महीनों से खाली हूं। उस तसले की तरह, जिसमें किसी और की दीवार चुनवाने के लिए गारा भरा जाता था। वैसे मेरे जैसे तसले के बिना काम करना असंभव तो नहीं है, पर मुश्किल जरूर है। तसला वह सस्ता, पर उपयोगी साधन है, जिसके जरिए ठेकेदार मजदूरों से गारे के अलावा गिट्टी और मिट्टी भी ढुलवा लेता है। छोटे कामों के लिए तसला उपयुक्त है। बड़े कामों के लिए कई और मशीनी तरीके हैं।
कुछ समय पहले यह तसला दिन भर काम में लगा रहता था। बार-बार भरना, इस भरन को कुछ देर के लिए सहेज के रखना और फिर निष्काम भाव से भरन को त्याग देना उसका काम था। उसको उठाने और गंतव्य तक ले जाने की मेहनत कोई और करता था, पर तसला अपनी भूमिका से संतुष्ट था। दिन भर और सालोंसाल वह भरने और खाली होने में व्यस्त था।
उसको इससे मतलब नहीं था कि चुनवाने का काम खत्म होते ही शाम को उसे बजरी पर पटक दिया जाता था, जिस वजह से कई जगह से वह कट-पिट गया था। कहीं-कही पटकने से टूट भी गया था। पर इन सब चोटों की उसे परवाह नहीं थी। व्यस्त रहना सबसे ज्यादा जरूरी था। तसले के जीवन का मकसद व्यस्तता थी और इसीलिए वह उस गारे और ठेकेदार का मुरीद था, जो उसे रोज भरते और खाली करते रहते थे।
साल भर से यह तसला बजरी पर पड़ा है। वह खाली है। पूरी तरह से बेकार है। उसकी उपयोगिता खत्म हो चुकी है। उसमें जंग लगने लगा है। जंग खाकर टूट जाना उसको अखर रहा है- काम करते हुए टूट जाना दीगर बात है। तसले का दर्द मैं समझ सकता हूं, क्योंकि मैं भी तसला हूं। बजरी पर पड़ा हुआ खाली तसला।
कई महीने पहले जब अचानक मैं खाली हो गया था, तो अपने खालीपन की वजह से हड़बड़ा गया था। मैं ही घर नहीं बैठ गया था, बल्कि जैसे पूरी कायनात ठहर गई थी। यकायक हर तरफ चुप्पी ऐसे फैल गई थी, जैसे एक पल में पहाड़ों पर कोहरा फैल जाता है। फावड़ा चलना बंद हो गया था और मैं गाराविहीन हो गया था। खालीपन से मैं तड़प उठा था।
और लोग भी इस मर्ज से जूझ रहे थे और तरह-तरह के मलहम लगा कर खालीपन का दर्द कम कर रहे थे। इन सब उपायों में कारगर उपाय वर्चुअल हो जाने का था, यानी गारा हो या न हो, भरे और खाली हो जाने के आभास को कायम रखना था। वेबिनार के सेमिनार और फेसबुक पर गहमागहमी ठीक उसी तरह से होने लगी थी जैसे शहर की सड़कों पर पागलों की तरह ट्रैफिक दौड़ता था। तसले इधर का सामान उठा कर उधर फिर डालने लगे थे- असली नहीं तो वर्चुअल व्यस्तता आम हो गई थी।
पर इससे अलग एक और काम आ गया था- खालीपन से खेलने का। यह अपने में एक सार्थक काम था। यह न तो वर्चुअल था और न रियल। दोनों का अनूठा मिश्रण था। खाली होने का अमूमन मतलब यह होता है कि व्यक्ति के पास कोई फिजिकल या शारीरिक काम नहीं है। वह हाथ-पैर नहीं चला रहा है। इस शारीरिक विश्राम को खाली होना कहा जाता है। अगर कोई चुपचाप बैठा हुआ है तो हम पूछ लेते हैं कि खाली क्यों बैठे हो?
