लाइनों की वजह से सौ मरे, तो चैनलों पर एक मिनट का मौन तक नहीं दिखा, लेकिन अम्मा सिधारीं तो सारे चैनल शोक मनाते दिखे! मरने और मरने में फर्क होता है। होना भी चाहिए। महामहिम मरे तो सब रोते हैं, मामूली आदमी लाइन में मरे तो मरना नहीं होता।  खबरों का सीन अपोलो अस्पताल था। बे्रकिंग न्यूज-दर-बे्रकिंग न्यूज बरसती रहीं। अभी अम्मा को हृदयाघात हुआ, अब इलाज हो रहा है, दो तमिल चैनलों के हवाले से न्यूज ब्रेक की कि अम्मा चल बसीं, फिर न्यूज ब्रेक की कि अम्मा जिंदा हैं। ‘इकमो’ लगाया है। चैनल पर डॉक्टर आए और समझाने लगे कि ‘इकमो’ क्या-क्या काम करता है। कुछ चित्र से समझाते रहे, लेकिन एक चैनल पर एक डॉक्टर तो साक्षात मशीन ही उठा लाए कि यह ऐसे काम करती है। ज्यों-ज्यों समझाते त्यों यह क्लीयर होता कि जयललिताजी को ‘इकमो’ ही चला रहा है।  रिपोर्टर रोती हुई भीड़ को डरते हुए लाइव परिभाषित करते चलते थे कि लोग बढ़ रहे हैं, गुस्सा बढ़ रहा है, शोर बढ़ रहा है, कुछ पत्थर चले हैं, फिर जब खबर संभल गई, तो पत्थर भी संभल गए। जो चैनल कल तक अम्मा को भ्रष्ट बताते रहे, वही महिमामंडन करने लगे।
खबर के संभलने के बाद भीड़ अनुशासित होने लगी और अम्मा के देहांत के बाद भी अनुशसित बनी रही, तो रिपोर्टर उसी भीड़ की चापलूसी करने लगे कि कमाल की भीड़ है कि इतनी भीड़ है और सब कुछ शांत है!

स्वर्गीय अम्मा शव-शैया पर शांत लेटी दिखती रहीं। पास में उनकी सहेली शशिकला खड़ी दिखती रहीं। खबरें लाइव रहीं। वीवीआइपी पहुंचते रहे। कवरेज पाते रहे। वेंकैया नायडू देर तक दिखते रहे। फिर पीएम आए। वे देर तक शोक के सीन में गमगीन दिखते रहे। सबको नमन करते रहे। ढांढस बंधाते रहे!  साथ ही अम्मा की जीवनी चलती रही। एमजीआर के साथ उनकी फिल्में दिखती रहीं। गाने दिखते रहे। फिल्म से राजनीति तक का सफर बीहड़ बताया जाता रहा और उनके निंरकुश मिजाज तक के गीत गा डाले गए! एक तमिलभाषी हिंदी में बोला: अम्मा ‘झांसी की रानी’ थीं! चैनल बोले: वे देश की अम्मा थीं!  एक चैनल ने अम्मा के साथ सिम्मी ग्रेवाल का लिया पुराना इंटरव्यू दिखाया। सरल अंगरेजी में वे बोलती रहीं। फिर अचानक ‘आ जा सनम मधुर चांदनी में हम तुम मिलें तो आ जाएगी बहार’ को अपनी आवाज में अच्छी तरह गाया भी।  चैनल तुरंता राजनीति के इतने भूखे थे कि तुरंत हिसाब लगाने लगे। हर चैनल पर एक-सी चिंता, एक-से सवाल कि आगे क्या होगा? तमिल राजनीति किस करवट बैठेगी? शशिकला सचिव बनेंगी या थंपीदुराई बनेंगे? एआइडीएमके टूटेगी या साबित रहेगी?

