वे सोफे पर साजिश की तरह पसर गए। एक तरह से मैं साजिशन उनका संदेश लेने आया था। यह चोरी-छिपे दो व्यक्तियों की संगोष्ठी थी। वे और मैं। मैं उनकी तपस्या पर संवाद करने आया था। वे एक वरिष्ठ चोर थे। उन्हें लोग चोर साहब कहते थे। प्यार से चोसा पुकारते थे। उनका शिल्प ऐसा था कि चोरातिचोर परिषद ने उनकोे युग प्रवर्तक घोषित कर दिया था।

मैंने निवेदन किया कि चोसा, मैं आपका कुछ समय चुराना चाहता हूं। वे चहके, तो आंखें क्यों चुरा रहे हो। जो जानना चाहो, बता दूंगा। मैंने कहा चोसा, आज देश से विदेश तक आपके चौर्य के शौर्य की वंदना हो रही है। इतना बड़ा नेटवर्क आपने कैसे तैयार किया। चोसा ने पलकें बंद कर लीं। ऐसा है, मैं मजरूह सुल्तानपुरी के गीत ‘चुरा लिया है तुमने जो दिल को’ से बहुत मुतास्सिर हूं। अपना ताजा शेर उनकी याद में सुना कर बात बढ़ाऊंगा। शेर है- ‘मैं अकेला ही चला था जानिबे चोरी मगर/ लोग साथ आते गए और कारवां बनता गया।’ ठीक है प्रतिभा जन्मजात होती है। थी, मुझमें थी। मगर मुझे मेहनत करनी पड़ी। अप्प चोरो भव। अपने चोर आप बनो। बहुत संघर्ष भी किया। पुलिस और पब्लिक से। शुरू-शुरू में साथियों ने चितचोर कहा। अनुभव की कमी के कारण शुरू में लोग मुझे पकड़ लेते थे। फिर इतना पीटते थे कि मैं चित हो जाता था। तभी चितचोर कहाया।

मैंने सवाल किया, मगर चोसा आपने यही क्यों तय किया कि आपको चोर ही बनना है। वे अतीत में चले गए। ऐसा है जब मैं प्राइमरी में पढ़ता था तभी से मेरी ‘चवर्ग’ में विशेष रुचि थी। जैसे हर लेखक कविता से ही लिखना शुरू करता है वैसे ही हर चोर चप्पल चुराने से ही मां भारती का भंडार भरना शुरू करता है। मैंने भी किया। इस स्वभाव को परिवेश ने प्रोत्साहित किया। संस्कार वहीं से मिलते हैं। मेरे बाबा बात बात में एक कहावत कहते थे कि फलाने ने उसकी आंख से काजल चुरा लिया और उसे खबर तक न हुई। वे जब यह कहते थे तो मौजूद लोग फलाने की वाह वाह करते थे। मुझे अच्छा लगता था। मैं भी फलाने बनना चाहता था। जैसे प्राय: कोई कहानीकार शुरू में व्यंजना न समझ कर अभिधा में पन्ने भरता रहता है। वैसे ही मैंने कहावत को अभिधा में लेकर उपलब्ध भाभीसमूह की आंखों पर प्रयास किए। नवोदित प्रतिभा को प्रोत्साहन न देना इस समाज की पुरानी आदत है। उन मूर्खाओं ने प्रोत्साहित करने के स्थान पर मेरे शरीर के उचित स्थानों पर प्रासंगिक प्रहार किए। चोट तो लगी, मगर एक बात भी हुई। मुझे शरीर के अति उचित स्थानों का ज्ञान भी हो गया।

‘तो आपका मन नहीं किया कि यह काम छोड़ दें’, मेरी जिज्ञासा थी। वे भावुक हो गए। कई बार मन किया, मगर अपनी संस्कृति में रुचि के कारण साधनारत रहा। हमारी संस्कृति कहती है चोरैवैति चोरैवैति। तुम जो सुनते आए हो वह इसका बिगड़ा रूप है। चरैवैति। मैं राह बदल देता, तो देश की मिट्टी को क्या जवाब देता। ठीक है, मैंने पुलिस और अदालत को जवाब दिए, मगर देश के प्रति वफादार रहा।

अब मैं भावुक हो रहा था। वाह चोसा, लेकिन आपने केवल बड़ी चोरियां कीं या छोटी चोरियों को भी अवसर दिए। उन्होंने अपने कान आदर से छू लिए। अहा, याद दिला दी तुमने गुरुदेव की। वे कहते थे, जो पिंड में है वही ब्रह्मांड में है। जो गांव में है वही संसद में है। सब जगह समदृष्टि रखो। मैंने और मेरे साथियों ने यही किया। हमारे प्रयासों से ही खुदरा चोरों और बड़े चोरों को एक जैसा आदर मिल सका है।

