यह मुद्दों का अभाव है कि बेवकूफी? कहना मुश्किल है कि इनमें से किस वजह से इक्कीस विपक्षी दलों ने तय किया कि वे प्रधानमंत्री द्वारा नए संसद भवन के उद्घाटन का बहिष्कार करेंगे। इतना जरूर तय है कि इस बहिष्कार से नरेंद्र मोदी का कम, विपक्ष का ज्यादा नुकसान होगा। संसद भवन देश का होता है, किसी एक व्यक्ति का नहीं। प्रधानमंत्री भी देश के हैं, किसी एक राजनीतिक दल के नहीं। तो, इस बहाने बहिष्कार करना बेमतलब है कि उद्घाटन राष्ट्रपति को करना चाहिए, प्रधानमंत्री को नहीं। बेमतलब यह भी है कि ऐसा करके मोदी ने राष्ट्रपति का अपमान किया है और संसद की गरिमा का भी।

जब कांग्रेस पार्टी इस बहिष्कार की अगुवाई करती है तो समझना और मुश्किल हो जाता है, इसलिए कि इस दल के शाही परिवार के सदस्यों ने अपने दौर में संसद की कई नई इमारतों का उद्घाटन किया है। कभी किसी ने एतराज नहीं किया इस बात पर। ऐसा कहने के बाद स्पष्ट करना चाहूंगी कि जब घोषणा की गई थी नए संसद भवन के निर्माण और इस काम को मोदी के पसंदीदा वास्तुकार को सौंपे जाने की, तो मैंने कहा था कि नए संसद भवन की जरूरत नहीं होनी चाहिए उस समय, जब कोविड का भयानक दौर चल रहा हो। मगर अब जब बन गया है, तो एतराज किस बात का?

बहिष्कार बिल्कुल गैरजरूरी, पीएम ने पूरे विपक्ष को आमंत्रित कर बड़ा दिल दिखाया

शिकायतें कई हो सकती हैं विपक्ष के नेताओं की प्रधानमंत्री से, लेकिन आज का यह बहिष्कार बिलकुल जरूरी नहीं था, बावजूद इसके कि प्रधानमंत्री का फर्ज था विपक्ष को साथ लेने का और यह कोशिश पिछले सप्ताह ही दिखी। विपक्ष और सत्तापक्ष के बीच खाई इतनी गहरी हो गई है मोदी के राज में कि कभी ऐसा लगता है जैसे वे एक-दूसरे से बात तक करने को तैयार नहीं हो सकते, उन मुद्दों पर भी जो राष्ट्रहित के हैं, किसी राजनीतिक दल के नहीं। मगर इस बहिष्कार ने ध्यान आकर्षित किया है हम सबका कि संसद की अहमियत मोदी के राज में कम हो गई है और यह बात लोकतंत्र के हित में नहीं हो सकती।

एक वह समय था, जब संसद के अंदर ऊंचे स्तर की चर्चाएं हुआ करती थीं। याद आते हैं अटल बिहारी वाजपेयी के भाषण, जो इतने आला दर्जे के होते थे कि हम पत्रकार खासकर उनको सुनने के लिए संसद जाया करते थे। याद आते हैं वे दिन जब किसी अहम मुद्दे पर बहस होनी होती थी, तो संसद में उसे सुनने के लिए हम पत्रकार पूरी कोशिश किया करते थे, चाहे अंदर प्रेस गैलेरी में घंटों बैठना पड़े। मोदी ने बेशक संसद को लोकतंत्र का मंदिर कह कर पहली बार अंदर जाने से पहले उसके चौखट पर माथा टेका था, लेकिन उसके बाद जब भी अति-महत्त्वपूर्ण कानून पारित होते हैं, तो प्रधानमंत्री दिखते ही नहीं हैं संसद के अंदर।

जब अनुच्छेद 370 समाप्त किया गया, तो यह काम उन्होंने गृहमंत्री को सौंपा था। जब नागरिकता कानून में ऐसा संशोधन लाया गया था, जिसने पहली बार धर्म के आधार पर बांटा था देश के लोगों को, तब भी उसकी अगुआई गृहमंत्री को सौंप दी थी। ऐसे कानून ऐतिहासिक होते हैं और इनको पारित करने में प्रधानमंत्री की भूमिका होनी चाहिए और विपक्ष की भी। मगर ऐसे कई कानून पारित हुए हैं मोदी राज में, जो बिना बहस के पारित किए गए हैं। तो फिर, संसद का क्या फायदा और नए संसद भवन की क्या जरूरत?

गलती सिर्फ मोदी की नहीं, विपक्ष की भी है। अगर मोदी कम दिखे हैं संसद के अंदर, तो राहुल गांधी और उनकी माताजी भी कम दिखी हैं। राहुल गांधी ने कुछ महीने पहले लंदन में कहा था कि उनको संसद के अंदर बोलने का मौका नहीं दिया जाता, लेकिन शायद भूल गए थे कि उनकी अपनी रणनीति रही है संसद से बहिष्कार की, जब उन मुद्दों पर चर्चा की इजाजत नहीं दी जाती, जो उनकी नजर में सबसे ज्यादा महत्त्वपूर्ण हैं। मुद्दों का चुनाव करना अध्यक्ष का काम है, उनका नहीं, मगर संसद के अंदर उपस्थित रह कर अपनी बात रखना उनकी जिम्मेदारी है। कई लोकतांत्रिक देशों में विपक्ष विरोध जताता है सभ्य तरीके से, जैसे बाहों पर काली पट्टी बांध कर। ऐसा हम क्यों नहीं कर सकते हैं?

तो अब जब देश को एक आलीशान नया संसद भवन मिला है, हमको उम्मीद करनी चाहिए कि इसमें असली मुद्दों पर असली बहस होगी, हल्ला-गुल्ला नहीं। संसद के बाहर खड़े होकर विरोध जताने की बुरी आदत बंद होनी चाहिए, इसलिए कि इसका नुकसान विपक्ष को ज्यादा हुआ है, सरकार का कम। आज का बहिष्कार भी इस शृंखला की एक कड़ी है। आज के दौर में जब टीवी पर देख सकते हैं देश के मतदाता अपने जनप्रतिनिधियों की बातें और उनकी हरकतें, विरोध भी संसद के अंदर रह कर जताने की आदत डालनी चाहिए विपक्ष को। उद्घाटन समारोह में सारे विपक्ष को निमंत्रित करके मोदी सरकार ने बड़प्पन दिखाया है। निमंत्रण को ठुकरा कर विपक्ष ने छोटापन दिखाया है।

सो, भारतीय जनता पार्टी ने बाजी मार ली, यह कह कर कि प्रधानमंत्री के सफल विदेशी दौरे से विपक्ष को तकलीफ हो रही है। बेमतलब है इस बहाने बहिष्कार करना कि नए संसद भवन पर जनता का पैसा बर्बाद हुआ है। लोकतंत्र में ऐसे निर्णय उन पर छोड़े जाते हैं, जो जनता के मतों से चुन कर पहुंचते हैं सत्ता में। मोदी सरकार को पूरा अधिकार है जनता के पैसों को उन चीजों पर खर्च करने का, जो उसकी नजर में देश के हित में होते हैं।