जब रविवार को आप यह लेख पढ़ रहे होंगे, तब यह साफ हो जाएगा कि कोरोना वायरस (कोविड 19) के खिलाफ जंग में भारत आगे है या पीछे। सरकार वीडियो कांफ्रेंस, प्रभावित देशों से भारतीयों को लाने और हाथ धोने, मुंह-नाक को ढंक कर रखने और मास्क पहनने के परामर्श जारी करने में व्यस्त है। 19 मार्च को प्रधानमंत्री ने लोगों से अपील की। ये सब जरूरी तो थे, लेकिन क्या ये पर्याप्त थे?

मैंने एक आंकड़े पर सावधानीपूर्वक गौर किया, जिसे सरकार ने जारी किया है और यह आंकड़ा उन लोगों का है, जिनमें कोविड 19 की पुष्टि हुई है। रविवार एक मार्च को यह दो था, आठ मार्च को बढ़ कर यह बत्तीस हो गया, इसके बाद तेजी से बढ़ता हुआ 15 मार्च को एक सौ ग्यारह तक पहुंच गया। बीस मार्च को जब मैं यह लेख लिख रहा हूं, उस वक्त यह संख्या दो सौ तेईस है। जिस तेजी से लोगों में इसके संक्रमण की पुष्टि हो रही है, वह खतरनाक है।

संकोच क्यों?
विश्व स्वास्थ्य संगठन, इंडियन काउंसिल आफ मेडिकल रिसर्च और कई महामारी विशेषज्ञ पर्याप्त चेतावनियां दे चुके थे और दे रहे हैं। सारी चेतावनियों का इशारा एक और सिर्फ एक ही नतीजे की ओर रहा कि अगर हमने कठोर, तकलीफदेह और अलोकप्रिय कदम नहीं उठाए तो संक्रमित लोगों की संख्या नाटकीय रूप से बढ़ जाएगी।
मेरा फर्ज है प्रधानमंत्री का समर्थन करना और मैं ऐसा करूंगा। असल में, उन्होंने लोगों से दुश्मन का मुकाबला नैतिक हथियारों से करने को कहा है। मुझे इस बात का डर है कि वायरस क्लेमेंट एटली की तरह उच्च आदर्श मूल्यों से परिपूर्ण नहीं होता है। मुझे पक्के तौर पर यकीन है कि अगले कुछ दिनों में प्रधानमंत्री कड़े सामाजिक और आर्थिक प्रतिबंधों के साथ वापसी करने को बाध्य होंगे।

मैं सभी शहरों और कस्बों में दो से चार हफ्ते तक के लिए अस्थायी रूप से लॉक डाउन (संपूर्ण बंद) का आग्रह करता हूं। कोविड का अर्थव्यवस्था पर जो असर पड़ेगा, वह भी उतनी ही गंभीर चिंता का विषय है। प्रधानमंत्री ने कहा है कि अर्थव्यवस्था में मौजूदा गिरावट कोविड की वजह आई है, जो कि सही नहीं है। जीडीपी की वृद्धि दर में गिरावट कोविड के पहले से ही शुरू हो गई थी। पिछली लगातार सात तिमाहियों में वृद्धि दर नीचे आई है। जनवरी-मार्च के आंकड़े निश्चित रूप से वृद्धि का संकेत नहीं देते। सामान्य समझ यह कहती है कि जनवरी-मार्च की तिमाही की हालत बदतर नहीं हुई तो वैसी ही खराब रहेगी, जैसी स्थिति पिछली तिमाही की थी।

आसन्न संकट
इसलिए यह मानना जायज है कि कारोबार प्रभावित होंगे। बड़ी फैक्ट्रियों में काम के दिन घटा कर तीन से चार प्रति हफ्ते कर दिए गए हैं। कच्ची और अस्थायी नौकरियां खत्म कर दी गई हैं, अगर अभी तक ऐसा नहीं किया गया है तो अब कर दिया जाएगा। बड़े निर्माताओं ने मांग एकदम से घटा दी है। जो छोटे उत्पादक हैं, वे भारी नगदी संकट का सामना कर रहे हैं। कच्चे माल की आपूर्ति करने वालों पर बुरा असर पड़ा है। कर्ज नहीं मिल रहे हैं। ये सब अर्थव्यवस्था में तेज गिरावट के नतीजे हैं। मैंने सरकार पर गिरावट रोकने के लिए नीतियां बनाने और उचित कदम उठा पाने में नाकाम रहने का आरोप लगाया था। वह आलोचना अभी भी सही है। हालांकि कोरोना वायरस संकट के लिए सरकार को दोषी नहीं ठहराया जा सकता।

