जब इस गांव में निसर्ग तूफान की खबर मिली तो गांव वालों ने चक्रवात का मतलब समझने की कोशिश शुरू कर दी। कोंकण तटीय इस छोटे से गांव में, जहां मैं रह रही हूं पिछले दो महीनों से पूर्णबंदी के कारण, वहां तूफान तो बहुत आते हैं, लेकिन “साइक्लोन” बड़े-बुजुर्गों ने भी कभी नहीं देखा था पिछले हफ्ते तक। इसलिए जिनके पास इंटरनेट की सुविधा है और इन दिनों बहुत लोगों के पास है, वे लग गए सब गूगल पर चक्रवात तूफानों की खासियत खोजने में। निसर्ग के आगमन की खबर हमको उसके आने से कोई तीन दिन पहले मालूम थी, सो चक्रवात तूफानों के बारे में हमने खूब जानकारी इकट्ठा कर ली थी, लेकिन इसके बावजूद जब निसर्ग आया, उसने हमें हैरान करके छोड़ा।
जिस दिन आया, उस सुबह अजीब सन्नाटा छा गया था कुछ घंटों तक। समंदर शांत था, हवा का झोंका दूर तक नहीं सुनाई दिया, परिंदे भी जैसे मौन व्रत रखे हुए थे, सो यकीन करना मुश्किल था कि तूफान वास्तव में आने वाला है। दोपहर के बारह बजे के करीब धीमी-सी बारिश होने लगी, जिसे देख कर किसी को जरा भी घबराहट नहीं हुई, इसलिए कि बरसात का मौसम आने वाला है और इस किस्म की बारिश हर साल होती है। टीवी पर हम सब देखते रहे निसर्ग की राह और अपने आपको दिलासा देते रहे कि तूफान अपना रुख बदल कर कहीं और से गुजरने वाला है।
फिर अचानक हवा इतनी जोर से चलने लगी कि नारियल के पेड़ झूमने लगे और नारियल गिरने लगे जोरों से। मैं बरामदे से तूफान की तस्वीरें खींच रही थी अपने फोन से, जब पेड़ों के गिरने की आवाज आई। वह इतनी डरावनी थी कि मैं घर में घुस गई और अंदर ही रही, जब तक तूफान रहा। बिजली तो पहले से गांव में बंद कर दी गई थी, सो अंधेरे में सुनती रही घंटों तक तूफान का गरजना। शाम को निकली तो चारों तरफ छायी हुई थी टूटे पेड़ों और पौधों की चादर।
जब तय हुआ कि मुंबई तक निसर्ग नहीं जाने वाला है तो तूफान सुर्खियों में नहीं रहा। पहली बार किसी महानगर से दूर मैंने इतना लंबा समय बिताया है। मैं अब ग्रामीण नजरों से देखने लग गई हूं और शायद पहली बार समझ में आने लगा है मुझे कि वास्तव में ‘इंडिया’ और ‘भारत’ दो देश हैं। ऐसा यह भी लगने लगा है कि हमारे शासकों को चिंता सिर्फ ‘इंडिया’ की है और हम मीडिया वालों को भी। इसका सबसे बड़ा सबूत इस महामारी ने हमारे सामने रखा है प्रवासी मजदूरों के रूप में।
शहरों में आते हैं रोजगार कि तलाश में ये लोग, लेकिन ग्रामीण रहते हैं दिल से, सो देहातों में हमेशा होते हैं इनके घर। शहरी लोग होते अगर और उनको सैकड़ों कोस पैदल चलना पड़ता अपने घरों तक तो यकीन मानिए कि इनकी यात्राओं का हर कदम अखबारों की सुर्खियों में रहता और टीवी चर्चा का रोज विषय बनता।
प्रवासी मजदूरों के साथ संवेदना नहीं दिखाई है हम शहरी लोगों ने। सिर्फ इसलिए कि उनका दर्द, उनकी कठिनाइयां हम शहरी पत्रकार नहीं समझ सकते हैं। जब इनके हाल पर हमने ध्यान देना शुरू किया तो इनको ऐसा पेश किया हमने, जैसे शिकारी हों जो देश पर एक बोझ हैं, अपनी गरीबी के कारण। आज भी जब इन पर मेरे पत्रकार बंधु ध्यान आकर्षित करते हैं तो उनके आंसू घड़ियाली लगते हैं। असली आंसू बचा कर रखते हैं अपने जैसों के लिए। हम पत्रकार जो अपने आपको लोकतंत्र के पहरेदार मानते हैं, ऐसा बर्ताव करेंगे अगर उन लोगों के साथ, जो ‘इंडिया’ में नहीं ‘भारत’ में रहते हैं तो हमारे शासक भी ऐसा क्यों न करें!
माना कि चुनावों के समय उनको देहातों की धूल खा कर ग्रामीण लोगों के सामने वोटों की भीख मांगनी पड़ती है, लेकिन जीतने के बाद उनका पहला काम होता है अपने लिए किसी शहर में अच्छा-सा सरकारी घर ढूंढ़ना और उन लोगों को भूल जाना जिन्होंने उनको जिता कर भेजा है संसद या विधानसभाओं में। सो कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि ग्रामीण लोगों के लिए हमारे शासक रद्दी स्कूल और अस्पताल बनवाते हैं, जिनमें न असली शिक्षा मिलती है, न स्वास्थ्य सेवाएं।
पीने का पानी भी ग्रामीण भारत में मिल जाए तो गनीमत मानते हैं हम। ऐसा है क्योंकि जो ‘भारतवासी’ हैं उनको हम ‘इंडियावासियों’ से थोड़ा कम मानते हैं। समस्या यह है कि जब तक ‘भारत’ को हमारे शासक उतना ही महत्त्वपूर्ण नहीं समझने लगेंगे, जितना ‘इंडिया’ को समझते हैं तब तक इस देश में असली विकास और परिवर्तन नहीं आ सकेगा।
नरेंद्र मोदी से बहुत उम्मीद थी ग्रामीण भारत के लोगों को कि वह उनका दर्द समझ सकेंगे और उनके जीवन में असली परिवर्तन और विकास लाकर दिखाएंगे। अभी भी हैं शायद कुछ लोगों को। लेकिन अब मुझे अपने इस ग्रामीण क्षेत्र में सुनने को मिल रहा है कि लोग मायूस होने लग गए हैं। कभी वे दिन थे, जब गांववासी प्रधानमंत्री की “मन की बात” को बहुत ध्यान से सुना करते थे, अब उनको उनकी बातें खोखली लगने लगी हैं।
इस गांव में कई लोग बिहार से आते हैं जो मछुआरों के साथ काम करते हैं। इनमें से कई वापस बिहार चले गए हैं और वहां से खबर मिल रही है मुझे कि लोग नीतीश कुमार से भी बहुत मायूस हो गए हैं। इस महामारी से उन्होंने सीख यही ली है कि उनकी परवाह राजनेताओं को है ही नहीं।
इन दो महीनों में ‘इंडिया’ से दूर ‘भारत’ में रह कर मैंने अपने देश के बारे में बहुत कुछ सीखा और समझा है। बहुत कुछ जो पहले नहीं जानती थी।