दिल्ली से मुंबई एअर इंडिया की फ्लाइट से आ रही थी पिछले सप्ताह, जब एक अजीब घोषणा सुनने में आई। मेरी आदत है कि विमान उड़ने के फौरन बाद सो जाती हूं। उस दिन सोने ही वाली थी कि किसी महिला की आवाज में सुना कि भारत का संविधान 26 जनवरी, 1950 को लागू हुआ और उसके बाद भारतीयों को लोकतांत्रिक अधिकार मिले। बात है तो सही, लेकिन घोषणा अजीब लगी, क्योंकि किसी हवाई जहाज में इस तरह की घोषणा बेमतलब लगी। किस वास्ते? किसको याद दिलाना चाहती है हमारी सरकार कि भारत लोकतांत्रिक देश कब बना था? यह काम सरकारी ही हो सकता है, इसलिए कि जो लोग विमान सेवाएं चलाते हैं, उनका इस तरह की घोषणा से कोई मतलब नहीं हो सकता है।
आज गणतंत्र दिवस है, इसलिए मुनासिब है कि बात हो जाए राष्ट्रवाद और देशभक्ति में अंतर की। कहने को दोनों चीजें एक ही तरफ लेकर जाती हैं आम नागरिकों को, लेकिन इन दोनों भावनाओं में एक अहम फर्क है, जो अक्सर हम भारतवासी समझ नहीं पाते हैं। इस श्रेणी में कभी मैं भी थी। हुआ यह कि मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद मैंने एक टीवी बहस में हिस्सा लिया था, जिसमें मेरे सामने थे एक जानेमाने बुद्धिजीवी और लेखक। उन्होंने तर्क दिया था इस बहस में कि देशभक्ति बहुत अच्छी चीज होती है और राष्ट्रवाद बहुत खतरनाक। जर्मनी का हवाला देते हुए याद दिलाया कि हिटलर ने राष्ट्रवाद के नाम पर दूसरा विश्वयुद्ध छेड़ दिया था। जैसे अक्सर बंगाली बुद्धिजीवी करते हैं, उन्होंने इस बात को इतने लंबे-चौड़े तरीके से पेश किया कि मेरे पंजाबी कान पक गए और मैं उनके शब्दों में ही उलझ गई। मगर पिछले दस वर्षों में कई बार मुझे उनकी बात याद आई और उसकी अहमियत समझ पाई हूं।
नरेंद्र मोदी की तुलना अक्सर वामपंथी राजनीतिक पंडित हिटलर से करते हैं। इसलिए नहीं कि उन्होंने विश्वयुद्ध शुरू करने की कोई कोशिश की है, बल्कि इसलिए कि उनके समर्थक इतने उग्र किस्म के राष्ट्रवादी हो गए हैं कि औरों के देशप्रेम पर शक करते फिरते हैं। इस अधिकार को अपनाने के बाद ये लोग न्यायाधीशों की तरह फैसले भी सुनाने लगे हैं। पढ़े-लिखे मोदीभक्त बेझिझक इन दिनों कहते फिरते हैं कि मुसलमान कभी देशभक्त नहीं हो सकते, क्योंकि उनकी सभ्यता, उनका धर्म, उनके पवित्र धर्मस्थान भारत में नहीं, किसी और देश में हैं।
मोदी के दौर में आपने भी देखा होगा कि कितनी जल्दी इस किस्म का राष्ट्रवाद नफरत और हिंसा पैदा करता है। आपने भी देखा होगा कि किस तरह भगवाधारी साधु भी इन दिनों खुल कर कहते हैं कि एक अंतिम युद्ध होगा, जिसमें मुसलमानों को इस देश से निकाल दिया जाएगा या काट दिया जाएगा। आपने भी देखा होगा कि किस तरह हिंदुओं के धार्मिक जुलूस अक्सर जब गुजरते हैं किसी मस्जिद के सामने से तो नरफत भरे नारे लगाए जाते हैं, जिनका परिणाम होता है कि कोई अतिवादी मुसलमान जुलूस पर पथराव शुरू करता है और देखते-देखते दंगा शुरू हो जाता है।
राष्ट्रवाद और देशभक्ति में सबसे बड़ा अंतर यह है कि देशभक्ति से हिंसा और नफरत पैदा होने का सवाल नहीं है। जो असली देशभक्त होते हैं, उनका मानना है कि हिंदू, मुसलिम, ईसाई सब बराबर की देशभक्ति कर सकते हैं।
ऐसी सोच राष्ट्रवादियों में नहीं है, सो मशहूर शायर राहत इंदौरी ने अपनी एक नज्म में लिखा, ‘सभी का खून है शामिल यहां की मिट्टी में, किसी के बाप का हिंदुस्तान थोड़ी है’। मोदी भक्तों ने खुलकर उस पर एतराज जताया। एतराज करने वालों में मोदी भक्तों के अलावा भारतीय जनता पार्टी के आला नेता भी थे। मोदी को खुश करने के लिए ही सही। राष्ट्रवाद इतना तंगनजर है कि पिछले दशक में अचानक हमें दिखने लगे हैं ऐसे लोग, जो खुल कर कहते हैं कि उर्दू बोलना भी गद्दारी है। इसलिए कि यह भाषा भारत की जमीन से पैदा नहीं हुई। बकवास है यह, बिल्कुल बकवास। सब जानते हैं कि उर्दू पैदा की थी मुगल सेना के सिपाहियों ने, जो पूरी तरह देसी थे और जिनकी जबान पर फारसी नहीं चढ़ती थी। खैर, इतनी खूबसूरत है उर्दू भाषा कि शायद ही किसी दूसरे देश में सुनने को मिलेगी कोई भाषा, जो उर्दू का मुकाबला कर सकती हो। हमको गर्व होना चाहिए कि अपने देश में यह भाषा पैदा हुई है, लेकिन इस बात को आप किसी हिंदुत्ववादी के सामने नहीं कह सकते हैं।
मेरी जान-पहचान के एक बहुत बड़े हिंदुत्ववादी बुद्धिजीवी हैं, जिन्होंने मुझसे कहा था कभी कि हमको हिंदी से वे सारे शब्द निकाल देने चाहिए, जो फारसी से आए हैं, ताकि हिंदी में शुद्धता आए। मैंने जब उनकी यह बात सुनी, तो हैरान रह गई, इसलिए कि पंजाबी में तकरीबन अस्सी फीसद शब्द उर्दू के हैं और शुद्ध हिंदी के शब्द अगर उनकी जगह लाने का काम कोई करता है, तो पंजाबी पूरी तरह खत्म हो जाएगी। ऐसे विचार आते ही हैं तब, जब देशभक्ति की जगह राष्ट्रवाद ले लेता है। एक और अहम फर्क है देशभक्ति और राष्ट्रवाद में, और वह है कि असली देशभक्त कभी अपनी देशभक्ति को अपने चेहरे पर चिपकाने की जरूरत नहीं महसूस करते हैं। राष्ट्रवादियों का हाल बिल्कुल उल्टा है। वे सोचते हैं कि अगर वे बार-बार साबित न करें अपने राष्ट्रवाद को तो उनको राष्ट्रवादी नहीं माना जाएगा।
अफसोस कि ऐसे कुछ ज्यादा ही लोग मोदी सरकार में ऊंचे पदों पर बैठे हुए हैं और मोदी को खुश करने के लिए ही ऐसे फैसले करते हैं, जिनसे साबित कर सकें कि वे कितने बड़े राष्ट्रवादी हैं। यही कारण है शायद कि हवाई जहाजों में घोषणाएं होने लगी हैं अपने संविधान के बारे में।