यूरोप और अमेरिका में इतनी बर्फ पड़ रही है कि लोग इसे हिमयुग के आगाज का संकेत मान रहे हैं। जबकि भारत में आसमान से इतनी गरमी बरस रही है कि पर्यावरणविद् इसे ग्लोबल वार्मिंग का असर बता रहे हैं। भारत में तो बारिश ही नहीं हो रही है। अवर्षण से खेती चौपट हो गई है और लोग पीने के पानी के लिए भी तरस रहे हैं। दूसरी तरफ जब मौसम का मूड बनता है तो आसमान से बारिश के रूप में आफत बरसने लगती है। जून के मध्य में ही अप्रत्याशित रूप से मानसून का आ धमकना और सीधे स्थायी हिमरेखा (लक्ष्मण रेखा) को लांघ कर केदारनाथ की खोपड़ी पर बरसना मौसम या जलवायु परिवर्तन का संकेत तो है ही, लेकिन इस तरह प्रकृति का अप्रत्याशित आचरण उसके कुपित होने का भी स्पष्ट सकेत है। धरती के समस्त जीवधारियों और संसाधनों का स्वयंभू मालिक बन बैठा इंसान ऐसा बर्ताव कर रहा है जैसे कि इस धरती पर केवल उसी को जीने का अधिकार हो। इसी दंभ और लालच का नतीजा आज दैवी आपदाओं के रूप में सामने आ रहा है।
आबादी में आज हमें मनुष्य समेत जितने भी पालतू जीव दिखाई देते हैं, वे कभी जंगली जीव रहे होंगे। इसी तरह गेहूं और दाल-चावल समेत जितने भी अनाज या सब्जियों का सेवन हम करते हैं वे भी कभी न कभी जंगली वनस्पतियों की बिरादरी में ही रही होंगी। इसका साफ मतलब है कि आज चांद-तारों पर पहुंचने वाला इंसान और उसकी सभ्यता का मूल वन ही हैं। हमारे ही देश में 1.73 लाख गांव ऐसे हैं जो कि वनों के अंदर या उनके आसपास रहते हैं और इन गावों में रहने वाली आबादी प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से वनों पर निर्भर है। आदिवासी जीवन की कल्पना तो विना वनों के की ही नहीं जा सकती। जीवन का आधार माने जाने वाले जगलों का आज जिस तरह विनाश हो रहा है, उसे रोका नहीं गया तो मानव विनाश अवश्वंभावी है। जंगल केवल पेड़ों का झुरमुट नहीं बल्कि उसके अंदर एक भरा पूरा वन्यजीव संसार होता है। जिसे मनुष्य बेरहमी से उजाड़ने पर तुला हुआ है। लेकिन सरकारी प्रचार तंत्र इस भयावह स्थिति की सही तस्वीर पेश करने के बजाय अपने मालिकों को खुश करने के लिए केवल अच्छी-अच्छी तस्वीरें ही पेश करता है।
संयुक्त राष्ट्र के विश्व खाद्य एवं कृषि संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार 1901 से लेकर 1950 तक भारत में 14 मिलियन हेक्टेअर यानी कि एक करोड़ चालीस लाख हेक्टेअर भूमि पर से वनों का नामोनिशन मिट गया था। उसके बाद 1950 से लेकर 1980 तक वन क्षेत्र में 75.8 मिलियन हेक्टेअर की गिरावट आई। उसके बाद चिपको आंदोलन में चंडी प्रसाद भट्ट जैसे पर्यावरणवादियों के प्रयासों से सरकार और आम जनता का ध्यान वृक्षों की सुरक्षा की ओर जाने से वनों के विनाश की गति में काफी कमी दर्ज की गई।
