यह सोच कर कि जनता की आवाज बुलंद कर रहे हैं, दोनों मुख्यमंत्रियों ने प्रधानमंत्री पर ऐसे इल्जाम लगाए जैसे किसी महाअपराधी के बारे में बोल रहे हों। ममता बनर्जी ने नोटबंदी के बारे में कहा कि इससे देश में आतंक का माहौल ऐसा बन गया है, जो इमरजंसी में भी नहीं था। अरविंद केजरीवाल ने इल्जाम लगाया कि नोटबंदी के पीछे बहुत बड़ा षड्यंत्र रचा है नरेंद्र मोदी ने, जनता से दस लाख करोड़ रुपए बैंकों में जमा करवाने का, ताकि यह पैसा वे अपने उद्योगपति दोस्तों में बांट सकें। कुछ ऐसी ही बात भिवंडी में राहुल गांधी ने कही, ‘पंद्रह-बीस उद्योगपतियों को ही लाभ पहुंचाने का काम कर रहे हैं मोदी।’
भारत के इन बड़े राजनेताओं में इतनी तकलीफ देख कर मुझे एक अजीब खुशी हुई, इसलिए कि मैंने बहुत बार अपने लेखों में दावा किया है कि असली काला धन सिर्फ राजनेताओं और सरकारी अधिकारियों के पास होता है, क्योंकि इनकी कमाई का पैसा नहीं है यह। बड़े उद्योगपतियों से अवैध तरीकों से हासिल किया गया पैसा है यह। उनके दफ्तरों-कारखानों में जब छापे पड़ते हैं और छिपा हुआ धन मिलता है, वह अक्सर राजनेताओं को चुनाव के वक्त देने के लिए रखा गया होता है। इस पैसे को काला धन कहना गलत होगा, क्योंकि इसको कमाया है उन लोगों ने अपने खून-पसीने से। काला धन जब पाया जाता है छोटे व्यापारियों के पास, तो वह भी ज्यादातर सिर्फ सरकारी अफसरों को रिश्वत देने के लिए रखा जाता है। अगर इस देश में कुछ ऐसे लोग भी हैं जो टैक्स नहीं देते, इसलिए कि टैक्स देना मुश्किल होता है आम आदमी के लिए और पैसे छिपा कर रखना आसान।
फिर भी राजनेताओं को जितनी तकलीफ हुई है नोटबंदी से उतनी तकलीफ आम लोगों में नहीं दिखी। मैंने लंबी-लंबी कतारें देखीं मुंबई में भी और महाराष्ट्र के देहाती बैंकों के सामने भी, लेकिन जब मैंने लोगों से पूछा कि प्रधानमंत्री ने अच्छा काम किया है या गलत, तो अक्सर लोगों ने कहा कि उनको प्रधानमंत्री की यह पहल अच्छी लगी, क्योंकि वे खुद चाहते हैं कि जिनके पास बोरियों में नोट भरे पड़े रखे हैं, उनका पर्दाफाश हो। इसके बावजूद मेरी राय है कि काले धन की यह खोज प्रधानमंत्री जितनी जल्दी बंद कर दें, उतना अच्छा होगा और उन आर्थिक सुधारों पर ध्यान देने का काम करें, जिनके बिना न संपन्नता मुमकिन है न समृद्धि।
आर्थिक सुधारों से भी ज्यादा जरूरत है प्रशासनिक सुधारों की, यह साबित हुआ है नोटबंदी के बाद। नरेंद्र मोदी के इरादे बेशक नेक थे, लेकिन जिन लोगों का काम था इस योजना को सफल बनाने का, उन्होंने दिखा दिया कि उनकी न तैयारी थी और न ही उनके पास जनता की परेशानियों का हल। प्रशासनिक सुधार किए होते प्रधानमंत्री ने शुरू से, तो उनकी यह योजना कहीं ज्यादा सफल होती और लोगों की परेशानियां कम। आखिर बैंकों में नए नोट पहले से क्यों नहीं रखे गए थे? क्यों नहीं बैंकों ने अपने एटीएम नए नोटों के लिए तैयार किए? क्या उन अफसरों को दंडित किया जाएगा, जिनकी वजह से जनता को इतनी परेशानियां झेलनी पड़ी हैं?
उनकी नालायकी से प्रधानमंत्री सीख सकते हैं कि राजनेताओं और सरकारी अधिकारियों पर नियंत्रण रखने का काम कितना जरूरी हो गया है। समाजवादी आर्थिक नीतियों का आधार है कि अर्थव्यवस्था की पूरी जिम्मेवारी सरकारों की होनी चाहिए, सो ऐसा होता रहा है पिछले सत्तर वर्षों से और इसका परिणाम यह है कि सरकारी अफसर और राजनेता देश के सबसे बड़े कारोबारी बन गए हैं। इनकी ठाठ, शान और दौलत उद्योगपतियों से ज्यादा है और आम नागरिकों को तंग करने की इनकी ताकत बेहिसाब। कहने को भारत में लोकतंत्र है, लेकिन सच यह है कि आर्थिक मामलों में लोकतंत्र नहीं, सरकारी तानाशाही रही है। प्रधानमंत्री बातें बहुत करते हैं देश में बिजनेस का माहौल सुहाना बनाने की, लेकिन अभी तक उन्होंने शायद ध्यान नहीं दिया है कि बिजनेस करना कितना मुश्किल है भारत में। हर कदम पर बाधाएं खड़ी करते हैं अधिकारी, हर कदम पर सताता है कोई इंस्पेक्टर। इतना उलझा कर रखते हैं ये लोग लालफीताशाही में कि इनको कुछ खिलाए बगैर बिजनेस करना तकरीबन असंभव है।
इन चीजों को बदलने का काम किए होते मोदी, तो आज देश की शक्ल शायद बदल चुकी होती। उलटा उन्होंने काले धन की खोज युद्ध स्तर पर करके उन्हीं अधिकारियों और राजनेताओं के हाथ मजबूत किए हैं, जो देश में परिवर्तन नहीं चाहते हैं। सो, अब क्या होगा? अब क्या होना चाहिए? अफवाहें फैल रही हैं कि अब प्रधानमंत्री उन बेनामी जमीन-जायदादों को जब्त करने का काम करेंगे, जो काले धन से बनी हैं। ऐसा अगर करते हैं तो फिर से उन अधिकारियों और इंस्पेक्टरों की ताकत बढ़ेगी, जिनको काबू में रखना चाहिए। वास्तव में मोदी अगर देश में समृद्धि लाना चाहते हैं, तो उनको ऐसे आर्थिक सुधार लाने चाहिए, जिनसे सरकारी अधिकारियों और राजनेताओं की बिजनेस करने की आदतें छूट जाएं। चुनाव प्रचार जब कर रहे थे 2014 में तो मोदी ने अपने कई भाषणों में कहा था कि उनकी राय में सरकार को बिजनेस करना ही नहीं चाहिए, लेकिन अब शायद वे भूल गए हैं अपनी इस बात को, क्योंकि आज भी उनकी सरकार बिजनेस करने में लगी हुई है। न लगी होती तो कम से कम एयर इंडिया और अशोक होटल जैसी कंपनियां बंद हो गई होतीं, जिनमें जनता के लाखों करोड़ रुपए निवेश होने के बावजूद कभी हमने मुनाफा नहीं देखा है। सो, मेरा विनम्र सुझाव है कि आगे के कदम उस दिशा में हों जिसमें सरकारी अफसरों और राजनेताओं की भूमिका कम होती जाए।
जानिए ATM और बैंकों के बाहर कतारों में खड़े लोग क्या सोचते हैं नोटबंदी के बारे में