किधर गए वे आला नेता जो कल तक संविधान के रक्षक बने फिर रहे थे? राहुल गांधी, मल्लिकार्जुन खड़गे, कहां थे आप जब आपके एक मुख्यमंत्री ने संविधान का उल्लंघन करके कानून पारित करने की कोशिश की थी कि कर्नाटक में निजी कंपनियों में नौकरियां आरक्षित होंगी कर्नाटक के लोगों के लिए? क्या संविधान के खिलाफ नहीं है ऐसा करना? अपने इस सवाल का जवाब मैं खुद देना चाहती हूं। किसी भी नजरिए से देखें इस कानून को, तो साफ दिखेगा कि संविधान के बिल्कुल खिलाफ है।
इस तरह के कानून अगर भारत के हर राज्य में पारित होने लगेंगे तो भारत एक देश न रह कर छोटे-छोटे प्रांतों में बंट जाएगा। सीमाएं बन जाएंगी राज्यों के बीच, ऐसी कि भारत के नागरिक अपने देश के अंदर पासपोर्ट लेकर घूमने के लिए मजबूर हो जाएंगे, ताकि साबित कर सकें कि उनको नौकरी मिल सकती है कि नहीं। जीत होगी किसी की तो सिर्फ उनकी जो भारत को कमजोर करना चाहते हैं, संविधान को कमजोर करना चाहते हैं। हल्ला जब मचने लगा तो कर्नाटक के मुख्यमंत्री ने इस कानून पर रोक लगा दी है फिलहाल। लेकिन कौन कह सकता है कि हल्ला कम होने के बाद इस असंवैधानिक कानून को फिर से पारित करने का प्रयास नहीं होगा?
माना कि बेरोजगारी देश के युवाओं के लिए सबसे बड़ी समस्या है, लेकिन समाधान इस तरह का आरक्षण नहीं हो सकता है, सिर्फ इसलिए कि गैर-संवैधानिक है। इसलिए भी कि ऐसा करके भारत की जड़ें, भारत की अखंडता कमजोर करने का काम किया जाएगा। साथ में निजी क्षेत्र में जो सफल उद्योग हैं, उनको भी कमजोर करने का काम होगा। खासतौर पर बंगलुरु जैसे महानगर में, जो भारत का ‘सिलिकान वैली’ कहलाता है। इंफोसिस और विप्रो जैसी कंपनियों, जिन्होंने बंगलुरु में अपने मुख्यालय बनाए हैं, शायद उनको बंद करके चले जाएंगे किसी दूसरे राज्य में प्रशिक्षित साफ्टवेयर नौजवानों की जरूरत पूरी करने। फिलहाल बंगलुरु जाते हैं पूरे देश से कंप्यूटर इंजीनियर। आश्चर्य की बात नहीं है कि इस कानून के विरोध में पहले बंगलुरु की सिलिकान वैली से आवाजें उठीं। अफसोस कि दलील यही रही है कि उनके लिए आरक्षण अनिवार्य न हो। कहना यह चाहिए था कि यह नया लाइसेंस राज किसी भी क्षेत्र में नहीं होना चाहिए।
बंगलुरु जैसे महानगरों में देश भर से जाते हैं लोग। इन महानगरों में आते हैं व्यापारी, जिनके कारखाने और कारीगर अलग-अलग राज्यों में होते हैं। यही भारत की ताकत है। लंबी फेहरिस्त है उनकी, जो कर्नाटक जाते हैं कारखाना लगाने, रोजगार ढूंढ़ने। तो क्या इन सबको अपनी दुकान बंद करके अपने राज्यों में जाना होगा, अगर ऐसा कानून भविष्य में पारित होगा? ईमानदारी से सोचते हमारे राजनेता तो बेरोजगारी का असली समाधान ढूंढ़ने की कोशिश करते। असली समाधान है सरकारी स्कूलों में क्रांतिकारी सुधार लाना, ताकि यहां से बच्चे वास्तव में शिक्षा पा सकें। फिलहाल साक्षरता ही हासिल करके निकलते हैं सरकारी स्कूलों से बच्चे। अगली मुसीबत उनकी होती है किसी ऐसे उच्च स्तरीय शिक्षा संस्थान में दाखिला लेने की, जिसमें कोई हुनर सीख सकें।
