नोटबंदी के बाद एक अजीब यथार्थ पेश आया है। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के विचारक अब भी अटके हुए हैं ऐसे विचारों की दुनिया में, जो बहुत पहले बदल कर कुछ और बन गई थी। इन विचारकों को इन दिनों कई मौके मिलते हैं टीवी चर्चाओं में हिस्सा लेने के और मैं जब इनके विचारों को सुनती हूं तो ऐसा लगता है कि इनको अभी तक मालूम नहीं है कि उनके विचार कितने पुराने हो गए हैं। बातें करते हैं ये बिल्कुल वैसे जैसे कभी कांग्रेस पार्टी के समाजवादी नेता बातें किया करते थे या जैसे मार्क्सवादी दलों के क्रांतिकारी नेता बातें किया करते थे केरल और पश्चिम बंगाल में। समता, समानता लाने की बातें करते हैं, जो लक्ष्य है तो बड़ा अच्छा, लेकिन जिसको लाने में दुनिया के जितने भी समाजवादी और कम्युनिस्ट देश थे, लाने में इतने नाकाम रहे कि अपनी आर्थिक गलतियों के बोझ तले खत्म हो गए या बदलने पर मजबूर हुए।

समता-समानता ज्यादा दिखती है आज उन देशों में, जिन्होंने निवेश किया लोकतांत्रिक संस्थाओं में और जिन्होंने विश्वास रखा आम लोगों की काबिलियत में ज्यादा और सरकारी अधिकारियों में कम। सो, जनता को ताकतवर बनाने के लिए उन्होंने अच्छे स्कूल बनाए, अच्छे अस्पताल बनाए और उन बुनियादी चीजों में निवेश किया, जिनसे छोटा से छोटा आदमी अपने आप को इस काबिल बना सके कि रोजगार के बाजारों में कंधे से कंधा मिला कर चल सके किसी से।
भारत में हमने सोवियत संघ की नकल करते हुए सरकारी अधिकारियों को शक्तिशाली बनाया और उनके हाथों में तमाम जिम्मेवारी दी देश को संपन्न बनाने की। इन्होंने बड़े-बड़े सरकारी कारखानों में जनता का पैसा लगाया, जो डूबता रहा हर साल, लेकिन सरकारी अधिकारियों की तरक्की बढ़ती गई। जनता के लिए जो आम सेवाएं इन लोगों ने उपलब्ध करार्इं, उनको ये अधिकारी कभी खुद नहीं इस्तेमाल करते थे, क्योंकि उनके पास प्राइवेट अस्पतालों में इलाज कराने के पैसे थे और प्राइवेट स्कूलों में अपने बच्चों को भेजने के लिए पैसा भी और सिफारिशें भी। तरक्की उनकी अपनी हुई, लेकिन देश के ज्यादातर लोग गरीबी रेखा तले दबे रहे।

इस गलती को सुधारने की कोशिश पहली बार की थी प्रधानमंत्री नरसिंह राव ने और देश की आर्थिक दिशा बदल डाली। इसलिए मैं हैरान हुई पिछले हफ्ते जब संघ परिवार के विचारकों ने उन आर्थिक सुधारों को नकारा, जिनके द्वारा भारत में पहली बार थोड़ी-बहुत समृद्धि आई है। इन विचारकों ने ऐसी बातें की जैसे उनको जानकारी ही न हो अभी तक कि भारत की गरीबी का मुख्य कारण है कि हमने सरकारी अधिकारियों पर ज्यादा भरोसा किया है और जनता की शक्ति पर कम। इन विचारकों का बस चले तो फिर से अर्थव्यवस्था वापस दी जाएगी पूरी तरह सरकारी अधिकारियों के हाथों में समाजवाद के नाम पर।
इसलिए इस सप्ताह मैं प्रधानमंत्री को याद दिलाना चाहती हूं कि 2014 में उनको पूर्ण बहुमत क्यों दी थी भारत के गरीब, बेहाल मतदाताओं ने। माना कि मेरे कई पत्रकार बंधु शुरू से कहते आए हैं कि मोदी को जिताया हिंदुत्ववादियों ने, लेकिन ये अक्सर वे लोग हैं, जिन्होंने चुनाव का विश्लेषण किया दिल्ली और मुंबई में बैठ कर। थोड़ा-बहुत देहातों में घूमने का काम किया होता तो जान जाते कि मोदी को उन लोगों ने जिताया, जिनको उम्मीद थी कि परिवर्तन और विकास के वादे पूरा करके दिखाएंगे।

याद है मुझे बनारस की वह शाम, जब मोदी नामांकन भरने आए थे और ऐसा लगा कि शहर के सारे लोग सड़कों पर उतर आए उनके स्वागत में। उस शाम मैं गई थी अस्सी घाट पर पप्पू की चाय की दुकान में, जहां अक्सर हर शाम इकट्ठा होते थे बनारस के बुद्धिजीवी, विश्वविद्यालय के छात्र और शहर के छोटे-मोटे राजनीतिज्ञ। मैंने जब उनसे पूछा मोदी की लोकप्रियता का कारण, तो जवाब मिला, ‘आप जरा देखिए हम लोगों का हाल। इस शहर का हाल। रहने को हमारे पास ढंग के घर नहीं, स्कूल यहां बेकार हैं, सरकारी अस्पतालों में इलाज नहीं और ऊपर से ऐसी गंदगी है इस शहर में कि गंदगी के नीचे दब गया है।’
इस तरह की बातें मैंने राजस्थान के देहातों में सुनी और उत्तर प्रदेश के अन्य शहरों में भी। सो, मोदी से बंधी हुर्इं थीं परिवर्तन की लाख उम्मीदें। परिवर्तन हर तरह का, परिवर्तन उन समाजवादी आर्थिक नीतियों में, जिन्होंने देश के ज्यादातर लोगों को गरीब रखा है दशकों तक। मुमकिन है कि नागपुर में बैठे संघ के बड़े नेताओं तक यह जानकारी न पहुंची हो और इसलिए वे इन दिनों बातें कर रहे हैं कम्युनिस्टों जैसी, लेकिन अगर इनकी बातें सुन कर प्रधानमंत्री परिवर्तन के रास्ते से भटक जाते हैं, तो परिवर्तन कभी नहीं ला पाएंगे। वैसे भी दिल्ली के ऊंचे गलियारों में अफवाहें हैं कि नोटबंदी की व्यवस्था में कमी रही है, तो इसलिए कि प्रधानमंत्री ने अपने अधिकारियों पर जरूरत से ज्यादा विश्वास रखा। अफवाहें सही हो सकती हैं, क्योंकि इन आला अधिकारियों ने दशकों से हमको दिखाया है कि उनको परवाह अपने राजनीतिक आकाओं की है, जनता की नहीं। जनता की परवाह होती तो जो बदइंतजमी हमने देखी है नोटबंदी के बाद वह शायद न देखने को मिलती।

अभी तक नोटबंदी का समर्थन कर रही है इस देश की गरीब जनता, लेकिन इस उम्मीद से कि जिन भ्रष्ट अधिकारियों और पुलिसवालों को उनको रोज रिश्वत देनी पड़ती है, वे अब बाज आ जाएंगे। परिवर्तन अपने रोजमर्रा जीवन में देखना चाहते हैं लोग, सो अब पूरी तरह से सुधार लाने होंगे आम सरकारी सेवाओं में, जो नहीं आ सकेंगे अगर भारत सरकार के आला अधिकारियों का बस चले। जब संघ के विचारक वही पुराने समाजवादी विचार उगलने लगते हैं, हमको चिंता होनी चाहिए और प्रधानमंत्री को भी।