पिछले सात-आठ दशक का अनुभव है कि किसी भी समस्या का समाधान घृणा, अविश्वास, और स्वयं की श्रेष्ठता के छलावे से नहीं हो सकता। इसे समझना इस पर निर्भर करता है कि किसी समाज को कैसे शिक्षित-प्रशिक्षित किया गया है। देश में भी ऐसे लोगों की संख्या कम नहीं है, जो मौजूदा समय में राष्ट्रीय नेतृत्व के प्रयास से हतप्रभ न हों। कुछ सराहनीय और भी हुआ है, जैसा जनतंत्र में लगभग आवश्यक है, सभी विपक्षी दलों ने पहलगाम का उत्तर देने में सरकार का साथ दिया।

अनेक अवसरों पर अनियंत्रित लोकतांत्रिक अभिलाषाएं व्यक्ति को व्यग्र बना देती हैं, ऐसे अवसरों पर उनको यह समझाना आसान नहीं है कि उनकी शाब्दिक उग्रता और बौद्धिक गतिशीलता की कमी उनको बेचैन बना चुकी है, और यही आगे भी किसी की भी सबसे बड़ी बाधा बनी रहेगी। लोकतंत्र में पक्ष और विपक्ष दोनों ही उसके पाये हैं। इनकी दृढ़ता देश की धरोहर है। इसे कैसे संवारे और संजोए रखा जाए, यह देश के संपूर्ण लोकतंत्र के समक्ष यक्ष प्रश्न है। वर्तमान स्थिति को समझने में महाभारत का संबंधित प्रसंग अत्यंत सटीक लगता है।

स्वयं के अनियंत्रित द्यूत-प्रेम के कारण वनवास में रह रहे पांडवों के बड़े भाई युधिष्ठिर के लिए जल लाने गए चारों भाई जलाशय के अधिष्ठाता यक्ष के प्रश्नों का उत्तर दिए बिना ही प्यास बुझाने की आतुरता में पानी पीने लगे, और मारे गए। अंतत: युधिष्ठिर स्वयं आए, सारा दृश्य देख कर हतप्रभ रह गए, मगर अत्यंत दुखी और प्यासे होने के बावजूद वे स्थिति का विश्लेषण करने से चूके नहीं। उन्होंने यक्ष के प्रश्नों के सटीक, बुद्धिमत्तापूर्ण उत्तर दिए।

बुद्धि और स्थिति-विश्लेषण के कारण स्थिति उनके पक्ष में आ गई। भारत ने भी संयम नहीं खोया, विचारशीलता पर कोई आवरण नहीं आने दिया, जो अनेक लोग घृणा और अविश्वास के रूप में देश पर थोपना चाहते थे। वे यह कैसे भूल जाते हैं कि भारत का बंटवारा पांथिक दुर्भावना फैलाकर ही किया गया था और उसे पुन: जागृत करने के प्रयास अभी जारी हैं। द्विराष्ट्र सिद्धांत भी स्वार्थवश ही निर्मित किया गया और सामान्य व्यक्ति को उसके जाल में डाला गया।

इक्कीसवीं सदी के पच्चीसवें वर्ष में भी पाकिस्तान का कोई सेनाध्यक्ष यह प्रचारित करने का दुस्साहस करे कि हिंदू और मुसलमान दो अलग राष्ट्र हैं, और साथ रह ही नहीं सकते, तो यह अनुमान लगाना कठिन होगा कि ऐसा व्यक्ति- और वैसा सोचने वाले सभी अन्य- किस प्रकार के विश्व में रहना चाहते हैं। उनकी भावी पीढ़ियों को आगे क्या मिलेगा?

