रेनकोट वाली बात न करते प्रधानमंत्री राज्यसभा में, तो मुमकिन है कि राजनीतिक पंडित उनके भाषण का विश्लेषण गंभीरता से कर रहे होते। विश्लेषण जरूरी है, क्योंकि पहली बार नरेंद्र मोदी ने नोटबंदी की तारीफ करते हुए कहा कि यह कदम इतना व्यापक था, इतना अद्भुत, कि विश्व भर में अर्थशास्त्री विचार-विमर्श में लगे हुए हैं, नोटबंदी को लेकर। प्रधानमंत्री ने अपनी पीठ थपथपाते हुए कहा कि ऐसा कदम उठाने के लिए साहस चाहिए। आगे यह भी कहा कि उनके इस कदम को भारत की जनता का पूरा समर्थन मिल रहा है। ऐसा देश है यह कि कोई छोटी घटना हो जाए, तो लोग हिंसा पर उतर आते हैं, लेकिन नोटबंदी की वजह से उपजीं तमाम परेशानियों का सामना करने के बावजूद ऐसा कहीं नहीं हुआ।
एक महीने बाद जब परिणाम आएंगे उत्तर प्रदेश, पंजाब, उत्तराखंड, गोवा और मणिपुर के, तो स्पष्ट हो जाएगा कि कितना समर्थन अब भी है नोटबंदी को लेकर, क्योंकि इन चुनावों में यह सबसे बड़ा मुद्दा रहा है। फिलहाल विनम्रता से अर्ज करना चाहूंगी कि जितना समर्थन शुरू में था अब कम होता जा रहा है। शुरू में गरीबों का खास समर्थन मिलने के दो मुख्य कारण थे। एक यह कि देश के सबसे गरीब नागरिकों को अच्छा लगा कि मोदी के इस कदम ने अमीरों को भी बैंकों के सामने कतारों में उनके साथ खड़ा किया। दूसरा यह कि उनको उम्मीद थी कि उनके खाली जनधन खातों में उस काले धन को किसी तरह प्रधानमंत्री पहुंचा देंगे, जिसकी खोज ने इतना कठोर कदम उनको उठाना पड़ा।
अब मायूसी के कुछ आसार नजर आने लगे हैं। लखनऊ और ग्रामीण उत्तर प्रदेश के इस दौरे पर मुझे ऐसे लोग मिले, जिनको नोटबंदी की वजह से खास परेशानियां झेलनी पड़ी हैं। लखनऊ में मिले कुछ ऐसे लोग, जिनके पास अस्पताल में अपने बीमार बच्चों के इलाज के लिए पैसे नहीं थे और देहातों में किसान मिले, जिन्होंने अपनी फसलें आधे दाम पर बेचीं। कस्बों में मिले छोटे कारोबारी, जिनके कारोबार नोटबंदी ने बर्बाद कर दिए हैं। सो, क्या अब समय नहीं आ गया है प्रधानमंत्री की असली परीक्षा का? नोटबंदी के लिए जो साहस उन्होंने दिखाया, क्या वही साहस दिखा कर आर्थिक और प्रशासनिक सुधार भी कर सकेंगे? मेरी राय है कि आर्थिक सुधारों से भी ज्यादा जरूरत है प्रशासनिक सुधारों की, क्योंकि सच तो यह है कि दिल्ली के सरकारी भवनों की मानसिकता अभी नहीं बदली है। अब भी हमारे आला अधिकारी आम नागरिकों की परवाह कम और अपने राजनीतिक आकाओं की ज्यादा करते हैं। शायद इसलिए नोटबंदी लागू करते समय उनको अंदाजा ही नहीं था कि आम भारतीय को कितनी परेशानियां झेलनी पड़ेंगी।
समस्या सिर्फ मानसिकता की नहीं, यह भी है कि प्रधानमंत्री ने सरकारी खर्चों पर लगाम नहीं लगाई है। ऐसे कई मंत्रालय हैं भारत सरकार में, जिनकी जरूरत बहुत पहले समाप्त हो गई थी, लेकिन अब भी वे मौजूद हैं। इंटरनेट के इस दौर में सूचना प्रसारण मंत्रालय की क्या अहमियत है? विशेषज्ञ अनुमान लगाते हैं कि भारत सरकार के आधे मंत्रालय अगर कल गायब हो जाएं, तो लाभ होगा देश को, हानि नहीं। विशेषज्ञों की सलाह यह भी है कि भारत सरकार को बारह बड़े मंत्रालय बनाने चाहिए, जिनके तहत आने चाहिए अन्य छोटे विभाग। नीति आयोग के सदस्य विवेक देबराय ने कोई तीन वर्ष पहले सलाह दी थी कि अगर ऐसा परिवर्तन आता है भारत सरकार के अंदर, तो जनता के डेढ़ लाख करोड़ रुपए बच सकते हैं।
नरेंद्र मोदी जब प्रधानमंत्री बने थे, तो उनसे उम्मीद थी की वे ऐसे सुधार लाएंगे, क्योंकि 2014 के चुनाव अभियान के दौरान उन्होंने ऐसी कई बातें की थीं, लेकिन प्रधानमंत्री बनने के बाद परिवर्तन की बातें करना छोड़ दिया है उन्होंने। उसी रास्ते पर चलने लगे हैं, जिन पर कांग्रेस के प्रधानमंत्री सत्तर वर्षों से चलते आए हैं। सो, अब हर दूसरे भाषण में गरीबी हटाने की बातें करते हैं, बिलकुल उन्हीं शब्दों में, जो हम सुनते आए हैं इंदिरा गांधी के दौर से।
गरीबी, बातों और भाषणों से न भारत में हटी है और न ही किसी अन्य देश में। जिन देशों में तेजी से विकास और संपन्नता आई है, उनमें देखा यह जाता है कि नीतियां ऐसी बनीं हैं, जिनके द्वारा सरकारी अधिकारियों का अर्थव्यवस्था में दखल कम किया गया है और निजी निवेशकों को आकर्षित करने के लिए नीतियां बनी हैं। नतीजा हमारे सामने है।
भारतवासी जब किसी दूसरे देश में जाकर व्यापार करते या रोजगार की तलाश में जाते हैं, तो शायद ही उनमें कोई होगा, जो नाकाम होकर वतन वापस लौट गया हो। अमेरिका, यूरोप और दुबई में मैं खुद ऐसे लोगों से मिली हूं, जो कहते हैं कि भारत छोड़ने के बाद ही उन्होंने कामयाबी हासिल की है। कुछ इनमें हैं, जो वापस आना भी चाहते हैं अपने देश, लेकिन आ नहीं सकते, क्योंकि लालफीताशाही और सरकारी हस्तक्षेप की वजह से वे अपनी जिंदगी यहां नहीं बना सकते हैं। मोदी ने प्रधानमंत्री बनने के बाद अपने विदेशी दौरों में कई बार कहा कि वे भारत को ऐसा देश बनाना चाहते हैं, जिसे नौजवानों को छोड़ कर न जाना पड़े रोजगार की खोज में। इस बात को क्या भूल गए हैं प्रधानमंत्री? और अगर भूल भी गए हैं, तो अब याद करना जरूरी है, ताकि नोटबंदी की वजह से जो मंदी और मायूसी आई है वह दूर हो जाए। मोदी ने साबित कर दिया है कि उनमें साहस की कोई कमी नहीं है, सो अब साहस दिखा कर आर्थिक और प्रशासनिक सुधार भी लाकर दिखाएं।