केंद्र और प्रदेशों की सरकारों के सभी विभाग अपनी छवि बनाने के लिए हमेशा ही अपने काम की अच्छी-अच्छी तस्वीरें पेश करते हैं। वन विभाग भी केवल शुक्ल पक्ष पेश करने में पीछे क्यों रहे? भारतीय वन सर्वेक्षण विभाग की दो साल में जारी होने वाली वन स्थिति रिपोर्टों में भी वन क्षेत्र में विस्तार ही दिखाया जाता है। नवीनतम वनस्थिति रिपोर्ट में 2013 के सर्वेक्षण के मुकाबले 5081 वर्ग किलोमीटर वनावरण की वृद्धि दिखाई गई। इस रिपोर्ट में देश का वनावरण 21.34 प्रतिशत दिखाया गया है। भारतीय वन सर्वेक्षण विभाग की 1999 के बाद की तमाम रिपोर्टों पर गौर करें तो उनमें वनावरण में निरंतर वृद्धि नजर आती है। 1999 की वन स्थिति रिपोर्ट में जहां वनावरण 19.39 प्रतिशत दिखाया गया था वहीं 2015 की रिपोर्ट में वनावरण बढ़ कर 21.34 प्रतिशत हो गया। जिसमें 2.61 प्रतिशत घनघोर वन और 9.59 घने वनों के साथ ही 9.14 प्रतिशत खुले वन बताए गए हैं।
विश्व खाद्य संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार 1972 से 1978 के बीच भारत में वनावरण 17.19 प्रतिशत था। इस प्रकार हर दो साल बाद आने वाली इन रिपोर्टों में वनावरण में निरंतर वृद्धि तो नजर आती है मगर जब इन रिपोर्टों को गौर से देखा जाता है तो इनमें जंगलों की असली तस्वीर नजर आती है। अगर 1999 की रिपोर्ट में देश में सघन वन 11.48 प्रतिशत दिखाए गए हैं। जबकि 2015 तक पहुंचते-पहुंचते ऐसे घनघोर जंगल सिकुड़ कर 2.61 प्रतिशत ही रह गए। विभाग के पैमाने के अनुसार सघन वन वे होते हैं जिनमें सत्तर प्रतिशत से अधिक वृक्षछत्र या कैनोपी होती है। चालीस से लेकर सत्तर प्रतिशत तक वृक्षछत्र वाले वन मामूली घने वनों में और दस से लेकर चालीस प्रतिशत तक छत्र वाले वन खुले या छितरे वनों की श्रेणी में आते हैं। दरअल यही घनघोर जंगल वन्यजीवन के असली आश्रयदाता हैं। इन घने वृक्षछत्रों के नीचे ही एक भरा-पूरा वन्यजीव संसार फलता-फूलता है।
उत्तराखंड जैसे राज्यों में बढ़ते मानव-वन्यजीव संघर्ष और इन संघर्षों में होने वाली मौतों में वृद्धि का असली कारण भी इन सघन वनों में निरंतर ह्रास होना ही है। प्राकृतावास छिनने और शिकार में कमी के चलते गुलदार जैसे खूंखार जीव वनक्षेत्रों को छोड़ कर बंग्लुरु और मेरठ जैसे शहरों में घुस कर उत्पात मचा रहे हैं।
घनघोर या सघन वनों के बारे में भारतीय वन सर्वेक्षण विभाग की रिपोर्टों को अगर ध्यान से देखें तो 1999 की रिपोर्ट में जहां इस तरह के वन 11.48 प्रतिशत बताए गए हैं वहीं इनका आकार 2001 में 12.68 फीसद, 2003 में 1.23 फीसद 2009 में 2.54 फीसद और 2011 की वन स्थिति रिपोर्ट में 2.54 फीसद बताया गया है। 1999 से लेकर 2015 तक सघन वनों में भारी गिरावट साफ नजर आ रही है। इससे भी चिंता का विषय यह है कि उत्तराखंड और मिजोरम जैसे राज्यों में न केवल सघन वन बल्कि संपूर्ण वनावरण घट रहा है। यह सरकारी रिपोर्ट बताती है कि 2013 से लेकर 2015 के बीच मिजोरम में 306 वर्ग किलोमीटर, उत्तराखंड में 268 वर्ग किलोमीटर, तेलंगाना में 168 वर्ग किलोमीटर, नगालैंड में 78 वर्ग किलोमीटर और अरुणाचल में 73 वर्ग किलोमीटर वनावरण घट गया।
