कश्मीर घाटी का हाल देख कर ऐसा लगने लगा है कि शासन कश्मीर सरकार के हाथों से खिसक कर ऐसे लोगों के हाथों में जा पहुंचा है, जो अनजाने हैं और गुमनाम भी। ऐसा न होता तो हत्यारों की कभी हिम्मत न होती शुजात बुखारी जैसे जाने-माने संपादक को सरेआम, बीच बाजार, श्रीनगर के लालचौक में मारने की। इतना निडर थे राइजिंग कश्मीर के संपादक के हत्यारे कि उन्होंने उन दोनों पुलिस वालों को भी फुर्सत से मार डाला, जो उनकी हिफाजत कर रहे थे। तीनों हत्याएं करने के बाद ऐसे फरार हुए कि शायद कभी नहीं पकड़े जाएंगे। उसी दिन, पिछले हफ्ते, औरंगजेब नाम के एक कश्मीरी फौजी को पुलवामा शहर से हथियारबंद लोगों ने अगवा किया और कुछ घंटों बाद उसकी लाश मिली। घर जा रहा था वह सिपाही अपने परिवार के साथ ईद मनाने। आज तक गुमनाम हैं औरंगजेब के हत्यारे।
ऐसा दौर पहले भी देखा है मैंने कश्मीर घाटी में, कोई बीस साल पहले। कश्मीर की राजनीतिक समस्या पर किताब लिख रही थी नब्बे के दशक में, सो तकरीबन हर महीने जाया करती थी कश्मीर। उस समय आंदोलन ‘आजादी’ के नाम पर चल रहा था, इस्लाम के नाम पर नहीं, सो मुझे हमदर्द समझ कर मिलते थे इस आंदोलन के गुमनाम नेता। श्रीनगर, सोपोर और शोपियां की तंग गलियों में मुझे नकाब पहना कर ले जाया करते थे आजादी के ये सिपाही, जहां मेरी मुलाकात होती थी नकाबपोश, हथियारबंद नेताओं से। एक बार लेकिन मुझे ऐसा व्यक्ति मिला, जिसको संकोच नहीं था अपना नाम अब्दुल मजीद डार बताने में। लंबी बातचीत हुई हमारे बीच, जिसके अंत में उसने पूछा कि क्या मैंने अटल बिहारी वाजपेयी का इंटरव्यू देखा था टीवी पर कल रात। देखा था मैंने।
उस इंटरव्यू में अटलजी ने कहा था कि मस्जिदों से अगर राजनीति होगी, तो मंदिरों से भी होगी और इस बात से अब्दुल मजीद बहुत प्रभावित हुए थे। सो, उन्होंने कहा, ‘सीधी बात करते हैं भारतीय जनता पार्टी के लोग। हमको लगता है कि अगर दिल्ली में भारतीय जनता पार्टी की सरकार बनती है कभी, तो कश्मीर का मसला हल हो सकता है। क्या बन सकती है उनकी सरकार?’ कुछ वर्ष बाद अटलजी प्रधानमंत्री बने और काफी हद तक कश्मीर में शांति ला सके ‘इंसानियत, जमहूरियत और कश्मीरीयत’ की नीति पर। अशांत-सी शांति थी, लेकिन कम से कम पर्यटक वापस आने लगे कश्मीर और बॉलीवुड से फिल्म निर्देशक भी।
इसलिए अजीब बात है कि भारतीय जनता पार्टी के एक प्रधानमंत्री के दौर में कश्मीर घाटी में शांति बहाल रही और भाजपा के दूसरे प्रधानमंत्री के दौर में स्थिति इतनी बिगड़ चुकी है कि ऐसा लगने लगा है कि नब्बे का दशक वापस आ गया है। इस बार ज्यादा खतरनाक रूप लेकर, क्योंकि अब लड़ाई आजादी की नहीं, जिहाद है कश्मीर में इस्लामी देश स्थापित करने की। बुरहान वानी ने स्पष्ट किया बार-बार अपने हर वीडियो में कि वह इस्लाम का सिपाही था, आजादी का नहीं। यानी आंदोलन का चरित्र बदल गया, लेकिन समझ में नहीं आता कि क्यों न दिल्ली में गृहमंत्री के कानों में खतरे की घंटी इस बात को सुनने के बाद बजने लगी और न ही श्रीनगर में मुख्यमंत्री के कानों में।
सो, जब बुरहान वानी को सुरक्षा कर्मियों ने 2016 में मुठभेड़ में मारा और श्रीनगर की सड़कों पर हजारों पत्थरबाज नौजवान और छोटे बच्चे सैलाब बन कर उतर आए, ऐसा लगा कि उनको रोकने के लिए न कोई रणनीति थी और न ही घाटी में शांति बहाल करने की कोई ठोस नीति। आसान नहीं है कश्मीर में शांति बहाल करना। यह काम प्रधानमंत्री ही कर सकते हैं, लेकिन नरेंद्र मोदी की कश्मीर नीति कभी सख्ती से पेश आने की रही है, तो कभी प्यार से पेश आने की। नए सिरे से समाधान ढूंढ़ने का अवसर था मोदी के पास, लेकिन उनसे पहली गलती तब हुई जब 2014 में बाढ़ राहत लोगों तक पहुंचाने में इतनी देर कर दी उनकी सरकार ने कि लोगों को राहत का काम खुद करना पड़ा। तब मैंने कई बार दिल्ली में भाजपा के आला अधिकारियों से कहा था कि अगर राहत का काम जल्दी हो जाए, तो प्रधानमंत्री की छवि में चार चांद लग जाएंगे। अनसुनी रहीं मेरी नसीहतें, बावजूद इसके कि उमर अब्दुल्ला के चुनाव में बुरी तरह हारने का मुख्य कारण यही था कि बाढ़ के समय लोगों को लगा कि वे गायब रहे थे।
अब स्थिति ऐसी बन गई है कश्मीर घाटी में कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चा होने लगी है। पिछले हफ्ते संयुक्त राष्ट्र ने पहली बार अपने मानवाधिकार सूची में कश्मीर में मानवाधिकारों के उल्लंघन को लेकर टिप्पणी की और सुझाव दिया कि इनकी तहकीकात होनी चाहिए, किसी स्वतंत्र आयोग द्वारा। भारत सरकार ने खूब गुस्से में जवाब दिया है कि कश्मीर हमारा अंदरूनी मामला है और इस दखल की कोई जरूरत नहीं है, लेकिन नौबत यहां तक पहुंचनी ही नहीं चाहिए थी। कश्मीर की समस्या पुरानी है। इसे पैदा करने में सबसे ज्यादा दोष कांग्रेस का है, लेकिन अब इतिहास को याद करने से कुछ हासिल नहीं होने वाला। अब सिर्फ एक ही रास्ता है प्रधानमंत्री के सामने और वह यह कि इस समस्या पर वे स्वयं ध्यान दें और एक ठोस नीति के तहत इसका समाधान ढूंढ़ने का प्रयास करें।
अब्दुल मजीद डार अब नहीं रहे। उनकी हत्या 2001 में गुमनाम हत्यारों ने की थी। वे जीवित होते आज तो शायद दुखी होते कि भारतीय जनता पार्टी की दिल्ली में दो बार सरकारें बनने के बाद भी कश्मीर की समस्या का समाधान नहीं हुआ है।