फिर भी, कोरोनावायरस की वजह से अर्थव्यवस्था में गिरावट को संभाल नहीं पाने के लिए सरकार जिम्मेदार है। इसकी पहली जिम्मेदारी रोजगार और वेतन-मजदूरी को बचाना है। सरकार को ऐसे क्षेत्रों की तत्काल पहचान करनी चाहिए, जहां नौकरियां खतरे में हैं और यह सुनिश्चित करने के लिए कदम उठाने चाहिए कि मौजूदा नौकरियां और वेतन पूर्वस्तर पर कायम रहें। ये कदम सभी पंजीकृत नियोक्ताओं पर लागू किए जाने चाहिए। नियोक्ताओं को इसकी भरपाई कर उधारी, ब्याज स्थगन या सीधे अनुदान देकर की जानी चाहिए।

अगले स्तर पर औपचारिक क्षेत्र आता है- जिसमें परिवहन, पर्यटन रखरखाव और मरम्मत, होम डिलीवरी आदि जैसी ‘निर्माण’ और ‘सेवाओं’ से जुड़ी करोड़ों नौकरियां हैं। कम ब्याज दर, कर उधारी और खरीद बढ़ा कर (जैसे और ज्यादा कम आयवर्ग वाले आवास निर्माण के ठेके) सरकार इनकी मदद कर सकती है।

इसके बाद कृषि है। सौभाग्य से, किसान जुताई, बुआई, सिंचाई, खाद देने और फसल काटने का काम करते रहेंगे। पीएम-किसान का दायरा सिर्फ भू-स्वामी किसानों (जिनमें वे भू-स्वामी भी शामिल हैं जिन्होंने अपनी खेती बंटाई पर दे रखी है) तक सीमित है, लेकिन यहीं से शुरुआत करनी होगी। पीएम-किसान के तहत हस्तांतरित की जाने वाली रकम दोगुनी कर बारह हजार की जानी चाहिए और 2019-20 के लिए बकाया रकम का शीघ्र भुगतान किया जाना चाहिए। बंटाईदारी में लगे किसानों का ब्योरा राज्य सरकारों के पास है और उन्हें भी इस योजना के तहत लाया जाना चाहिए और प्रति परिवार बारह हजार रुपए दिए जाने चाहिए। एक बार जब इन किसानों को यह भुगतान कर दिया जाएगा, तो बड़ी संख्या में खेतिहर मजदूरों को आंशिक रूप से बचा लिया जाएगा।

कामकाजी आबादी में गैर-कृषि कामों में लगे मजदूर सबसे ज्यादा असुरक्षित हैं। हर ब्लॉक में एक रजिस्टर शुरू किया जाना चाहिए और रोजाना काम करने वाले मजदूरों को मासिक भत्ता दिया जाना चाहिए। कांग्रेस के घोषणापत्र में न्याय नाम की इस योजना में यह बात कही गई है। भत्ता तीन से छह महीने तक देने की जरूरत पड़ सकती है, लेकिन यह एक बोझ है जिसे देश को खुशी से उठाना चाहिए।

आर्थिक मजबूरी
इन सबके लिए निश्चित रूप से भारी-भरकम रकम की जरूरत पड़ेगी। यह रकम जुटाई जा सकती है, अगर केंद्र और राज्य सरकारें
(1) फिजूलखर्ची पर बेरहमी से लगाम लगाएं, और
(2) सभी भव्य आयोजनों को कुछ समय के लिए टाल दें और लंबी अवधि की उन परियोजनाओं को जो प्रति एक करोड़ रुपए में मामूली संख्या में रोजगार पैदा करती हैं, उन्हें रोक दें।
आरबीआइ को भी आगे आना चाहिए और तेजी से ब्याज दरें घटानी चाहिए। वित्तीय स्थिरता आरबीआइ का वैसा ही मुख्य मकसद है जैसे महंगाई को काबू रखना।
कितने पैसे की जरूरत होगी, इसका अभी कोई अनुमान नहीं है। बजट के अनुसार, 2020-21 में सरकार का कुल खर्च 30,42,230 करोड़ रुपए होगा। सारी राज्य सरकारों का कुल मिलाकर खर्च 40 से 45 लाख करोड़ रुपए होगा। इतने भारी-भरकम खर्च को देखते हुए, अगले छह महीनों में कोविड 19 से निपटने के लिए करीब पांच लाख करोड़ रुपए निकाल पाना संभव है। यह एक नैतिक और आर्थिक मजबूरी है और हमें पैसे का इंतजाम कर खर्च करना चाहिए।