कुल मिलाकर नवीनतम वन स्थिति रिपोर्ट में देश के 16 राज्यों में वनावरण में गिरावट का झुकाव बताया गया है। इन राज्यों में दो साल के अंदर ही 1180 वर्ग किलोमीटर वनावरण गायब हो गया है। वनावरण घटने वाले राज्यों में अरुणाचल, असम, बिहार, छत्तीसगढ़, हरियाणा, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, मेघालय, मिजोरम, नगालैंड, पंजाब, सिक्किम, तेलंगाना, त्रिपुरा, उत्तराखंड और दादर नागर हवेली शामिल हैं। इनके अलावा ऐसे भी राज्य हैं जहां कुल मिलाकर वनावरण तो बढ़ा है मगर सघन या घनघोर जंगल घट गए हैं। ऐसे राज्यों में जम्मू-कश्मीर, पश्चिम बंगाल और मध्यप्रदेश भी शामिल हैं। कुल मिलाकर देखा जाए तो केवल दो साल के अंदर देश के देश के अस्सी जिलों में वनावरण घट गया।
मानव दबाव के चलते देश में जहां घने वन लगातार सिकुड़ रहे हैं वहीं खुले वनों का विस्तार हो रहा है। दरअसल सरकारी मशीनरी कुल वनावरण का हवाला देकर वनावरण में कोई नुकसान न होने का दावा कर रही है, जबकि वास्तव में यह परिवर्तन कोई शुभ न होकर जंगलों के विनाश की प्रक्रिया का ही एक हिस्सा है। क्योंकि वनों के पतन की एक प्रक्रिया में सघन वन, कम सघन में और कम सघन वन, खुले या छितरे वनों में परिवर्तित हो जाते हैं और आखिरकार खुले वन वृक्षविहीन हो जाते हैं। इसका मतलब यह है कि जिन राज्यों में कुल वनावरण नहीं घटा मगर सघन वन घट गए हैं तो वहां वनों के विनाश की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है। वन सर्वेक्षण विभाग आसमान से उपग्रहों के जरिए धरती के चित्र लेता है जिसमें लैंटाना की तेजी से फैल रही झाड़ियां भी ग्रीन कवर के रूप में शामिल हो जाती है।
भारत दुनिया के 17 मेगाबायोडाइवर्सिटी (वृहद् जैव विविधता) वाले राष्ट्रों में से एक गिना गया है। भारत में भी जैव विधिता के चार हॉटस्पॉट हैं जिनमें पूर्वी हिमालय एक है। इस पूर्वी हिमालय में उत्तर पूर्व के राज्य शामिल हैं जहां झूम खेती या ‘शिफ्टिंग कल्टीवेशन’ और विकास की दूसरी जरूरतों के लिए बड़े पैमाने पर वनों का विनाश हो रहा है। वनों के विनाश का मतलब जैव विविधता का विनाश ही होता है। हिमालय देश की छत है और अगर छत ही सुरक्षित न हो तो फिर उसके नीचे की पर्यावरणीय असुरक्षा का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। 2013 से लेकर 2015 तक की दो साल की अवधि में ही उत्तर पूर्व के आठ राज्यों में 628 वर्ग किलोमीटर वनावरण गायब हो गया है। यह स्थिति केवल दो सालों की नहीं है। वहां दशकों से झूम खेती और वनों के व्यावसायिक दोहन के चलते बड़े पैमाने पर वनों का विनाश हो रहा है।