एक बड़े उद्योगपति ने मुझे एक बार समझाया था कि समस्या निजी क्षेत्र में नौकरियों की कमी की नहीं है। बहुत बड़ी गुंजाइश है नौकरियां देने की, लेकिन दे नहीं पाते हैं उद्योगपति, क्योंकि जो तथाकथित शिक्षित नौजवान आते हैं, वे शिक्षित हैं ही नहीं। कई सर्वेक्षण दिखाते हैं कि सरकारी स्कूलों में से बच्चे निकलते हैं ऐसे, जो मुश्किल से थोड़ा-बहुत पढ़-लिख लेते हैं। बस। उनके लिए वही नौकरियां मिलती हैं जो अनपढ़ लोगों को दी जा सकती हैं।
बहुत बड़ी समस्या है यह जो पैदा हुई है पिछले उन दशकों में जब अक्सर प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री कांग्रेस पार्टी के हुआ करते थे। उस दौर में स्कूल, अस्पताल और बच्चों के लिए अन्य संस्थाएं बनाई गई थीं नाम के वास्ते। इसलिए जहां ‘बच्चों का पार्क’ लिखा होता है आज भी हमारे छोटे शहरों में वहां दो-तीन झूले होते ही हैं, लेकिन ज्यादातर जमीन काम आती है कचरा फेंकने के लिए। मेरे जैसे जो कभी मोदी भक्त हुआ करते थे, इस उम्मीद से समर्थन दिया मोदी को कि शिक्षा और स्वास्थ्य क्षेत्र में वे खास ध्यान देंगे।
अफसोस की बात है कि ऐसा मोदी ने न अपने पहले शासनकाल में किया और न दूसरे शासनकाल में। उनके मुख्यमंत्री लगे रहे ऐसे कार्यों में जिनसे मुसलमानों को तकलीफ पहुंचाई जा सके। पिछले सप्ताह एक उदाहरण एक बार फिर मिला, जब कांवड़ यात्रा के नाम पर ठेले वालों से लेकर बड़ी दुकानों को आदेश दिया गया उत्तर प्रदेश सरकार की तरफ से कि दुकानदार का नाम लिखा जाए उन जिलों में जहां से यात्रा गुजरती है। इस आदेश ने यादें ताजा कर दीं नाजी जर्मनी की, जब यहूदियों को बिल्कुल ऐसा ही आदेश मिला था।
इससे पहले गौ रक्षा के नाम पर कई मुसलमानों को मारा गया है और जो उनके रोजी-रोटी के साधन थे, उन पर हमला किया गया। पशु-पालन तकरीबन असंभव हो गया है और अवैध बूचड़खानों को रोकने केबहाने जो जायज थे, वे भी बंद किए गए। ऊपर से, जहां भी भारतीय जनता पार्टी के मुख्यमंत्री थे, उन्होंने बुलडोजर चलाए हर दंगे-फसाद के बाद, लेकिन घर टूटे सिर्फ मुसलमानों के। इन चीजों के बदले अगर इन मुख्यमंत्रियों ने ध्यान दिया होता सरकारी स्कूलों में सुधार लाने पर, तो हिंदू-मुसलिम दोनों का भला होता और देश का भी।
अब शुरू हुआ है मोदी का तीसरा कार्यकाल, इसलिए उनको एक मौका और मिला है उन चीजों पर ध्यान देने का, जिनसे बेरोजगारी वास्तव में समाप्त हो सकती है। ध्यान दीजिए मोदीजी, मेहरबानी करके इस बात पर कि अशिक्षित देश कभी विकसित नहीं होते हैं।