विनोद शाही

हमारे समय में सामान्य-जन के केंद्र में आ सकने की संभावनाएं जितनी गहरी होंगी, मिथकों में हमारी दिलचस्पी उतनी ही बढ़ती जाएगी। मिथक लोक-चित्त द्वारा देखे गए सामूहिक सपनों जैसे होते हैं। मिथकों में सामान्य समय के बजाय, युगबोधक समय का एक पूरा परिदृश्य दर्ज रहता है। किसी भी समय का सत्य, उस दौर की व्यवस्था द्वारा किए गए प्रतिनिधित्व के दावों की छाया भर नहीं होता। वह बाहर हाशिये पर खड़े रह गए जनसमूहों की चेतना में निहित होता है, जो दमित होकर भी, मिथकों में अपनी अभिव्यक्ति को निरंतर खोजती रहती है।

व्यवस्थाएं इतिहास रचने का दावा करती हैं

व्यवस्थाएं इतिहास रचने का दावा करती हैं और अपने दावों को मजबूत करने के लिए ‘व्यवस्थाओं की व्यवस्था’ के रूप में संस्कृति के प्रतिनिधि रूपों को रचती-गढ़ती हैं। गोया, व्यवस्थाओं की पहुंच एक हद तक, इतिहास से लेकर संस्कृति तक देखी-आंकी जा सकती है; पर मिथक व्यवस्था की पहुंच से हमेशा परे रहते हैं। उन्हें रचने-गढ़ने का काम, सिवाय लोकचित्त के, और कोई नहीं करता। इसलिए मिथकों को समझने के लिए जरूरी होता है कि हम लोक और युग की संधि पर अपनी निगाह जमाएं।

हम लोकचित्त की युगबोधक स्वप्न-कथाओं के रूबरू होते हैं

मिथकों में युग-बोध को हिंसा-प्रतिहिंसा, आत्मरक्षा-अहिंसा के पैटर्न की तरह भी खोजा-पढ़ा जा सकता है। ऐसा करते हुए, दरअसल हम लोकचित्त की युगबोधक स्वप्न-कथाओं के रूबरू होते हैं। पर इनका मकसद दूसरा होता है। वे इशारों-इशारों में इतिहास और संस्कृति का प्रतिनिधित्व करने से जुड़े, सत्ता-व्यवस्थाओं के दावों का विखंडन भी किया करती हैं। मिथकों की अर्थ-बहुलता को आज हम इसलिए समझ पाने लायक हुए हैं, क्योंकि इस मामले पर स्वप्न-मनोविज्ञान और समाजशास्त्र की गहरी निगाह पड़ी है। जनेतिहास लिखने के आधे-अधूरे प्रयासों की इस संदर्भ में जो भूमिका है, उसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। इसके अलावा गहराई में उतर गए कबीलाई समाजों के मानव वैज्ञानिक अध्ययनों ने भी हमारी बहुत मदद की है।

मौजूदा उत्तर-आधुनिक विमर्शों ने अब इन अध्ययनों को ‘ज्ञान के सत्ताविमर्श और सत्ता के ज्ञान विमर्श’ की तरह ग्रहण कर, हमें एक नई दृष्टि दी है। इसने हमें ‘सत्ता-व्यवस्थाओं’ के दावों के निहितार्थों को समझने लायक बनाया है। इस तरह अब हम सत्ता के हाशियों पर छिटके पड़े रह गए लोकचित्त के सपनों और उसकी वैकल्पिक-व्यवस्था को भी कुछ-कुछ समझने लगे हैं। दरअसल, ज्ञान और सत्य की खोज के असल हेतु, उस समय और समाज में होते हैं, जो उस खोज को प्रेरित करता है। किसी भी दौर में ज्ञान और सत्य को समझने-परखने की कसौटियां और जरूरतें वर्तमान से ही उपजती हैं। इसलिए पहला सवाल है कि हम हिंसा और प्रतिहिंसा के तौर-तरीकों, नक्शों की तलाश में, मिथकों तक का सफर क्यों करें?

