तत्त्व को अलग-अलग दृष्टियों से देखने के कारण तथा भाषिक अभिव्यक्ति के कारण पंथ-भेद हो जाते हैं। इस विश्व में सभी पदार्थों की सत्ता है। सत्ता अणु में भी है और महत् में भी है। ‘सत्ता’ एक भी है और अनेक भी है। ‘सत्ता’ सत् भी है और असत् भी है। ‘सत्ता’ चेतन भी है और अचेतन भी है। ‘सत्ता’ नित्य भी है और अनित्य भी है। विज्ञान का विषय अचेतन सत्ता का अध्ययन है। विज्ञान अचेतन पदार्थ का विश्लेषण एवं विवेचन करता है। अध्यात्म का पथिक साधक चेतन सत्ता का साक्षात्कार करता है।
विश्व में मृण्मय से लेकर चिन्मय तक की सत्ता है। विज्ञान व अध्यात्म के विवेच्य पृथक हैं। अध्यात्म परमार्थ ज्ञान है, आत्मा-परमात्मा संबंधित ज्ञान है, इल्मे इलाही है, चिन्मय सत्ता का ज्ञान है। विज्ञान लौकिक जगत का ज्ञान है, भौतिक सत्ता का ज्ञान है; पदार्थ, वस्तु, रसायन, प्रकृति का विश्लेषणात्मक-विवेचनात्मक ज्ञान है। सामान्य धारणा है कि दोनों विपरीतार्थक हैं। चिंतक व मनीषी विद्वानों को भविष्य के लिए यह सोचना है कि दोनों की मूलभूत अवधारणाओं में किस प्रकार सामंजस्य स्थापित किया जा सकता है? आज का युवा धर्म-दर्शन को भी विज्ञान की तार्किक कसौटी पर कसना चाहता है। क्या विज्ञान एवं अध्यात्म की मूलभूत अवधारणाओं में सामंजस्य स्थापित किया जा सकता है। इस संबंध में मेरी धारणा है कि यदि दोनों अपने-अपने आग्रह छोड़ दें तो दोनों के बीच सामंजस्य के सूत्र खोजे जा सकते हैं। दोनों सत्ता को अविनाशी मानते हैं।
विज्ञान मानता है कि मैटर नष्ट नहीं हो सकता, उसका रूपांतरण संभव है। अध्यात्म स्वीकार करता है कि आत्मा नष्ट नहीं हो सकती; वह अनादि-निधन है। भविष्य के विज्ञान को अपनी भौतिकवादी सीमाओं का अतिक्रमण करना होगा। विज्ञान विशुद्ध रूप से भौतिकवादी रहा है। विज्ञान विश्व के मूल में पदार्थ व ऊर्जा को ही अधिष्ठित देखता है। विज्ञान को अपार्थिव चिन्मय सत्ता का भी संस्पर्श करना होगा। भविष्य के विज्ञान को अपना यह आग्रह छोड़ना होगा कि जड़ पदार्थ से चेतना का आविर्भाव होता है।
डार्विन के विकासवाद के इस सिद्धांत को तो स्वीकार करना संभव है कि अवनत कोटि के जीव से उन्नत कोटि के जीव का विकास होता है, पर उनका यह सिद्धांत तर्कसंगत नहीं है कि अजीव से जीव का विकास होता है। मेरी इस धारणा अथवा मान्यता का तार्किक कारण है। जिस वस्तु का जैसा उपादान कारण होता है, वह उसी रूप में परिणत होता है। चेतन के उपादान अचेतन में नहीं बदल सकते। अचेतन के उपादान चेतन में नहीं बदल सकते। न कभी ऐसा हुआ है, न हो रहा है और न होगा कि जीव अजीव बन जाए तथा अजीव जीव बन जाए। पदार्थ के रूपांतरण से स्मृति एवं बुद्धि के गुणों को उत्पन्न किया जा सकता है मगर चेतना उत्पन्न नहीं की जा सकती।
चेतना का अध्ययन अध्यात्म का विषय है। जो जानता है, वह चेतना है; जो नहीं जानता, वह अचेतना है। स्मृति एवं बुद्धि तथा मस्तिष्क के समस्त व्यापार ‘चेतना’ नहीं हैं। पदार्थ के रूपांतर से स्मृति एवं बुद्धि के गुणों को उत्पन्न किया जा सकता है मगर चेतना उत्पन्न नहीं की जा सकती।
एक दृष्टि ने माना कि परम चैतन्य से ही जड़ जगत की सृष्टि होती है। दूसरी दृष्टि मानती है कि भौतिक द्रव्य की ही सत्ता है। भौतिक पदार्थ के अतिरिक्त अन्य किसी की सत्ता नहीं है। बुद्धि व मन की भांति चेतना भी ‘स्नायुजाल की बद्धता’ अथवा ‘विभिन्न तंत्रिकाओं का तंत्र’ है जो अंतत: अणुओं एवं आणविक क्रियाशीलता का परिणाम है। भविष्योन्मुखी दृष्टि से विचार करने पर यह स्वीकार करना होगा कि दोनों की अपनी अपनी भिन्न सत्ताएं हैं।