निरंतर शरीर को चलाना ही शायद मानव मात्र का विशिष्ट काम है। ठहर जाने की कोई उपयोगिता नहीं है। मगर ऐसा नहीं है। मुझे खालीपन की उपयोगिता और सार्थकता का अनुभव तब हुआ जब मुझे जबरन ठहरा दिया गया था। घर में अकेले बैठ कर पहले तो भविष्य की चिंता ने सताया था, पर फिर मजबूरन मैं अपने में भी खो गया था। मैं जब हाथ पर हाथ रख कर बैठा था तो बाकी का अस्तित्व सक्रिय हो गया था। भविष्य वर्तमान हो गया था। जो कुछ था वह उस क्षण में आया खयाल था, जिसकी सार्थकता आभासी होते हुए भी वास्तविक थी।
वह तसला, जो अभी तक सपाट और उथला दिख रहा था, कुएं जैसा गहरा और क्षितिज जैसा फैलाव वाला हो गया था। और आश्चर्य की बात यह थी कि हर पल वह लबालब भरा हुआ था, कभी खाली नहीं रहता था। अपने गारे की खुद मजदूरी करके मैं अपनी निजी संरचना का निर्माण करने लगा था। अपने तसले को पलटने की जरूरत नहीं थी, मुझे सिर्फ उसमें खयाल भरते जाना था। बैठे-बैठे मेरे सामने एक नई इमारत तैयार हो गई थी।
खालीपन बहुत सारी व्यस्तता अपने साथ लाता है। वैसे इनको व्यस्तता कहना गलत होगा, क्योंकि वास्तविक व्यस्तता के विपरीत इसमें जरा-सा भी वक्त बेकार नहीं जाता है। आम जिंदगी में इधर-उधर जाने और फालतू बातचीत में बहुत वक्त जाया होता है। पर जब हम खाली बैठे होते हैं तो यह वक्त बच जाता है और पूरी तरह से खयालों को संवारने के लिए मिल जाता है।
खयाल हमारे छोटे-छोटे सत्यों को, जो कहीं दबे पड़े हुए थे, खोज लाते हैं और उनको स्वीकार करने का हमें मौका देते हैं। खालीपन का एहसास वास्तव में हमें अपने साथ व्यस्त कर देता है। एक क्षण दूसरे में गुंथता चला जाता है और इस शृंखला की डोर हम खुद बन जाते हैं। रोजमर्रा की व्यस्तता में यह सिलसिला संभव नहीं हैं। हम अपने बारे में सोच नहीं पाते हैं। खाली व्यक्ति सिर्फ अपने बारे में सोचता है और फिर अपने संदर्भ में ही दूसरों के बारे में।
मैं नहीं जानता, खालीपन औरों को उतना ही भाता है जितना मुझको भाता है। उन लोगों को शायद बिल्कुल नहीं भाता होगा, जो अपने से दूरी बनाए रखते हैं। बंदी के वक्त में उनके व्यस्त रहने की व्याकुलता यह बताती है कि उनको अपने से नजदीकी पसंद है। खालीपन से इसीलिए वे घबराते हैं। दूसरों से मधुर संबंध और हर एक से संबंध उनके लिए जरूरी है, पर अपने से अपनापन उनको अखरता है। वे खाली नहीं रहना चाहते, क्योंकि खालीपन उनको आईना दिखाता है।
खालीपन की अब मुझे आदत पड़ गई है। जिंदगी चलाने के लिए ठेकेदार का मुरीद होना मेरे लिए एक मजबूरी जरूर है, पर इस तसले को अपने खालीपन की सार्थकता भी समझ में आ गई है। मैं समझ गया हूं कि यह एक ऐसी जीवन शैली है, जो गारे की तरह व्यस्तता की ईंटों के बीच में दब कर सूख गई थी। बंदी ने उसे फिर से हरा कर दिया है। मैं अब खालीपन में खयालों से अठखेलियां करके अपनी अट्टालिकाओं को चुनवा रहा हूं। खालीपन आभासी न रह कर मेरे सामने वास्तविक रूप में प्रस्तुत हो गया है। मुझे मेरा काम मिल गया है। मैं पूर्णत: खाली हो गया हूं।