इसी तरह पहाड़ी जिलों में भी वनावरण घटने की प्रवृत्ति निरंतर जारी है। इन हिमालयी और अन्य पहाड़ी इलाकों में देश की अधिसंख्य जनजातीय आबादी बसती है। यों तो वनों के विनाश से सभी प्रभावित होते हैं, लेकिन इसका दुष्प्रभाव आदिवासियों पर सर्वाधिक होता है। आदिवासियों का जीवन पूरी तरह वनों पर निर्भर होता है। इनकी दैनिक जीवन की अधिकांश आवश्यकताएं भी वनों से ही पूरी होती हैं। वन्य-प्राणियों का आखेट और वनों से एकत्रित फल और कंदमूल इनका भोजन होता है। इनके आवास, वृक्षों की शाखाओं की टहनियों से तैयार किए जाते हैं। उत्तर पूर्व में सैकड़ों की संख्या में जनजातियां और उनकी उपजातियां निवास करती हैं, जिनका जीवन पूरी तरह वनों पर ही निर्भर होता है। इसलिए वनों को बचाना इस दुर्लभ होती जा रही जनजातीय सांस्कृतिक विविधता और विलक्षण धरोहर को बचाने के लिए भी जरूरी है।
1988 की वन नीति के अनुसार पर्यावरण के सही संतुलन के लिए मैदानी क्षेत्रों में कुल भूभाग का एक तिहाई यानी कि तैंतीस प्रतिशत और पहाड़ी क्षेत्रों में दो तिहाई भूभाग वनाच्छादित होना चाहिए। लेकिन देश में 11 राज्य ऐसे हैं जहां का वनावरण निर्धारित मानकों से काफी कम है। आश्चर्य की बात तो यह है कि जैविक विविधता के लिहाज से गरीब राज्य विकास के मामले में सबसे समृद्ध हैं। इनमें गुजरात भी शामिल है जिसका वनावरण महज चौदह प्रतिशत रह गया है। इसी तरह राजस्थान और उत्तर प्रदेश का वनावरण 16 फीसद और महाराष्ट्र का इक्कीस प्रतिशत ही रह गया है। जबकि पर्याप्त वनावरण वाले राज्य गरीब हैं।
वनों के विनाश के लिए एक नहीं बल्कि अनेक कारण जिम्मेदार होते हैं। उत्तर पूर्वी राज्यों में परंपरागत झूम खेती या स्थानांतरण खेती तो वनों के विनाश का मुख्य कारण है ही, लेकिन इसके साथ ही इन राज्यों की अन्य विकास की जरूरतों को पूरा करने के लिए भी वनों का कटान किया जा रहा है। असम और उत्तराखंड जैसे राज्यों में वनों का बड़े पैमाने पर व्यावसायिक दोहन अंग्रेजों के जमाने से होता रहा है। कुछ राज्यों में विकास परियोजनाओं के लिए वन भूमि का बड़े पैमाने पर हस्तांतरण होता रहा है। उत्तराखंड जैसे राज्य में वन अधिनियम लागू होने के बाद 1980 से लेकर 2007 तक 32052 हेक्टेअर वनभूमि गैरवानिकी उपयोग के लिए हस्तांतरित की जा चुकी थी। हिमाचल और कर्नाटक जैसे राज्यों में वन माफिया भी वनकर्मियों की मिलीभगत से वनों का बड़े पैमाने पर विनाश करता रहा है।
