दुनिया बहुत तेजी से आगे बढ़ रही है, विज्ञान बहुत ज्यादा समृद्ध हो गया। कृत्रिम बुद्धिमत्ता ने हर कुछ अपने वश में कर लिया लगता है। घर में लगे तमाम उपकरणों को नियंत्रित करने के अलावा तरह-तरह के कामकाज के लिए ऐसे तकनीक छा गए हैं जो बोलते या इशारा करते ही शुरू हो जाते हैं। लेकिन विडंबना यह कि इक्कीसवीं सदी के आधुनिकीकरण के इस दौर में भी अंधविश्वास नए-नए रूप में और ज्यादा फल-फूल रहा है। समृद्ध, विकसित, विकासशील और नित नई वैज्ञानिक उपलब्धियों, धरती तो दूर, आसमान में कुलांचे भरती नई दुनिया कब तक ऐसे अंधविश्वासों को ढोएगी?
रेखा और बिंदु का फर्क यानी रेखा में लंबाई हो, चौड़ाई न हो और बिंदु में लंबाई-चौड़ाई न हो, अनंत बहस का विषय हो सकता है, लेकिन यही सच है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण का सबसे गहराइयों को छूने वाला तत्त्व यही है कि जब प्रश्न उठाने की जरूरत हो तो चुप्पी तोड़ कर सवाल करें, क्योंकि इसी से अंधविश्वास टूटता है। लेकिन पता नहीं किस भ्रम या अज्ञात भय से कहीं न कहीं अनचाहे, अनजाने, अनकहे सब कुछ जानते, समझते हुए भी अपढ़ छोड़िए, पढ़े-लिखे भी अंधविश्वास का शिकार हो जाते हैं या किसी गुप्त उद्देश्य के निहितार्थ हवा देने लगते हैं।
बीस दिन की बच्ची से लेकर पांच-छह साल की उम्र के बच्चों के साथ दर्दनाक हरकतें
परंपरा के नाम जिस तरह के अंधविश्वास अब भी सामने आते हैं, वे हैरान कर देते हैं। मध्य प्रदेश के शहडोल संभाग से भी इस साल की शुरुआत में बच्चों को दागने की घटनाओं की खबरें आई थीं। बीस दिन की बच्ची से लेकर पांच-छह साल की उम्र के बच्चों को दागने की दर्दनाक घटनाओं से राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग तक को चेतना पड़ा। राजस्थान में बीते वर्ष सात साल के बच्चे की सर्दी-जुकाम ठीक करने के नाम पर हाथ-पैर और पेट पर दागा गया, जिससे उसकी मौत हो गई। मामला तूल पकड़ने के बाद तांत्रिक पर गैरइरादतन हत्या का प्रकरण दर्ज हुआ। लेकिन न तो ऐसी परंपराएं रुकीं और न दागने का सिलसिला थमा।
इस संदर्भ में दिल्ली में एक जुलाई, 2018 को बुराड़ी में हुई घटना ने पूरे देश को हिला दिया था। छह दिन की साधना बाद घर के दस सदस्यों ने कथित तौर पर महान शक्ति पाने और संपन्नता प्राप्त होने की सिद्धि के भ्रम में फंदा लगा कर झूल गए। न शक्ति बचा सकी, न संपन्नता मिली, मौत जरूर गले पड़ गई। 18 सितंबर, 2015 को छत्तीसगढ़ के जशपुर बाजार में मनपसंद भूत बिकने आए। यहां तक कि नोट कमाने वाला भूत भी आया। 21 सितंबर 2015 को कपिलवस्तु में महिलाओं ने थानेदार पर टोटका कर नहलाया और बारिश की मन्नतें की। बारिश न होने से सूख रही धान की फसल को बचाने इंद्रदेव से प्रार्थना कर थानेदार को ‘राजा’ मान कर पानी में डुबो कर टोटका किया गया। अब राजा-रजवाड़े तो रहे नहीं, इसलिए थानेदार को ‘राजा’ मान लिया गया।
अज्ञात भय से बिना डॉक्टर की सलाह के ओझा, गुनिया, तांत्रिकों के फेर में पड़ रहे लोग
देश में हर साल घटने वाली ऐसी घटनाओं में ये महज चंद हैं। ऐसे सभी कारणों की तह में अंधविश्वास ही निकलता है। कभी किसी बीमारी को ठीक करने तो कभी मनचाहे विवाह, नौकरी, वशीकरण जैसे अनगिनत कारण मासूमों की बलि की वजह बनते हैं। कई बार तो ऐसी बीमारी जो जांच से पता चल सकती है कि अज्ञात भय से बिना चिकित्सीय परामर्श के ओझा, गुनिया, तांत्रिकों के फेर में लोग पड़ जाते हैं। ऐसा भी नहीं कि अंधविश्वास की जड़ें भारत में ही मजबूत हों। अमेरिका, रूस, ब्रिटेन, चीन, जापान, मिश्र, दक्षिणी कोरिया, न्यूजीलैंड, स्पेन, यूनान, पाकिस्तान, बंगलादेश, नेपाल… यानी दुनिया का कोई कोना अछूता नहीं है।
