कश्मीर घाटी आज युद्धभूमि बन चुकी है, जहां एक तरफ हैं मुजाहिद अल्लाह के और दूसरी तरफ भारत के राष्ट्रवादी सिपाही। अमन-शांति खोजने से पहले इस कड़वे सच को हजम करना जरूरी है। अल्लाह के मुजाहिद उस जिहाद का हिस्सा हैं, जिसके कारण पिछले हफ्ते पेरिस में आतंकवादी हमला हुआ, जिसके कारण पश्चिमी यूरोप के कई शहरों में आतंकवादी हमले हुए हैं। किसी को इस बात पर शक है, तो मेहरबानी करके उस वीडियो को देखने का कष्ट करें, जो हिजबुल मुजाहिदीन के कमांडर जाकिर रशीद भट्ट ने हाल में सोशल मीडिया पर अपलोड किया है। जाकिर भट्ट ने कश्मीर घाटी में बुरहान वानी की जगह ली है और इस वीडियो में वे स्पष्ट शब्दों में कहते हैं कि इस्लाम में राष्ट्रवाद और लोकतंत्र हराम है, सो अपने पत्थरबाज भाइयों से अनुरोध है कि वे याद रखें कि इस्लाम के नाम पर हथियार उठाए गए हैं।  सुनिए जाकिर साहब के शब्दों में उनकी बात, ‘जब हम हाथ में पत्थर या बंदूक उठाते हैं तो इसलिए नहीं कि हम कश्मीर के लिए ऐसा कर रहे हैं। हमारा एक ही मकसद होना चाहिए कि हम इस्लाम के लिए लड़ रहे हैं, ताकि हम शरीआ को बहाल कर सकें।’ लोकतंत्र अगर हराम है इस्लाम में, तो हमको क्यों आश्चर्य होना चाहिए कि गुजरे उप-चुनावों में वोट इतने थोड़े पड़े कि चुनाव बेमतलब हो गया? क्यों आश्चर्य होना चाहिए कि हिंसक युवकों ने मतदान केंद्रों से ईवीएम निकाल कर सड़कों पर तोड़े? आश्चर्य होना चाहिए, तो सिर्फ उन कश्मीरी राजनेताओं की बातों पर, जो अब भी कहते फिर रहे हैं कि पथराव करने वाले युवक कश्मीर के देशभक्त हैं, जिनको गुमराह किया गया है।

मेरा मानना है कि इन मुजाहिदों को अब किसी रहनुमा की जरूरत नहीं है। जिहाद जब अल्लाह के नाम पर शुरू हो जाती है, जैसे आज दुनिया के कई देशों में हो रही है, तो रहनुमा अल्लाह खुद बन जाते हैं। युद्ध फिर युद्ध न रह कर धर्मयुद्ध बन जाता है। हमारी समस्या सिर्फ यह है कि भारत के ज्यादातर राजनेता अभी तक समझे ही नहीं हैं कि कश्मीर में एक नया दौर शुरू हो गया है हिंसा का और इस हिंसा को पुराने तरीकों से नहीं रोका जा सकता। कश्मीर समस्या का पहला दौर शुरू हुआ था 1947 में, जब पाकिस्तान ने अपने सैनिकों को कबाइलियों के रूप में सीमा के उस पार से भेजा था। घाटी में जब बारामूला तक ये पहुंचे तो कश्मीर के महाराजा ने अपनी रियासत को भारत के हवाले किया, समझौते पर दस्तखत कर दिए और जम्मू भाग गए अपने दरबार के साथ। आजादी के लिए लड़ाई लेकिन तब शुरू हुई घाटी में, जब पंडित नेहरू ने अपने पुराने दोस्त शेख अब्दुल्ला को गिरफ्तार करके जेल में रखा अठारह वर्ष। अशांति फैली घाटी में और अलगाववादी संस्थाएं पैदा हुर्इं। फिर 1975 में शेख साहब ने इंदिरा गांधी के साथ समझौता किया और वापस श्रीनगर लौटे बतौर मुख्यमंत्री। शांति दो वर्ष पूरी तरह रही और शेख साहब के देहांत के बाद चुनाव हुआ, जिसमें उनके बेटे फारूख अब्दुल्ला ने शानदार जीत हासिल की। इंदिरा गांधी को यह बात स्वीकार नहीं थी, तो 1984 में फारूख की सरकार गिरा कर अपनी मर्जी का मुख्यमंत्री थोप दिया और साबित किया कि कश्मीर में असली लोकतंत्र कभी नहीं आएगा। अशांति फैलती रही और 1987 के चुनाव में जब कश्मीरी नौजवानों को लगा के फारूख इस बार धांधली करके चुनाव जीते हैं, तो जाने लगे सीमा पार आतंकवाद सीखने। हिंसा का यह दूसरा दौर अब बिल्कुल खत्म हो गया है और एक नया दौर शुरू हुआ है, जिसमें कश्मीर के नौजवान लड़ रहे हैं इस्लाम के नाम पर।

सारा खेल बदल गया है, लेकिन इस बात को न दिल्ली में बैठे राजनेता समझ पाए हैं और न ही भारत के जाने-माने राजनीतिक पंडित। सो, अब भी हर दूसरे-तीसरे दिन ऐसे लेख छपते हैं अखबारों में, जिनमें प्रधानमंत्री को सुझाव वही पुराने किस्म के दिए जाते हैं। बातचीत का दौर फिर से शुरू करो। पाकिस्तान से भी बातचीत होनी चाहिए। कश्मीर में अलगाववादियों से भी बातचीत करो। सबसे बातचीत करो, क्योंकि और कोई रास्ता नहीं है शांति लाने का। तो क्या उनसे भी बातचीत हो सकती है, जो अल्लाह के नाम पर लड़ रहे हैं हमारे ‘काफिर’ मुल्क के खिलाफ? किस तरह? किस आधार पर? मेरी राय में यह सब बेकार की बातें हैं, लेकिन सुझाव अपनी तरफ से देने से डरती हूं, क्योंकि अगर विकसित पश्चिमी देश जिहादी हिंसा को रोक नहीं सके तो हम कैसे रोक सकेंगे? इसके बावजूद कहना चाहूंगी कि जैसे कश्मीरी जिहादियों ने युद्ध के नियम और मकसद बदल डाले हैं, बिलकुल वैसे हमको भी नए नियम और नई रणनीति बनानी होगी। सबसे पहले तो हमको इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि इस राज्य में लद्दाख और जम्मू भी हैं, जहां कोई अशांति नहीं है। सो, क्यों न ऐसी कश्मीर नीति बने, जिसमें इन प्रांतों में निवेश किया जाए दब कर? कश्मीर में अशांति की वजह से न निवेशक आए हैं इन हिस्सों में, जितने आने चाहिए थे और न ही सरकार ने यहां ध्यान दिया है। इसके बाद पूरी कोशिश होनी चाहिए कश्मीरी पंडितों की घर वापसी की। भारत के इतने सैनिक तैनात हैं घाटी में कि पंडितों के रिहायशी इलाकों को सुरक्षित रखना मुश्किल नहीं होना चाहिए। यह सब होने के बाद बातचीत का नया दौर बेशक शुरू किया जाए उन सबसे जो बातचीत करने को तैयार हैं, लेकिन इस आधार पर कि कश्मीर हमेशा भारत का अटूट अंग रहेगा। इसे स्वीकार करने के बाद बोलना है तो बोलो।