अगर सरकार की तरफ से वनों को बचाने के ईमान्दार प्रयास होते तो शायद मानवीय विकास की जरूरतों को पूरा करने के साथ ही वानिकी और गैरवानिकी क्षेत्रों में नए पेड़ लगा कर संतुलन कायम रखा जा सकता था। वन अनुसंधान संस्थान (एफआरआइ) की एक रिपोर्ट के अनुसार 1951 से लेकर 2007 तक देश में कुल 39.89 मिलियन ( 3 करोड़ 98 लाख) हेक्टेअर में वृक्षारापेण हुआ। अगर सचमुच इतना वृक्षारोपण हुआ होता तो आज भारत में प्रतिव्यक्ति वनावरण में इतनी कमी नहीं होती। वनावरण में कमी का मतलब वन्यजीवन का संकट ही होता है। विश्व में प्रति व्यक्ति वनक्षेत्र उपलब्धता 0.64 हेक्टेअर है जबकि भारत में प्रतिव्यक्ति वनक्षेत्र उपलब्धता मात्र 0.08 ही है।
संयुक्त राष्ट्र के खाद्य एवं कृषि संगठन की एक रिपोर्ट (1990) के अनुसार भारत में वृक्षारोपण की सफलता बहुत कम है। यहां रोपे गए पौधों में से औसतन 65 प्रतिशत ही जीवित रह पाते हैं। वृक्षारोपण के नाम पर भ्रष्टाचार के चर्चे आम हैं। उत्तराखंड में भड़की वनाग्नि का सबसे अधिक प्रकोप उन वन क्षेत्रों में नजर आ रहा है। जहां पिछली बार वन विभाग द्वारा वृक्षारोपण किया गया था। इसलिए आशंका व्यक्त की जा रही है कि वनीकरण वाले क्षत्रों में कहीं भ्रष्ट कर्मचारियों ने ही आग न लगा दी हो। वैसे भी उत्तराखंड जैसे राज्यों के जंगलों में नए पेड़ भले ही न उग पाए हों मगर वन कर्मियों और अफसरों की अट्टालिकाएं अवश्य ही देहरादून जैसे नगरों में जंगलों की तरह उग आई हैं।
मनुष्य जन्म से ही प्रकृति की गोद में जीवन व्यतीत करता रहा है। वन और धरती पर चारों तरफ फैली हरियाली मानव से प्रफुल्लित होता रहा है। देखा जाए तो हमें सब कुछ प्रकृति द्वारा ही दिया गया है। प्राकृतिक संसाधन प्रकृति द्वारा निर्मित और प्रकृति से ही हमें प्राप्य हैं। आज प्राकृतिक संसाधनों का दोहन जिस तरह से और जिस स्तर पर किया जा रहा है, उससे पर्यावरण को निरंतर खतरा बढ़ता जा रहा है।
जंगल में आग
जैव विविधता की दृष्टि से विश्व के संपन्न क्षेत्रों में गिने जाने वाले उत्तराखंड में के जंगलों में लगी आग ने कोहराम मचा दिया है। केंद्र और राज्य सरकार के आपदा प्रबंधन बलों के साथ ही सेना को भी दावानल का मुकाबला करने के लिए तैनात किया गया। कीट-पतंगों से लेकर स्तनपायी जीवों तक की हजारों प्रजातियों के करोड़ों जीवों के जलभुन जाने के महासंकट ने स्थिति भयावह कर दी है। खास कर पर्यावरण के वे ठेकेदार कहीं नजर नहीं आ रहे हैं, जो कि बिजली प्रोजेक्ट जैसी परियोजना शुरू होने की भनक लगते ही विरोध का झंडा लेकर मैदान में उतर आते हैं।
अभी आसमान से आग बरसनी भी शुरू नहीं हुई थी कि तराई से लेकर तिब्बत सीमा से लगे नंदादेवी बायोस्फीयर रिजर्व तक और काली-टोंस नदियों के बीच स्थित अस्कोट से लेकर आरोकोट तक के उत्तराखंड के जंगल धधक उठे। राज्य प्रशासन की तंद्रा तब टूटी जब राष्ट्रीय राजमार्गों पर चल रहे लोग भी आग की चपेट में आने लगे। इस वनाग्नि से इस साल की चारधाम यात्रा भी प्रभावित हो सकती है।
