे भाषा की जानकारी ताकि गीतों में जान आ सके। संगीतकार आज शोर मचाकर खुश हो जाते हैं। उन्हें इतनी समझ तो होनी ही चाहिए कि गायक की आवाज से संगीत का स्केल कम हो। लेकिन ऐसा होता नहीं है। इसलिए कई बार अच्छे बोल भी उस शोर में दब कर रह जाते हैं। गायकों को लगता है कि गायकी मतलब चिल्लाना है। अगर उसे आप गाते हुए देखेंगे तो लगेगा कि वह किसी से लड़ रहा है। इन हालात में मधुरता कहां से आएगी। नई पीढ़ी को शायरी की समझ न के बराबर है या फिर है ही नहीं, इसलिए उनके लिए यही बढ़िया गीत है क्योंकि उन्होंने आंख खोलकर यही देखा है। और जिसे देख रहे हैं उसी से अपना मन बहला रहे हैं।