इसलिए कि हमारे समय के वैज्ञानिक कार्य-कारणवादी तर्क और उनसे उपजी विमर्श बहुलता, ठीक से इस बात की व्याख्या नहीं कर पा रहे हैं। वे हमें यह नहीं बता पा रहे हैं कि आखिर क्यों हमारे समय में राज्य हिंसा के सांस्थानिक और रूपों को जायज बनाया जाता है। ऐसा करते-करते वे जनविरोधी और जनदमनकारी चरित्र वाले होते जाते हैं? ऐसी हिंसाओं को जायज करार दिए जाने वाले युद्धों का मुकाबला करने के लिए बहुत से जनसमूह आखिर क्यों आत्मघाती या आतंकी और फिदायीन प्रतिहिंसाओं की शरण में चले जाते हैं? और हिंसाओं- प्रतिहिंसाओं के तमाम आपसी तर्कपूर्ण रिश्तों को तोड़ते हुए, आखिर क्यों अनेक दफा जन-असंतोष, व्यापक विनाश करने वाले दंगों की तरह भड़क कर, अतार्किक-प्रतिहिंसाओं की हद तक चला जाता है?

आधुनिक काल में मिथकीय चेतना का अंतर्विकास, ज्यादातर अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ, भारत की आजादी के लिए जद्दोजहद करने के तहत हुआ। उस दौर के अनेक नौजवानों की ऐसी कथाएं हमें मालूम हैं, जिन्होंने अपनी जेबों में भगवद्गीता या कुरआन शरीफ की प्रतियां रखकर फांसी के फंदे चूमने में किसी तरह के खौफ को अपने नजदीक नहीं आने दिया। किसी मिथकीय स्वप्न-कथा के पात्रों की हैसियत से, जीवन जीने की कोशिश करते इस तरह के लोगों के मनोविज्ञान को समझना जरूरी है। वे लोकचित्त में पनप रही उस कुंठा या बीमारी से ग्रस्त दिखाई देते हैं, जिसके लिए सत्ता-व्यवस्था का दमन-चक्र, सीधे जिम्मेवार होता है।

इस तरह हम यह देख सकते हैं कि अलग-अलग समय में प्रकट होने वाले अलग तरह के युगगत हालात, मनुष्यों के नए आचरणों के जरिए, अपने भीतर मौजूद मिथकीय चेतना का भी अंतर्विकास या विरूपन करते हैं। लोकचित्त द्वारा मिथक, हर दौर में, अपनी जरूरतों के मुताबिक, नई शक्लों और नई परिस्थितियों तक में ढलकर नए होते रहते हैं। पर यह काम सजग रूप में नहीं होता। न ही कोई साहित्यिक कृति अचानक लिखी जाकर किसी मिथक को नए सांचे में ढाल सकती है। साहित्यिक कृतियां, केवल युगगत हालात की तब्दीलियों में नई शक्ल ले रहे मिथकों को जुबान और थोड़ी तराश भर दिया करती हैं। इस तरह वे मिथकों की विकसनशील जीवंतता को सजग रूप प्रदान कर, उनकी अंतर्रचना में हमसफर और सहभागी हो सकती हैं।

पर, यह रचनाशीलता, हर युग-स्थिति में विधायक ही नहीं होती। कई दफा कुंठा, विकृति या बीमारी के लक्षण गहरा जाने पर मिथकीय रचनाशीलता भी गुमराह होकर उल्टे और भी विनाशकारी नतीजे लाने का हेतु हो सकती है। इससे स्पष्ट है कि आधुनिक-उत्तराधुनिक काल में हमारे लोक और जग के क्षेत्र का जितना विस्तार हो रहा है, उतना ही मिथकों के अधिकाधिक गहन अध्ययन की जरूरत बढ़ती जाती है। लगता है कि मिथक मानवजाति का जिस रूप में सभ्यताकरण करना चाहते हैं, वह प्रक्रिया अभी अधूरी है।