.कल सुबह जब चुनाव परिणाम आ रहे थे, आपने भी शायद देखा होगा कि किस तरह राजनीतिक पंडितों के चेहरे उतरे हुए थे। वही लोग, जो परसों तक ऐसे पेश आ रहे थे टीवी पर जैसे उनको राजनेताओं से भी ज्यादा जानकारी थी कि उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, गोवा और मणिपुर में क्या होने वाला है, मायूस और शर्मिंदा नजर आ रहे थे। देश के राजनीतिक पंडितों में मेरी भी गिनती है, सो शुरू में ही बेझिझक कबूल करती हूं कि मैं शर्मिंदा हूं इस बात को लेकर कि मैंने अपने कई लेखों में कहा था पिछले दिनों कि नोटबंदी का असर बुरा होगा भारतीय जनता पार्टी के लिए। मेरी यह भविष्यवाणी बिलकुल गलत साबित हुई है और इस गलती को मैं मानती हूं।
गलतियां इतनी की हैं हम पंडितों ने इन चुनावों को लेकर कि इन पर किताब लिखी जा सकती है, लेकिन आज इस लेख में मैं सिर्फ इसका विश्लेषण करना चाहूंगी कि हम राजनीतिक पंडितों और देश के मतदाताओं के बीच इतनी दूरियां कैसे बन गई हैं कि 2014 के आम चुनाव से लेकर आज तक ये बढ़ती ही गई हैं। क्या इन दूरियों का खास कारण यह है कि हम सेक्युलर पंडितों की नजरों में नरेंद्र मोदी अब भी वही ‘मौत का सौदागर’ है, जिसको हमने देश का प्रधानमंत्री बनने के काबिल नहीं समझा था कभी? क्या हमने अब भी इस सच को हजम नहीं किया है कि भारत की जनता की नजरों में मोदी कुछ और ही हैं?
इन सवालों पर ध्यान देने लगी तो याद आया मुझे कि हम राजनीतिक पंडित भी उस पुरस्कार-वापसी जमात का हिस्सा हैं, जिन्होंने अभी तक अपना सेक्युलरिज्म का चश्मा उतार कर नहीं देखा है मोदी की तरफ। उतार कर देखा होता तो शायद हमारी इन चुनावों को लेकर इतनी गलतियां न होतीं। नोटबंदी का असर गलत आंकने के अलावा हमने यह भी देखने की कोशिश नहीं की कि अपने इस सबसे बड़े राज्य के मतदाताओं की सोच में कितना परिवर्तन आ गया है। जहां कभी गांव की जातियों का विश्लेषण करके मालूम पड़ जाता था हमें कि वोट किस राजनेता को जाने वाला है, अब ऐसा नहीं है।
अब नौजवान मतदाता सिर्फ यह जानना चाहते हैं कि विकास के तौर पर उनके लिए कौन क्या कर सकता है। सो, जहां हम सेक्युलर राजनीतिक पंडितों ने तकरीबन तय कर लिया था कि उत्तर प्रदेश को वास्तव में दो शहजादों का साथ पसंद है। उत्तर प्रदेश के देहातों में साफ दिखता था लोगों को कि विकास के तौर पर अखिलेश यादव ने उनके लिए कुछ नहीं किया है पिछले पांच वर्षों में। जैसे बादशाह कभी खैरात बांटा करते थे, उसी तरह यादवों के युवराज ने लैपटॉप जरूर बांटे, लेकिन बिजली नहीं दी। जब बिजली ही न हो, तो लैपटॉप का मतलब क्या? जब देहाती स्कूलों का हाल यह हो कि बच्चे दरख्तों के नीचे पढ़ाई करते हों गंदी नालियों के किनारे, तो लैपटॉप किस काम का। इन चीजों पर हम पंडितों ने ध्यान कम दिया और ज्यादा ध्यान दिया मुख्यमंत्री की बीवी डिंपल के चुनाव अभियान में मुख्य भूमिका निभाने पर। ‘हमारे अंगने में तुम्हारा क्या काम है’ क्या कह दिया श्रीमतीजी ने कि हमने तय कर लिया कि उत्तर प्रदेश की राजनीति में एक नया सितारा दिखने लगा है। हममें से किसी एक पंडित ने यह नहीं कहा कि शर्म की बात है कि मुलायम सिंह यादव ने परिवारवाद को अपनी ‘समाजवादी’ राजनीति का इतना बड़ा खंभा बना डाला है कि इस विशाल राज्य को एक रियासत में तब्दील कर दिया है। एक-दो हममें से ऐसे हिम्मत वाले थे, जिन्होंने उनके छोटे बेटे की पांच करोड़ रुपए की लंबॉर्गिनी गाड़ी लेकर दबी जबान आलोचना की, लेकिन यह नहीं पूछा हमने कि इतना पैसा आया कैसे मुलायम सिंह के परिवार के पास।
रही बात उत्तर प्रदेश के दूसरे शहजादे की, तो हमने यह कहने की हिम्मत नहीं की कि राहुल गांधी के हर भाषण में सिर्फ मोदी की आलोचना थी। और वह भी बेअदबी से। प्रधानमंत्री आखिर किसी एक दल का नहीं होता, देश का होता है, लेकिन चूंकि कांग्रेस के युवराज को यह बात कभी स्वीकार नहीं हुई, सो आज भी मोदी को लेकर उनकी भाषा ऐसी है, जिससे साबित होता है कि उनको प्रधानमंत्री की जरा भी इज्जत करने की जरूरत नहीं महसूस होती है। उस तरफ थे प्रधानमंत्री खुद, जिन्होंने अपने हर भाषण में कहा कि उत्तर प्रदेश पीछे रह जाता है तो देश आगे नहीं बढ़ सकेगा, लेकिन उनकी इस बात को अनसुना करके हम पंडितों ने खूब हंगामा किया उस कब्रिस्तान-शमशान वाली बात को लेकर। कितने ‘कम्युनल’ हैं मोदी कि इस तरह का घटिया बयान देने से भी नहीं कतराते हैं, रोज टीवी पर पंडितों ने बार-बार कहा। और चूंकि हमारी सेक्युलरिज्म इतनी अजीब है कि हमने इस बात को कभी अहमियत नहीं दी कि ‘सेक्युलर’ दलों की तरफ से ऐसे वादे किए जा रहे हैं, जो सिर्फ मुसलमानों की तरक्की के लिए हैं। यह भी बार-बार कहा गया कि भारतीय जनता पार्टी कभी उत्तर प्रदेश में नहीं सरकार बना पाएगी, क्योंकि एक भी मुसलिम उम्मीवार को खड़ा नहीं किया इस पार्टी ने।अब परिणाम हमारे सामने हैं, जो साबित करते हैं कि देश बदल गया है, देश के मतदाता बदल गए हैं, लेकिन हम राजनीतिक पंडित अब भी उस पुराने दौर में जी रहे हैं, जिसमें सारा खेल था जातिवाद और धर्म-मजहब का। सो, शर्म आनी चाहिए हमें, लेकिन शायद आएगी नहीं। चुनावों का कारवां गुजर जाएगा अगले हफ्ते तक, कारवां का गुबार हवाओं में उड़ जाएगा और हम शायद फिर बने रहेंगे उसी सेक्युलरिज्म के कुएं के मेंढक।