वित्त मंत्रालय हर महीने एक आर्थिक समीक्षा प्रकाशित करता है। इस बार वित्त मंत्रालय ने छह युवा और उत्साही अर्थशास्त्रियों के एक समूह को इस समीक्षा के लिए एक निबंध लिखने को कहा। मगर मैंने कभी सोचा नहीं था कि वे जानबूझ कर ‘बेरोजगारी’ के साथ-साथ ‘कुपोषण’, ‘भूख’ और ‘गरीबी’ जैसे शब्दों के प्रयोग से भी बचेंगे। (समझ नहीं पाया कि क्या यह उनके कानों में फुसफुसाया गया था कि प्रधानमंत्री यह लेख पढ़ सकते हैं) अर्थशास्त्रियों का समूह इस बात को जानता है, लेकिन स्वीकार नहीं करेगा, कि बेरोजगारी, कुपोषण, भूख और गरीबी की अनदेखी विद्वानों के कर्तव्य की गंभीर अवहेलना है।
समीक्षा क्यों?
मासिक आर्थिक समीक्षा एक महत्त्वपूर्ण दस्तावेज होता है। मुझे उम्मीद थी कि 2022 सितंबर की समीक्षा (22 अक्तूबर, 2022 को जारी) वर्तमान स्थितियों, अर्थव्यवस्था की ताकत और कमजोरियों का एक वस्तुनिष्ठ मध्यवर्षीय लेखा-जोखा प्रस्तुत करेगी। उससे पता चल सकेगा कि अगले छह से बारह महीनों में अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में क्या संभावनाएं हैं और फिर उन तत्त्वों की पहचान हो सकेगी कि अर्थव्यवस्था को किन मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है। उससे यह भी पता चल सकेगा कि विश्व अर्थव्यवस्था की क्या प्रवृत्तियां हैं और उनका हमारी घरेलू अर्थव्यवस्था पर क्या प्रभाव पड़ सकते हैं।
मगर सितंबर माह की समीक्षा एक बहुत ही पतला-सा दस्तावेज है- कुल तैंतीस पृष्ठों का, जिसमें डेटा के रूप में तीन पृष्ठ ग्राफ और चार्ट के साथ बिंदुवार तथ्य हैं। पाठ छह खंडों में विभाजित है और निष्कर्ष और विहंगावलोकन के साथ हस्ताक्षरित होकर समाप्त होता है। इसके कुछ अनुभाग सरकार की चिंताओं को प्रकट करते हैं। मसलन, 1- राजकोषीय स्थिति, 2- उद्योग, 3- सेवाएं, 4- ऋण मांग, 5- मुद्रास्फीति और 6- बाहरी क्षेत्र। इससे यही निष्कर्ष निकलता है कि बेरोजगारी, कुपोषण, भूख और गरीबी सरकार की चिंताओं में शामिल नहीं हैं।
अपनी पीठ थपथपाना
रिपोर्ट का लहजा खुद अपनी पीठ थपथपाने वाला है। इसके अंतिम वाक्य से इसके मुख्य स्वर और दृष्टिकोण का अंदाजा लगाया जा सकता है: ‘‘जैसा कि क्रिकेट के खेल में होता है, जब बाल स्विंग कर रही हो, तो उसे खेलने के बजाय छोड़ देना भी उतना ही महत्त्वपूर्ण माना जाता है (नीतिगत त्रुटियों से बचा जाता है) जितना अच्छी गेंदों को अच्छी तरह से खेलना (नीतिगत निर्णय लिए जाते हैं)।’’ इसमें लेखकों ने जिन बिंदुओं का उल्लेख करना छोड़ दिया है, वे हैं- डाट बाल (बाहरी खतरों से अनजान) और वे गेंदें जो विकेट ले चुकी हों (रुपए का मूल्यह्रास)।
हर निष्कर्ष का उद्देश्य पाठक को उसकी वास्तविक स्थिति से परे हटाना है। समीक्षा के अनुसार- राजस्व में उछाल है, पूंजीगत व्यय बढ़ रहा है, व्यय की गुणवत्ता में सुधार हुआ है और अगस्त तक वित्तीय स्थिति सेहतमंद थी। एक गंभीर स्वीकारोक्ति है कि सरकारी उधारी से सार्वजनिक ऋण में वृद्धि हो सकती है। उद्योग के संबंध में, समीक्षा कई सूचकांकों का हवाला देती है। मसलन, पीएमआइ मैन्युफैक्चरिंग, एसएंडपी जीएससीआइई औद्योगिक मेटल्स सूचकांक, व्यापार मूल्यांकन सूचकांक तथा औद्योगिक उत्पादन सूचकांक। और निष्कर्ष निकाला गया है कि समग्र व्यावसायिक रुझान में सुधार हुआ है।