वनाग्नि की लंबी अग्नि रेखा सब कुछ भस्म कर आगे बढ़ती है तो अपने पीछे केवल राख छोड़ती चली जाती है। वनाग्नि बड़े वृक्षों को छोड़ कर उसके आगे आने वाली हर वनस्पति और हर एक जीव का अस्तित्व राख में बदल कर चलती जाती है। इस आग की चपेट में अब तक हजारों हेक्टेअर वनक्षेत्र आ चुका है। जिसमें वन्य जीवों के लिए संरक्षित राष्ट्रीय पार्क, वन्यजीव विहार और कर्न्वेशन रिजर्व भी शामिल है। बाघ और हिरन जैसे स्तनधारी वन्यजीव तो जान बचा कर सुरक्षित क्षेत्र की ओर भाग सकते हैं, मगर उन निरीह सरीसृपों और कीट-पतंगों का क्या हाल हुआ होगा जो कि दावानल की गति से भाग ही नहीं सकते। जीवों के पास तो भागने का विकल्प है मगर उन नाजुक वनस्पतियों के महाविनाश की कल्पना की जा सकती है जो कि अपने स्थान पर हिल तो सकती हैं मगर भाग नहीं सकती! तमाम वनस्पतियां और वन्यजीव एक दूसरे पर निर्भर होते हैं। कुछ पादप या जीव भी नष्ट हो जाएं तो एक दूसरे पर पराश्रय की वह शृंखला ही टूट जाती है। यहां तो सवाल एक दो जीवों या पादपों के लुप्त होने का नहीं बल्कि जंगलों के जीवन विहीन होने का है।
भारत दुनिया के सत्रह वृहद जैव विविधता वाले राष्ट्रों में से एक गिना गया है। भारत में भी जैव विधिता के चार हॉटस्पॉट में से एक हिमालय है और उत्तराखंड उसी हिमालय की गोद में स्थित है। उत्तराखंड का दो तिहाई भूभाग वनक्षेत्र है। इसकी सत्तर प्रतिशत आबादी वनों के अंदर या वनों के नजदीक चारों ओर बसी हुई है। इसलिए उत्तराखंड में जंगल और जीवन को अलग-अलग नजरिए से नहीं देखा जा सकता। अगर जंगल कष्ट में है तो समझिये कि उत्तराखंड का जनजीवन भी कष्ट में ही होगा। हर साल वनाग्नि और वन्यजीवों द्वारा भारी संख्या में लोगों का मारा जाना उत्तराखंड के लोगों का वनों से अटूट रिश्ते का खुलासा करता है। लोगों की रक्षा के लिए सरकार कभी-कभार सामने आ भी जाती है। लेकिन इस वन प्रदेश के भरपूर वन्यजीव संसार की सुरक्षा तो केवल कानून के तालों और डंडों के सहारे चल रही है। वनों के असली रखवाले वे वनवासी गैर हो गए हैं जिनका जीवन सदियों से प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से वनों पर निर्भर रहा है।
अस्कोट कस्तूरा अभयारण्य से लेकर गोविंद राष्ट्रीय पार्क तक का यह क्षेत्र जैव विविधता की दृष्टि से बहुत संपन्न माना जाता है। यहां मृदा, ढाल, जलवायु, शैल संरचना और उपयुक्तता के अनुरूप विभिन्न प्रकार की वनस्पतियां पाई जाती है। कार्बेट टाइगर रिजर्व बाघों के घनत्व की नजर से भारत में सबसे समृद्ध माना जाता है। बाघों का सर्वाधिक घनत्व वहीं हो सकता है, जहां उनके लिए जीव-जंतुओं का पर्याप्त भोजन उपलब्ध हो। इसलिये बाघों की आबादी का घनत्व वन्यजीवों की बहुतायत का प्रतीक माना जाता है। वन्यजीवों की विविधता और बहुलता पादपों की विविधिता और बहुलता पर ही निर्भर करती है। जंतु विज्ञानियों का मानना है कि देशभर में मिलने वाली पक्षियों की 1200 में से 687 प्रजातियां यहां मिलती हैं।

