चार अप्रैल 1917 की सुबह अमेरिका ने घोषणा की कि वह औपचारिक रूप से पहले विश्व युद्ध में शामिल हो रहा है। इसी दिन से इस विशाल देश का विश्व स्तर पर उदय हुआ। तारीख एक मानक के रूप में जरूरी है, वरना अमेरिका 1916 से ही विश्व युद्ध में पीछे से बड़ी भूमिका निभा रहा था। विश्व युद्ध 1914 से चल रहा था और इस लंबी लड़ाई ने ब्रिटेन को पूरी तरह से कंगाल कर दिया था। 1916 शुरू होते-होते तक ब्रिटेन और उसके सहयोगी अमेरिकी पैसे पर निर्भर हो गए थे और एक तरह से युद्ध जारी रखने का भार अमेरिका पर डाल चुके थे। अमेरिका 1917 में युद्ध में कूदा और यहीं से शुरू हुआ अमेरिका का सौ साल का सफर। दूसरे शब्दों में 1916-17 से शुरू हुई ‘‘अमेरिकन सेंचुरी’’, जिसने दुनिया के सोचने-समझने, व्यापार करने, खाने-पीने और जीवन शैली संबंधी मानकों और राजनीतिक, कूटनीतिक, आर्थिक और फौजी तौर-तरीकों को मूलभूत स्तर तक बदल कर रख दिया। शायद किसी और देश ने इतने कम समय में अपना मूर्त और अमूर्त प्रभाव इतनी गहराई से स्थापित कभी नहीं किया, जितना अमेरिका ने मात्र सौ वर्षों में किया है।

वैसे कहने के लिए हम कह सकते हैं कि अमेरिकी प्रभुत्व को सौ साल हो गए हैं, पर वास्तविक स्थिति यह है कि जिस अमेरिका से हम प्रेम या नफरत करते हैं या फिर जिसके कौशल को हम रोजमर्रा अपनी जिंदगी में देखते हैं वह उसके मात्र तीस साल, 1945-75, की देन है। 1945 से पहले अमेरिका संपन्न देश जरूर था, पर उसकी हमारे दिलो-दिमाग पर कोई छाप नहीं थी। यूरोप में ही अमेरिका और अमेरिकी होने का मतलब अभद्र होना था। वे नए-नए रईस थे, जिनका विद्या, कला-संस्कृति या रौशन-खयाली से दूर-दूर का नाता नहीं था।

पर अचानक सब कुछ बदलने लगा। देश की महत्त्वाकांक्षा को ‘लाइफ टाइम’ मैगजीन के प्रकाशक हेनरी लूस ने अपने एक लेख में कुछ इस तरह से रेखांकित किया, ‘‘हमें इस मौके को और अपनी जिम्मेदारी को पूरी तरह स्वीकार करना चाहिए कि हम विश्व के सबसे शक्तिशाली और जीवनप्रद देश हैं और इस वजह से हमें दुनिया भर में अपने प्रभुत्व का पूरा इस्तेमाल उन उद्देश्यों के लिए करना चाहिए, जिन्हें हम ठीक समझते हों और उन युक्तियों से, जिन्हें हम उपयुक्त समझते हों।’’ इस लेख ने अमेरिकी नीति को अगले दशकों के लिए दिशा और निर्देश दिए, जिसकी वजह से अमेरिका आज हमारा जाना-पहचना अमेरिका बना।

दूसरे विश्व युद्ध के बाद यूरोप खत्म हो चुका था। अमेरिका ने वहां अपनी पूंजी लगा कर भारी मुनाफा ही नहीं कमाया, बल्कि विश्व अर्थव्यवस्था में वर्चस्व भी स्थापित कर लिया। यह सौदा आपसदारी का था, पर अन्य भूखंडों जैसे लैटिन अमेरिका, अफ्रीका और दक्षिण एशिया में अमेरिका ने अपने दल-बल के प्रभाव से अपनी जगह बनाई। आर्थिक फैलाव के साथ-साथ अमेरिकी जीवन शैली का भी विस्तार इस हद तक हुआ कि अमेरिकी जीवन शैली को ही आदर्श जीवन शैली की तरह देखा जाने लगा।