अजीव अथवा जड़ पदार्थ का रूपांतरण ऊर्जा (प्राण), स्मृति, कृत्रिम प्रज्ञा एवं बुद्धि में संभव है, पर इनमें चैतन्य नहीं होता। कंप्यूटर चेतनायुक्त नहीं है। कंप्यूटर को यह चेतना नहीं होती कि वह है, वह कार्य कर रहा है। कंप्यूटर मनुष्य की चेतना से प्रेरित होकर कार्य करता है। उसे सुख-दुख की अनुभूति नहीं होती। उसे स्व-संवेदन नहीं होता। ‘मैं हूं’, ‘मैं सुखी हूं’, ‘मैं दुखी हूं’- शरीर को इस प्रकार के अनुभवों की प्रतीति नहीं होती। इस प्रकार के अनुभवों की जिसे प्रतीति होती है, वह शरीर से भिन्न है। जिसे प्रतीति होती है उसे भारतीय दर्शन ‘आत्मा’ शब्द से अभिहित करते हैं। आत्मा में चैतन्य नामक विशेष गुण है। आत्मा में जानने की शक्ति है। आत्मा के द्वारा जीव को अपने अस्तित्व का बोध होता है। ज्ञान का मूल स्रोत आत्मा ही है। आत्मा अमूर्त तत्त्व है। इंद्रियों का वह विषय नहीं है। इंद्रियां उसे जान नहीं पातीं। इससे इंद्रियों की सीमा सिद्ध होती है। इससे आत्मा का अस्तित्व नहीं है- यह सिद्ध नहीं होता।
हमारे मनीषियों ने अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय एवं आनन्दमय कोषों की विवेचना की है। संप्रति इसकी विवेचना का अवकाश नहीं है। हम मनीषियों का ध्यान इस ओर आकृष्ट करना चाहते हैं कि विज्ञान व अध्यात्म के बीच सामरस्य का मार्ग स्थापित करने में ‘मनोविज्ञानह्ण का अध्ययन सहायक हो सकता है। मनोविज्ञान में ‘संज्ञानात्मक मनोविज्ञान’ पर कार्य हो रहा है। पहले मनोविज्ञान उत्तेजन-प्रतिक्रिया व्यवहार के आधार पर ही मानवीय व्यवहार का अध्ययन करता था। आज का मनोविज्ञान उद्दीपनों और प्रतिक्रियाओं के आधार पर मानवीय व्यवहार का अध्ययन करने तक सीमित नहीं है। अब मनोविज्ञान मानवीय व्यवहार को समझने के लिए प्रत्यक्षण, स्मृति, कल्पना, तर्क, निर्णय, अनुभव बोध आदि का भी उपयोग कर रहा है। संज्ञानात्मक मनोविज्ञान के अध्ययन का आधार संज्ञान है।
संवेदन व संज्ञान में अंतर है। संवेदन के द्वारा प्राणी को उत्तेजना का आभास होता है। संज्ञान शक्ति के द्वारा मनुष्य संवेदनों को नाम, रूप, गुण आदि भेदों से संगठित कर, ज्ञान प्राप्त करता है। योग साधना में ध्यान, धारणा तथा समाधि का विशद वर्णन एवं विवेचन सुलभ है। मनोविज्ञान को गहन समाधि व स्वभावोन्मुख गहन ध्यान में लीन साधक की शांत, निर्विकल्प, विचारशून्य तथा क्रियाहीन स्थिति के अंतर्निरीक्षण की विधि व पद्धति का संधान करना चाहिए। इस प्रकार का गहन अध्ययन अध्यात्म तथा विज्ञान के मध्य सेतु का काम कर सकता है।
मैंने बहुत-से तथाकथित साधकों को निकट से देखा, जाना, पहचाना है। वे केवल कहते हैं, पर उनका आचरण कपट-भरा होता है। उनकी करनी-कथनी का द्वैत इतना अधिक होता है कि उनका जीवन अपवित्र, विकारी व विकृत कोटि का बन जाता है। वे अध्यात्म, दर्शन, धर्म, योग, साधना जैसे पवित्र, पावन एवं विशुद्ध चेतना के पर्याय को अपनी स्वार्थ-सिद्धि के लिए कलंकित करते हैं। उनके पास वाक चातुर्य का भंडार होता है जिसके बल पर वे अपने अंध-भक्तों को प्रभावान्वित करते रहते हैं।
भारत में चिंतन के धरातल पर जितनी विश्वजनीनता रही है, उदारता रही है, विशालता रही है, अभेदता रही है, भेदभावविहीनता रही है, समतावादिता व समदर्शिता रही है। सामाजिक धरातल पर उतनी ही संकीर्णता, असमानता, भेदभावपूर्णता रही है। दर्शन के धरातल पर हमारे मनीषियों ने उद््घोष किया- ‘तच्चैकं सर्वभूतेषु’ (वह एक ही सब प्राणियों में वर्तमान है), मगर समाज के धरातल पर वर्णों व जातियों को उनके कर्म के आधार पर नहीं बल्कि जन्मना आधार पर ऊंची-नीची, छोटी-बड़ी कोटियों में बांट दिया गया और तथाकथित निम्न कोटि की जाति में जन्म लेने वालों को मानवीय गरिमा व अधिकारों से वंचित कर दिया गया।