घृणा को समाप्त करना आसान नहीं होता है। फिर अगर वह संचार माध्यमों तथा सरकारों द्वारा लगातार प्रोत्साहित किया जाए, तो स्थिति भयानक ही होती जाएगी। लगभग चालीस वर्ष पहले यूनेस्को के विशेषज्ञ के रूप में लगभग तीन हफ्ते लाहौर और इस्लामाबाद में रहते हुए ऐसा लगा ही नहीं कि मैं विदेश में हूं। लेकिन यह अंतर्निहित धारा लगातार और हर स्तर पर मौजूद लगी कि भारत में मुसलमानों के संबंध में जो कुछ सरकारी तौर पर प्रसारित किया जाता था, वह केवल भारत के बहुसंख्यकों द्वारा अल्पसंख्यकों के प्रति अत्याचार के इर्द-गिर्द ही घूमता रहता था।

यहां इतना कहना ही पर्याप्त होगा कि पाकिस्तान में भारत के बहुसंख्यक समाज के प्रति हर प्रकार की दुर्भावना हर बच्चे के मन-मस्तिष्क में प्रारंभ से ही- यानी घुट्टी में पिलाई जाती रही है। यही आगे चलकर आतंकवाद के प्रशिक्षण शिविरों और विश्वविद्यालयों तक योजनाबद्ध तरीके से स्थापित की गई है। ऐसे कुछ संस्थान नष्ट हो जाएं या बंद हो जाएं, तो भी इस सोच पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। याद तो चाणक्य को करना पड़ेगा, जिसने कांटा लगाने वाले पौधों की जड़ों में मट्ठा डालकर उनको सदा के लिए समाप्त कर दिया था।

यह प्रतीकात्मक उदाहरण ही है, लेकिन असीम इच्छाशक्ति की आवश्यकता को उजागर करता है। मानवीय स्तर पर भी पंथिक घृणा को कमतर करने के लिए अनेक तरीके हैं, मगर उन पर न चर्चा होती है, न शायद घृणा पर पलने वाले लोग उसमें रुचि लेने को तैयार हैं! पहलगाम जैसी अमानुषिकता का त्वरित उत्तर आवश्यक है, लेकिन दीर्घकालीन रणनीति बनाना उससे भी अधिक आवश्यक होगा।

इसके लिए उस मानसिकता को गहराई से समझना होगा, जो अपने हर राक्षसी कृत्य को धर्म, पंथ, ईश्वर और स्वर्ग में उपलब्ध अनन्य वैभवों का लालच दिखा कर बच्चों और किशोरों को आत्मोत्सर्ग के लिए तैयार करती है। सारे विश्व को समाधान ढूंढ़ना चाहिए कि बच्चों का ऐसा दुरुपयोग कोई न कर सके। अन्य की क्या कहें, भारत ने भी अपने सारे स्कूलों- सामान्य और और स्व-नियंत्रित- में जो पढ़ाया जा रहा है- का इस दृष्टिकोण से गहन विवेचन नहीं किया।

व्यक्ति का ही नहीं, समाज और राष्ट्र तथा विश्व का भविष्य प्रारंभिक स्कूलों से ही बनना प्रारंभ होता है। वही कार्यकारी पीढ़ी भविष्य के साथ न्याय करती मानी जाएगी, जो सबसे अधिक ध्यान तथा आवश्यक निवेश अपने बच्चों के व्यक्तित्व सुधारने में लगाती है।

जो लोग विश्व-शांति के साकार होने की कल्पना करते हैं, वे यह भी जानते हैं कि ऐसा ज्ञान/बुद्धि/ विवेक के सार्वभौमिक समन्वय से ही संभव होगा। इसका आधार बच्चों के ‘बड़े’ होने के आधार की वैश्विक समझ से ही निकलेगा। इस संभावना और संबंधित सुझाव का बड़ा विरोध होगा, विशेषकर उन लोगों द्वारा, जो नैतिकता तथा मानव-ईश्वर संबंधों के ठेकेदार बने बैठे हैं। विरोध कितना ही बड़ा क्यों हो, उसे उखाड़ने का प्रयास सदा सफल होगा, क्योंकि जीत कभी भी घृणा की नहीं होती है, सच की ही होती है। यही यक्ष प्रश्न है, यही उत्तर है।