खाली कैंची चलाना, कुछ नंबरों का अशुभ मानना, उल्लू को देखना, घर के अंदर सीटी बजाना, यात्रा के वक्त दाहिना पैर आगे बढ़ाना, पड़ोसी को नमक उधार देना जैसे हजारों अंधविश्वास अब भी दुनिया भर में प्रचलित हैं। हैरानी की बात है कि सड़क पर बिल्ली रास्ता काट दे तो अपशकुन, लेकिन घर की बिल्ली से लिपट-लिपट कर बाहर निकलना, चंद्रग्रहण-सूर्यग्रहण पर बाहर नहीं निकलने के वैज्ञानिक कारणों के बजाय अंधविश्वासी बातों पर भरोसा, छींकने पर रुक जाना, भले ही सर्दी से हो, रात में झाड़ू नहीं लगाना, दिन विशेष को दाढ़ी-बाल नहीं कटवाना, लोहा, तेल, काली उड़द दाल नहीं खरीदना, कभी आभूषणों के रूप में वैभव या संपन्नता प्रदर्शित करने वाले रत्न आज भाग्य से जोड़ दिए गए हैं। नींबू, नजरबट्टू, सिंदूर, चूड़ियां, हल्दी, मुर्गी, बकरा, पत्थर, संख्याएं, रंग, बाल, उतरे कपड़े, पत्थर, निशान, दीवार पर गोबर की लकीर, रंग, गंडा-ताबीज, राख, हड्डी जैसी चीजें जो खुद भी या तो निर्जीव हैं या सजीव होकर भी इतनी निर्बल कि खुद नहीं बच पातीं, दूसरों को बचाने की उम्मीद बंधाती हैं।
पुराने जमाने में बीमारी में भभूति लगाने का प्रचलन था। तब होने वाले यज्ञों में कई औषधीय गुणों वाली वस्तुएं भरपूर डाली जाती थीं, जिसके चलते भभूति को लोग पवित्र और रोगों नाशक मानते थे। अब भारत में तमाम ऐसे ओझा, गुनिया, तांत्रिक, बाबाओं की भारी संख्या है, जो अपने फरेब के जाल में लोगों को फंसा हर तरह से लूटते हैं। हाल के दिनों में ऐसे कितने बाबा हैं जो बेनकाब हुए, कई जेल के सीखचों तक पहुंचे। दूसरों के दिन ठीक करने वाले खुद जेल की कोठरी में दिन काट रहे हैं। अपनी अलाय-बलाय खुद दूर नहीं कर पाए। भारतीय संविधान का अनुच्छेद 51-ए वैज्ञानिक चेतना के विस्तार की वकालत करते हुए कहता है कि भारत के सभी लोगों के बीच सामंजस्य और सामान्य भाईचारे की भावना निरंतर बढ़ती रहनी चाहिए और धार्मिक, भाषाई और क्षेत्रीय या अनुभागीय विविधता की भावना का त्याग होना चाहिए। साथ ही महिलाओं की गरिमा के प्रति अपमानजनक प्रथाओं को त्यागना आवश्यक है।
राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार केवल जादू-टोने के चलते 2012 से 2021 के बीच देश भर में 1098 मौतें हुईं। वहीं बीते कुछ दशकों में बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ़ और ओड़ीशा में लगभग 800 से ज्यादा महिलाओं को टोनही या डायन बताकर सरेआम मार डाला गया। अंधविश्वास, अज्ञात भय, बलशाली, वैभवशाली बनने खातिर फरेबियों और पाखंडियों के जाल में लुटने, पिटने और मरने वालों की ठीक-ठीक संख्या नहीं है, वरना लाखों तक पहुंच जातीं।
ऐसी घटनाएं पूरे देश से अक्सर इस दौर में भी सामने आ जाती हैं जो महज एक समाचार के रूप में ध्यान जरूर खींचती हैं। न ये घटनाएं रुकती हैं, न इनके प्रचार-प्रसार में लगे ट्रेनों, सार्वजनिक वाहनों पर चिपके पोस्टर हटाए जाते हैं, न दीवारों पर लिखना रुकता है। अब सोशल मीडिया में भी खुलेआम किए जाने वाले ऐसे दावों पर साइबर नियंत्रण मौन दिख रहा है।
अंधविश्वास डर, भय या लोभ के रास्तों पर भटका कर ऐसे नतीजों पर ला खड़ा करता है, जहां पछतावा, नुकसान या सब कुछ गंवाने के अलावा अंत में कुछ नहीं मिलता। अच्छा होता कि अंधविश्वास के हर ओर फैले मकड़जाल में उलझने और उलझाने वाले इस सच को हम स्वीकारते और सरकारें, स्वयंसेवी संस्थाएं, जनप्रतिनिधि और समाज के तमाम जिम्मेदार इसके निर्मूलन के लिए कुछ कर पाते!