आमतौर पर यही माना जाता है कि बाबासाहेब आंबेडकर समाज के दलित वर्ग के उद्धार के संबंध में क्रियाशील रहे। इसलिए उन्होंने दलित वर्ग की स्त्रियों के विषय में ही चिंतन किया होगा। पर वे राष्ट्र को एक नया स्वरूप देना चाहते थे। एक ऐसा स्वरूप, जिसमें किसी भी व्यक्ति को दलित जीवन न जीना पड़े। आंबेडकर की दृष्टि में वे सभी भारतीय स्त्रियां दलित श्रेणी में थीं, जो मनुवादी सामाजिक नियमों के कारण अपने अधिकारों से वंचित थीं।
आंबेडकर भली-भांति समझ गए थे कि जब तक स्त्रियों का ध्यान शिक्षा की ओर नहीं जाएगा और उनमें आत्मसम्मान नहीं जागेगा तब तक उनका उद्धार संभव नहीं है। वे स्त्रियों को शिक्षा के महत्त्व से परिचित कराते थे। उन्होंने शिक्षा के साथ ही जीवन की उन बुनियादी बातों की ओर भी ध्यान आकृष्ट किया, जिन पर आमतौर पर किसी का ध्यान नहीं जाता था। वे जहां भी, जो भी समझाते एकदम स्पष्ट शब्दों में, जिससे उनकी कही हुई बातों को स्त्रियां सुगमता से समझ जातीं और आत्मसात करतीं। आंबेडकर ने महाड में चर्मकार समुदाय की स्त्रियों को संबोधित करते हुए कहा था कि ‘साफ-सुथरा जीवन व्यतीत करो। इसकी कभी चिंता न करो कि तुम्हारे वस्त्र फटे-पुराने हैं। यह ध्यान रखो कि वे साफ हैं। तुम्हारे वस्त्र की स्वतंत्रता पर कोई प्रतिबंध नहीं लगा सकता और न ही कोई तुम्हें जेवरात के चुनाव से रोक सकता है। अपने मन को स्वच्छ बनाने का ध्यान रखो और स्व-सहायता की भावना अपने में पैदा करो।’ इसी सभा में उन्होंने कहा था कि ‘तुम्हारे पति और पुत्र शराब पीते हैं तो उन्हें खाना मत दो। अपने बच्चों को स्कूल भेजो। स्त्री-शिक्षा उतनी ही आवश्यक है जितनी कि पुरुष शिक्षा।’
आंबेडकर जिन दिनों जनजागरण अभियान के अंतर्गत मध्यप्रदेश, मुंबई और मद्रास का तूफानी दौरा कर रहे थे, उन दिनों उन्होंने मालाबार में दलित समुदाय की स्त्रियों को समझाया कि ‘तुम्हारे गांव में ब्राह्मण चाहे कितना भी निर्धन क्यों न हो, अपने बच्चों को पढ़ाता है। उसका लड़का पढ़ते-पढ़ते डिप्टी कलेक्टर बन जाता है। तुम ऐसा क्यों नहीं करतीं? तुम अपने बच्चों को पढ़ने क्यों नहीं भेजतीं? क्या तुम चाहती हो कि तुम्हारे बच्चे सदा मृत पशुओं का मांस खाते रहें? दूसरों का जूठन बटोर कर चाटते रहें?’
नागपुर में ‘दलित वर्ग परिषद्’ की सभा में उपस्थित हजारों स्त्रियों को संबोधित करते हुए आंबेडकर ने कहा था: ‘नारी जगत की प्रगति जिस अनुपात में हुई होगी, उसी मानदंड से मैं उस समाज की प्रगति को आंकता हूं।’ उन्होंने गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन करने वाली स्त्रियों से आग्रह किया था कि ‘आप सफाई से रहना सीखो, सभी अनैतिक बुराइयों से बचो, हीन भावना को त्याग दो, शादी-विवाह की जल्दी मत करो और अधिक संतानें पैदा मत करो। पत्नी को चाहिए कि वह अपने पति के कार्य में एक मित्र, एक सहयोगी के रूप में दायित्व निभाए। लेकिन अगर पति गुलाम के रूप में बर्ताव करे तो उसका खुल कर विरोध करो, उसकी बुरी आदतों का खुल कर विरोध करना चाहिए और समानता का आग्रह करना चाहिए।’