यह समीक्षा बताती है कि सेवा क्षेत्र, अंतर-राज्यीय व्यापार, पर्यटन, होटल उद्योग, हवाई यातायात, परिवहन और रियल एस्टेट में उत्साहजनक रुझान हैं। फिर भविष्यवाणी की गई है कि ये क्षेत्र प्रमुख विकास चालक के रूप में उभरने की ओर अग्रसर हैं। ऋण की मांग अच्छी गति से बढ़ रही है (16.4 प्रतिशत), मगर सख्त मौद्रिक नीति और धीमी आर्थिक वृद्धि इसमें अवरोध पैदा कर सकती है। मगर मुद्रास्फीति को लेकर समीक्षा में अपने प्रकट पूर्वाग्रह छिपा लिए गए हैं। इसके लिए ‘भू-राजनीतिक विकास’ पर दोष डाल कर सरकार को किसी भी जिम्मेदारी से मुक्त कर दिया गया है।
बाहरी क्षेत्र को लेकर इस समीक्षा में अपनी पीठ भी थपथपाई (‘स्थिर निर्यात’) गई है और असहायता (‘निरंतर आयात’) भी प्रकट की गई है। इसमें कहा गया है कि ‘सीएडी का बढ़ना बंद होना चाहिए’ और इसे जीडीपी के तीन प्रतिशत पर रोक दिया जाना चाहिए- अनुमान लगाए जाते रहे हैं कि सीएडी 3.4 प्रतिशत तक बढ़ सकता है।
तेज हवाएं
समीक्षा के पक्षपातपूर्ण और अपनी पीठ थपथपाने वाला होने के बावजूद उसे माफ किया जा सकता है, क्योंकि यह दस्तावेज कुछ ही हफ्तों में इतिहास बन जाएगा। परेशान करने वाली बात यह है कि इसमें लाखों लोगों से जुड़े मामलों की कठोर अवहेलना की गई है। ऋषि सुनक ने ब्रिटेन के प्रधानमंत्री का पद ग्रहण करने के साथ ही ‘गंभीर आर्थिक संकट’ की चेतावनी दी। यहां तक कि चीन के निरंकुश माने जाने वाले राष्ट्रपति शी जिंगपिंग ने भी बड़ी सावधानी से चीन की अर्थव्यवस्था को ‘लचीला’ बताया।
यूएनडीपी और आक्सफोर्ड एचडीआइ ने 17 अक्तूबर, 2022 को जारी एक रिपोर्ट में अनुमान लगाया है कि 2020 में भारत में 22.8 करोड़ लोग ‘गरीब’ थे (महामारी के वर्षों में स्थिति खराब होती गई)। वैश्विक भूख सूचकांक में 121 देशों में भारत का स्थान 107 है, जो कि पिछले आठ वर्षों में लगातार नीचे गया है। कुल भारतीयों में से 16.3 प्रतिशत कुपोषित हैं, जिसका अर्थ है कि उन्हें पर्याप्त भोजन नहीं मिलता। 19.3 प्रतिशत बच्चे दुर्बल और 35.5 प्रतिशत अविकसित हैं।
बेरोजगारी दर 8.02 प्रतिशत है। हाल ही में, उत्तर प्रदेश में सैंतीस लाख उम्मीदवारों ने कुछ हजार ग्रेड ‘सी’ राज्य सरकार की नौकरियों के लिए आयोजित प्रतियोगी परीक्षा के केंद्रों तक पहुंचने के लिए बसों और ट्रेनों में ठूंसमठूंस मचाई, जो सिर्फ एक राज्य में स्रातक युवाओं के बीच बेरोजगारी की सीमा को दर्शाता है।
गरीबों के लिए एकमात्र सुरक्षा संजाल (मनरेगा), 2020-21 में रोजगार चाहने वाले चालीस प्रतिशत परिवारों को एक दिन का भी काम नहीं दे सका। मगर आर्थिक समीक्षा बेरोजगारी, कुपोषण, भूख और गरीबी के मुद्दों पर सहानुभूति तक प्रकट नहीं करती। न ही यह वैश्विक मंदी, वि-वैश्वीकरण, संरक्षणवाद, उच्च ब्याज दरों, मुद्रास्फीति और मुद्रा मूल्यह्रास जैसी विपरीत परिस्थितियों को स्वीकार करती है।
पिछले शनिवार (22 अक्तूबर) को वित्त मंत्रालय ने आर्थिक स्थिति पर चेतावनी देते हुए कहा कि ‘यह उत्सव और शालीनता का समय नहीं है’, मगर आर्थिक समीक्षा ने इसके विपरीत विचार प्रस्तुत किए। आश्चर्य है कि 22 अक्तूबर की सुबह और शाम के बीच क्या बदल गया?