संभव था, मैं सोनिया गांधी के बारे में न लिखती इस हफ्ते। मैं उन मुट्ठी भर पत्रकारों में से हूं, जिन्होंने श्रीमतीजी के राजनीतिक विचारों और तौर-तरीकों की आलोचना करने की हिम्मत दिखाई, जब वे भारत की असली प्रधानमंत्री थीं एक दशक के लिए। मेरी आलोचना न उनको पसंद आई, न उनके दोस्तों को, सो मुझे सोनिया की दुश्मन मान लिया गया है बहुत पहले से। इस हफ्ते सोनियाजी के बारे में लिखने को इसलिए मजबूर हूं क्योंकि उन्होंने एलान कर दिया है कि अब उनका एक ही काम होगा- ‘रिटायर’ होना। कांग्रेस पार्टी की अध्यक्ष रही हैं इतने लंबे अरसे से कि उनके कार्यकाल का विश्लेषण करना लाजमी है।  शुरू में स्पष्ट कर दूं कि निजी तौर पर उनसे मेरी कोई दुश्मनी नहीं है। बल्कि यहां तक कहने को तैयार हूं मैं कि मेरी नजर में उन्होंने अपना जीवन बड़ी हिम्मत से गुजारा है। हिम्मत चाहिए एक ऐसे देश में राजनेता बनना, जो इतना गैर था उनके लिए कि उसकी नागरिक भी सोनियाजी तब बनीं जब उनके पति इंदिरा गांधी के वारिस नियुक्त किए गए 1983 में। हिम्मत चाहिए भारत की उस राजनीतिक दल की बागडोर संभालने के लिए, जिसने देश को स्वतंत्रता दिलाई थी। हिम्मत चाहिए राजनीति में तब आना जब राजनीति के कारण आपके पति और सास की हत्याएं कर दी गई हों। सो, आगे बढ़ने से पहले मैं सोनियाजी की हिम्मत की दिल से दाद देना चाहती हूं।

अफसोस कि जब उनकी राजनीतिक विरासत का विश्लेषण करती हूं तो दाद देने लायक मुझे तकरीबन कुछ नहीं दिखता है। भारत की राजनीति में सोनियाजी की पहली भूमिका थी प्रधानमंत्री की पत्नी की। यह वह समय था, जब बोफर्स घोटाला सामने आया, जो तब तक भारत का सबसे बड़ा राजनीतिक घोटाला साबित हुआ था। स्वीडन के एक रेडियो पत्रकार ने खोजी पत्रकारिता करके निकाला था कि उस देश की बोफर्स कंपनी ने भारत सरकार के आला अधिकारियों को रिश्वत देकर अपनी बंदूकें बेची थीं। इसके बाद मेरी दोस्त चित्रा सुब्रमण्यम ने कई साल खूब मेहनत करके मालूम किया कि रिश्वत का कुछ पैसा सोनियाजी के दोस्त ओक्तावियो क्वात्रोकी के स्विस अकाउंट में पहुंच गया था। सोनियाजी ने आज तक इस सवाल का जवाब नहीं दिया है कि उनके दोस्त को बोफर्स ने रिश्वत क्यों दी। उलटा अपने नियुक्त किए गए प्रधानमंत्रियों द्वारा हमेशा अपने दोस्त की मदद की। नरसिंह राव ने क्वात्रोकी को भारत से भागने दिया, जिस दिन उसके स्विस अकाउंट की खबर मिली थी। डॉक्टर मनमोहन सिंह ने अपने पहले कार्यकाल के आखिरी दिनों में लंदन स्थित उसके वे अकाउंट खुलवा दिए, जिनमें भारतीय जांच संस्थाओं के मुताबिक इस देश का पैसा रखा गया था।

सो, कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि जब सोनियाजी के नियुक्त किए गए प्रधानमंत्री भारत की बागडोर संभाले हुए थे, सरकारी भ्रष्टाचार उरूज पर था। मनमोहन सिंह के दूसरे दौर में तो इतने घोटाले निकल कर आए कि 2014 के आम चुनाव में भ्रष्टाचार बहुत बड़ा मुद्दा बन गया था। सोनियाजी के द्वार तक घोटाले की तारें बेशक न पहुंची हों, लेकिन सब देख सकते थे कि उनके करीबी कितने अमीर हो गए थे उनकी छत्रछाया तले। सोनियाजी चूंकि खुद राजनीति में आई थीं सिर्फ इसलिए कि उनकी शादी नेहरू-गांधी परिवार में हुई थी, उन्होंने शुरू से स्पष्ट किया कि परिवारवाद से उनको कोई तकलीफ नहीं थी। आज कांग्रेस का हाल यह है कि दिल्ली से लेकर गांव तक, संसद से लेकर पंचायतों तक, रिवाज सा बन गया है कि उनको कांग्रेस का टिकट पहले मिलता है, जो किसी राजनीतिक परिवार के वारिस हों। ऐसा होने से कई काबिल लोग राजनीति से बाहर रह गए, क्योंकि किसी शहजादे की बारी उससे पहले आई। इससे जितना नुकसान हुआ है भारतीय लोकतंत्र को, उसका अभी तक किसी ने हिसाब नहीं किया है। परिवारवाद इतना अहम हिस्सा बन गया है भारतीय लोकतंत्र का कि शायद ही कोई राजनीतिक दल बचा है अब इस घुन से। दीमक बन कर फैल चुका है देश के पूरे राजनीतिक ढांचे में। माना कि राजनीतिक दल को निजी कंपनी में तब्दील करने की प्रथा शुरू की थी इंदिरा गांधी ने, लेकिन उसको नई ऊंचाइयों तक पहुंचाया है उनकी बहू ने।

सोनियाजी की एक देन और है। उनसे हमने सीखा है कि किस तरह राजनीतिक शक्ति हासिल की जा सकती है बिना प्रधानमंत्री बने, बिना जिम्मेवारी लिए। कहने को तो प्रधानमंत्री अपने प्रिय डॉक्टर साहब थे 2004 और 2014 के बीच, लेकिन दुनिया जानती थी कि असली प्रधानमंत्री निवास दस जनपथ ही था। अब तो यह भी मालूम हो गया है कि सरकारी फाइलें भी भेजी जाया करती थीं सोनियाजी के पास और महत्त्वपूर्ण फैसले भी वही लेती थीं। इतनी शक्ति थी उनके हाथों में कि डॉक्टर साहब के मंत्री उनका कहना तभी मानते थे जब दस जनपथ से आदेश आता था। लोकतंत्र के लिए यह अच्छी बात नहीं है, जब इस तरह की चीजें होने लगती हैं। सो, जब 2014 में भारत के मतदाताओं ने नरेंद्र मोदी को पूर्ण बहुमत दिया और कांग्रेस को लोकसभा में सिर्फ छियालीस सीटें, तो बहुत सोच-समझ कर फैसला किया गया था। चुनाव के दौरान मैं जहां जाती थी, लोगों से सोनियाजी के बारे में पूछा करती थी और तकरीबन हर बार जवाब यही मिला लोगों से कि वे जानते थे कि असली राजनीतिक शक्ति किसके पास थी। सो, सोनियाजी अपनी नजरों में बेशक प्रधानमंत्री कभी नहीं थीं, लेकिन इस देश के आम आदमी की नजरों में जरूर थीं। जिस विरासत को अब अपने सुपुत्र के हवाले कर रही हैं उसमें नुक्स ज्यादा हैं और अच्छाइयां बहुत कम।