मैं गीतादर्शन के अनुयायी को सादर देख रहा था। सवाल किया कि इस क्षेत्र की कुछ और विशेषताओं पर कहिए। चोसा कहने लगे कि इस देश-समाज की जो कुछ स्पेशल विशेषताएं हैं, वही हमारी भी हैं। अलबत्ता, भूमंडलीकरण के बाद इनमें निखार आया है। पूरी दुनिया में फिर से डंका बजा कि चोरी, घोटाला, फ्रॉड, लूट आदि में हम ही विश्व गुरु हैं। हम इतने उदार कि कोई आए हमारा भूजल चुरा ले जाए, हमारे खनिज लूट ले जाए। हम करुणा करते हैं और समभावी हैं। देशी-विदेशी सबके लिए बराबर चोरी का मौका। हम पहले आओ पहले पाओ को नहीं मानते। हमारा कहना है कि चाहे जब आओ जितना बन पड़े चुरा ले जाओ। यह मत समझो कि हमने इस कला के लिए अन्य अवसर नहीं निकाले। अवसर निकाले। हमने लाखों-करोड़ों को ज्ञान दिया। इन्हीं अवसरों का प्रताप है कि टैक्स चोरी कैसे की जाए इसके लिए लाखों जिम्मेदार नागरिक दिन-रात जूझ रहे हैं। उन विशेषज्ञों के साथ कंधे से कंधा मिला कर अगणित साहब लोग टैक्स चुरवा रहे हैं। देश कंधे से कंधा मिलाने से अधिक धंधे से धंधा मिलाने पर विकास करता है। इसे अर्थशास्त्री की दृष्टि से समझो।

इस विकास का फायदा बहुत सारे सेक्टरों को मिलता है। एक उदाहरण चुराता हूं। चुराता हूं, मतलब देता हूं। देखो, धर्म के धंधे में लगे लोगों को इसका लाभ मिलता है। तुम क्या समझ रहे हो। जो लोग किलो-किलो सोना चढ़ा रहे हैं, करोड़ों का गुप्त दान कर रहे हैं, वे सूखी सैलरी से कर रहे हैं। सैलरी वाला तो अपनी गैलरी में लटके अपने फोटो पर पांच रुपए के फूल चढ़ा दे यही बहुत है। ये करोड़ों गुप्त दान करने वाले कमाते भी गुप्त तरीकों से हैं। कहना न होगा, हमारा बाकायदा एक ‘गुप्त साम्राज्य’ है। हमारे काम को हल्के में न लो। बहुत से वकीलों ने फें्रचाइजी ले रखी है। हम उन डॉक्टरों को आदरणीय समझते हैं, जिन्होंने मरीजों के अंगों को चुरा कर मानवता को नया रास्ता दिखाया है।

दुख इस बात का है कि जैसे समाज ने अन्य बातों के लिए समानांतर शब्द ईजाद कर लिए हैं, हमारे काम के लिए नहीं किया। घूस के लिए सुविधा शुल्क, बकवास के लिए विमर्श, डकैती के लिए सियासत आदि शब्द प्रचलित हुए कि नहीं। लोग अकृतज्ञ हैं। देखो न, हमारे विशेषज्ञों ने कितने क्षेत्रों में लोगों को प्रशिक्षित किया है। बात समझना। जो शिक्षित हैं, उनको भी प्रशिक्षित किया है। हर नवोदित नेता या उदीयमान उचक्का हमसे गुर सीखता है। हमारे सिखाए हुए तो…। हमारा तो उद्घोष है- तुम हमें सत्ता दो हम तुम्हें चोर देंगे। खैर, जाने दो। तुम कहोगे कि अपने मुंह से अपनी ही तारीफ कर रहे हैं।

चोसा कुछ थक गए थे। उन्होंने आवाज दी। एक चोरकट प्रकट हुआ। चोसा ने इशारा किया। वह दलाल की तेजी से गया और कमाल की फुर्ती से वापस आया। दो गिलासों में शर्बत लेकर। मुझे दिया। चोसा को देते हुए कहा, ‘चोरी का है’। चोसा ने श्रद्धापूर्वक माथे से लगाया। मैंने पूछा, चोसा इसने यह क्यों कहा कि चोरी का है। वे मुस्कुराए। ऐसा है, मंत्र पढ़ देने से बासी बर्फी भी उत्तम प्रसाद बन जाती है, उसी तरह ‘चोरी का है’ हमारे संप्रदाय का मंत्र है। इसे कह देने से दी गई सामग्री अमृत हो जाती है। पियो।
पीते हुए मैंने कमरे के भीतर चारों ओर नजर दौड़ाई। कई आलमारियों में किताबें सजी थीं। मुझे हैरत हुई। इनको कौन पढ़ता है! चोसा मेरी भावना समझ गए। समकालीन फेसबुकिया कविताओं की तरह मुस्कुराए। बोले, मैं ही फुरसत में पढ़ता हूं। एक रहस्य की बात बताऊं। चोरी की नई-नई तरकीबें सिखाने में कुछ हिंदी फिल्मों की जितनी बड़ी भूमिका है, हिंदी कविता की कुछ पुस्तकों का योगदान उससे कम नहीं। हंस रहे हो? तुम्हें परंपरा का ही ज्ञान नहीं। ‘सुबरन को खोजत फिरत कबि ब्यभिचारी चोर’! इसमें जिन तीन क्रांतिकारियों का जिक्र है उनमें दो तो हमीं है। कवि और चोर। हममें से कई एक-दूसरे से परस्पर सीखते रहते हैं। किताबें पढ़ते हुए हमें तो गर्व होता है कि देशी और विदेशी लेखकों से कितनी आत्मीयता के साथ चोरा गया है। मैं इसे आत्मीय अपहरण कहना पसंद करूंगा। यही विश्व बंधुत्व है।

ऐसी मार्मिक बातचीत होगी, मैंने कल्पना नहीं की थी। हाथ जोड़ कर अंतिम सवाल किया कि चोसा, अब आगे क्या सोचा है। वे गंभीर हो गए। हिमालय की तलहटी में जाकर तपस्या करूंगा। मैंने कहा, आप हिमालय को राजधानी में चुरा लाइए। चोसा ने धीरे से कहा, राजधानी में पहले से बहुत-सी चीजें भरी पड़ी हैं। हिमालय रखने की जगह होती तो एक कोशिश करता भी।