जितनी देर अम्मा की खबरें रहीं, उतनी देर बैकों की लाइनें आउट रहीं! सत्ता के लिए राहत की बात रही। ज्यों ही कैमरे दिल्ली लौटे, लंबी लाइनें दिखने लगीं। एनडीटीवी, इंडिया टुडे, न्यूज 18 लाइन में लगे लोगों को दिखाने लगे। संसद में हंगामे रहे। राज्यसभा बार-बार स्थगित होती रही। एंकर इसके लिए विपक्ष को पकड़ते और उसी भाषा में आरोप लगाने लगते, जिस भाषा में सत्ता दल के प्रवक्ता लगाते हैं कि आप संसद क्यों नहीं चलने दे रहे? विपक्ष के नेता कहते कि हम ‘एडजर्नमेंट मोशन’ की शर्त के साथ वोट-बहस चाहते हैं, हम पीएम के दर्शन करना चाहते हैं, वे सदन में आएं, हमारी सुनें, अपनी सुनाएं। एंकर कहते कि ऐसी जिद शोभा नहीं देती! अर्णव के टाइम्स नाउ से हटने के बाद, ऐसा लगता है कि कई चैनलों में अर्णव के कई क्लोन आ बैठे हैं और वे उनसे भी आगे बढ़ कर विपक्ष को जवाबदेह बनाते रहते हैं। कांग्रेस के गुलाम नबी आजाद राज्यसभा में व्यर्थ ही चीखते दिखे कि लाइनों के कारण सौ से ज्यादा लोग मर चुके हैं, उनको श्रद्धांजलि चाहिए! राहुल गांधी व्यर्थ ही पूछते दिखे कि सौ से ज्यादा लोग मर गए हैं, उनका जिम्मेदार कौन है?

एक अंगरेजी चैनल का एक क्लोन एंकर दो अंगरेजीदां पैनलिस्टों के साथ, लाइन में लगी जनता की ‘अमानवीयता’ पर, चर्चा चलाता दिखा कि पैसे के लिए बैंक की लाइन में लगा एक आदमी अभी मरा पड़ा है और उससे बेपरवाह एक युवक उसे लांघता चला गया है। बाकी लोग उसकी लाश से बेपरवाह लाइन में ज्यों के त्यों खड़े हैं! धिक्कार है!इसे सुन कर दोनों पैनलिस्ट बारी-बारी से एंकर की हां में हां मिला कर कहते रहे कि समाज में हमदर्दी कम हो रही है और हम इसके आदी होते जा रहे हैं! उस व्यक्ति को लाइन में लगने और मर जाने के लिए किसने मजबूर किया? यह सवाल न एंकर पूछता है, न दोनों महानों में से कोई पैनलिस्ट! और कैसे तो महान पैनलिस्ट?एक शिक्षाविद्, दूसरा चिंतक! इन दिनों तो कई जाने-माने चिंतक-फिंतक इसी तरह ‘हिज मास्टर्स वॉयस’ जैसे बजते दिखते हैं।  लोग खुशी से लाइन में लगे हंै, तो खुशी के मारे ही मरे होंगे! खुशी से मरना भी क्या कोई ‘खबर’ होता है? जो चैनल आदमी को कैशलेस बनाने वाली मशीनों को दिन-रात बेच रहे हैं, जिनके एंकर उनकी सेल में लगे दिखते हैं, वे मरने वालों की खबर क्यों दें? ऐसे लोग स्मार्ट फोन लें, ‘एप’ उतारें और लाइन में लग कर मरने से बचें! ये ऐसा क्यों नहीं करते?

इतने में बड़ी अदालत ने एक पीआइएल को निपटाते हुए फैसला दिया कि फिल्म के शुरू होने से पहले और अंत में सिनेमा हॉलों में राष्ट्रध्वज को फहरता दिखाना और राष्ट्रगान को बजाना जरूरी। इस अवधि में दर्शक खड़े रहें। दरवाजे बंद रहें… देशभक्ति के मारे एंकरों को तब याद आया कि यह तो फ्री-चॉयस पर ही चोट हो गई बॉस! बहसें शुरू हुर्इं। वकील बताने लगे कि देशभक्ति थोपी नहीं जा सकती! लेकिन क्या-क्या नहीं थुपे जा रहा? खुद चैनल क्या-क्या नहीं थोपते रहते? शुक्रवारी दोपहर। लाइन लगी देख पूछता अंगरेजी रिपोर्टर: परेशानियां हैं? क्या आगे बेहतर होगा? आदमी कहता है कि कुछ दिन बाद ठीक हो जाएगा! एंकर कहती है: ‘एडवांटेज टू मोदी’! दुर्दमनीय राहुल फिर भी कहे जाते हैं कि ‘पेटीएम’ का मतलब: ‘पे टू पीएम’!