सत्तर का दशक आते-आते अमेरिका अपने में एक सम्राज्य बन गया था, जो यूरोप के विश्व युद्ध से पहले सभी साम्राज्यों से कहीं ज्यादा विशाल था। हर क्षेत्र में अमेरिका ही अमेरिका था और सैनिक-आर्थिक बल के आलावा वह अपना लोहा विज्ञान से लेकर तहजीब तक में मनवा चुका था। इस सिलसिले में एक रोचक तथ्य यह है कि 1945 से पहले अमेरिकियों ने केवल उनतीस नोबेल पुरस्कार जीते थे, पर 1945 के बाद से आज तक वह 328 नोबेल जीत चुका है। सिर्फ इसी आंकड़े से यह साबित हो जाता है कि अमेरिका हर देश पर भारी पड़ता रहा है।

यहां पर मेरा यह कहने का मतलब नहीं है कि अमेरिका को कोई चुनौती नहीं थी। रूस एक बड़ी चुनौती था- विचारधारा से लेकर आर्थिक-सामाजिक प्रक्रिया तक रूस ने अपना मॉडल चलाया, पर 1980 के अंत तक वह भी ध्वस्त हो गया। एकछत्र राज के जमते ही अमेरिका को इस बात का भरोसा हो गया कि उसको अपना तरीका अपनाने का पूरा लाइसेंस मिल गया है। उसने लोकतंत्र के मंत्र को सत्ता परिवर्तन के रामबाण की तरह उपयोग करना शुरू कर दिया।

इस नीति के परिणाम अब हमारे सामने पूरी तरह से उपस्थित हैं। अफ्रीका हो या अरब देश या फिर पाकिस्तान-अफगानिस्तान, खूनी संघर्ष अपने पूरे जुनून पर है। हर जगह कारण आर्थिक या राजनीतिक हो सकते हैं, पर उनका परिणाम सिर्फ एक है और अमेरिका अपने प्रभुत्व के नौवें दशक में उन सब सिद्धांतों से पीछे हटने पर मजबूर हो रहा है, जिन पर उसको बड़ा गर्व था- व्यक्तिगत अचार-विचार की स्वतंत्रता, पूंजीवाद, उपभोक्तावाद, मानवाधिकार और लोकतंत्र। वास्तव में पिछले बीस वर्षों में ये सभी अपनी मौलिकता खो बैठे हैं। अमेरिका में ही पूंजीवाद का बड़ा विरोध है, व्यक्तिगत स्वतंत्रता घटी है, मानवाधिकार का कोई पुरसा-हाल लेने वाला नहीं बचा है और राष्ट्रपति चुनाव के उम्मीदवार बर्नी सैंडर्स को यह कहना पड़ा है कि हमारे पूर्वजों ने लोकतंत्र इसलिए नहीं खड़ा किया था कि वह अमीरजादों की दासी बन कर रह जाए।

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी चीन का आर्थिक और सैनिक बल अमेरिका के लिए बड़ी चुनौती बन चुका है और मध्यपूर्व-एशिया में हस्तक्षेप के कारण धार्मिक संघर्ष व्याप्त है। वास्तव में सौवें साल से पहले ही अमेरिका के पैरों तले की जमीन खिसक गई थी और अपने सौवें साल में वह अपनी बनाई हुई दलदल में फंसा खड़ा है। द ग्रेट अमेरिकन ड्रीम सिर्फ दिवास्वप्न में तब्दील हो गया है।

क्या आने वाले समय में अमेरिका की कोई प्रभावशाली प्रासंगिकता होगी? शायद नहीं। चीन अपना मंच बना चुका है। भारत अपनी तरह से अपना किरदार उभार रहा है। रूस फिर से ताल ठोंक रहा है और जर्मनी उद्योग का केंद्र बन गया है। इन्हें अमेरिका की कोई ऐसी जरूरत नहीं है कि वे उसके सद्भाव के लिए उसके इशारों पर चलें। इसके विपरीत अमेरिका को इन सबके सद्भाव की जरूरत है, अगर वह अपनी तरक्की को कायम रखना चाहता है। वास्तव में महज सौ सालों में पासा पलट गया है। 1916 में अमेरिका को छोड़ कर सारे देश दिक्कत में थे। 2016 में अमेरिका खुद दिक्कत में है। उसे अपने को पुन: परिभाषित करना पड़ेगा और इस परिभाषा की डगर पनघट की डगर से कहीं ज्यादा मुश्किल होगी।