उनके विचारों को कितना आत्मसात किया गया इसके आंकड़े घरेलू हिंसा के दर्ज आंकड़े ही बयान कर देते हैं। जो दर्ज नहीं होते ऐसे भी हजारों मामले हैं। सच तो यह है कि स्त्रियों के प्रति आंबेडकर के विचारों को हमने भली-भांति समझा ही नहीं। उनके मानवतावादी विचारों के उन पहलुओं को लगभग अनदेखा कर दिया, जो भारतीय समाज का ढांचा बदलने की क्षमता रखते हैं। गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन करने वाले परिवारों में बच्चों की संख्या के विषय में कोई रोक-टोक नहीं है। अधिक हुआ तो ‘जितने हाथ-उतना काम’ वाला मुहावरा ओढ़ लेते हैं। स्त्री-पुरुष की जिस समानता की कल्पना आंबेडकर ने की थी वह भी बहुसंख्यक परिवारों में आज नहीं है। पुरुष घर का मुखिया है, स्त्री को बराबरी का आर्थिक अधिकार भी नहीं है, भले वह कमाऊ स्त्री हो। वे रूढ़िवादियों से इन प्रश्नों के तार्किक उत्तर पूछते थे कि क्यों स्त्रियों को शिक्षा, स्वास्थ्य जैसे बुनियादी अधिकारों से वंचित किया जाए? इस प्रश्न का सटीक और तार्किक उत्तर किसी के पास नहीं था।
हिंदू समाज में ही नहीं, भारतीय समाज के सभी वर्गों की स्त्रियों की दशा सुधारने की दिशा में आंबेडकर ने ध्यान दिया। वे मुसलिम समाज में स्त्रियों की पिछड़ी दशा के प्रति भी चिंतित थे। उन्होंने मुसलिम समाज में व्याप्त बाल विवाह की प्रथा और महिलाओं के साथ होने वाले दुर्व्यवहार की घोर निंदा की। उन्होंने कहा: ‘बहुविवाह और रखैल रखने के दुष्परिणाम शब्दों में व्यक्त नहीं किए जा सकते, जो विशेष रूप से एक मुसलिम महिला के दुख के स्रोत हैं। जाति-व्यवस्था को ही लें, हर कोई कहता है कि इस्लाम गुलामी और जाति से मुक्त होना चाहिए, जबकि गुलामी अस्तित्व में है और इसे इस्लाम और इस्लामी देशों से समर्थन मिला है। हालांकि कुरान में वर्णित गुलामों के साथ उचित और मानवीय व्यवहार के बारे में पैगंबर के विचार प्रशंसा योग्य हैं, लेकिन इस्लाम में ऐसा कुछ नहीं है जो इस अभिशाप के उन्मूलन का समर्थन करता हो।’
उन्होंने अपने लेखों में मुसलिम समाज में परदा प्रथा की भी आलोचना की। उन्होंने कहा कि भारतीय मुसलमान अपने समाज का सुधार करने में विफल रहे हैं, जबकि इसके विपरीत तुर्की जैसे देशों ने अपने आप को बहुत बदल लिया है। इसलिए भारतीय मुसलमानों को भी अपनी स्त्रियों की दशा सुधारने के बारे में विचार करना चाहिए।
वे स्त्रियों के विकास में बाधा के लिए धर्म और जाति प्रथा को दोषी मानते थे। वे जानते थे कि इन बाधाओं को संवैधानिक ढंग से ही दूर किया जा सकता है। उन्होंने जाति-धर्म और लिंग-निरपेक्ष संविधान में उन्होंने सामाजिक न्याय की पकिल्पना की।
हिंदू कोड बिल के जरिए उन्होंने संवैधानिक स्तर से महिला हितों की रक्षा का महत्त्वपूर्ण कार्य किया। आंबेडकर ने महिलाओं को मतदान का अधिकार प्रदान कर उनके राजनीतिक अधिकारों की रक्षा की। हिंदू समाज के लिए कोई पर्सनल लॉ नहीं था।
भारतीय हिंदू समाज में विवाह, उत्तराधिकार, दत्तक, निर्भरता या गुजारा भत्ता आदि का नियम-कानून एक समान नहीं था। इसाई और पारसियों में एक समय में एक स्त्री से शादी का प्रावधान था। वहीं मुसलिम समुदाय में चार शादियों को मान्यता प्राप्त है। लेकिन हिंदू समाज में पुरुष पर कोई सीमा नहीं थी। विधवा को मृत पति की संपत्ति पर अधिकार नहीं था। सवर्ण समाज में विधवा विवाह की परंपरा नहीं थी। इन्हीं परिस्थितियों को ध्यान में रख कर हिंदू कोड बिल तैयार किया गया, जिसमें हिंदू विवाह अधिनियम, विशेष विवाह अधिनियम, दत्तक ग्रहण अधिनियम, हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, निर्बल और साधनहीन पारिवारिक सदस्यों का भरण-पोषण उतराधिकार अधिनियम, हिंदू विधवा पुनर्विवाह अधिनियम आदि का प्रवधान था। मगर संसद में इस बिल का विरोध हुआ और सदन के सदस्यों का समर्थन नहीं मिल पा रहा था। पर आंबेडकर अडिग रहे।
उनका कहना था कि ‘मुझे भारतीय संविधान के निर्माण से अधिक दिलचस्पी हिंदू कोड बिल पास कराने में है।’
विधेयक को विखंडित करके लागू किए जाने के विरोध में आंबेडकर ने नेहरू मंत्रिमंडल से त्यागपत्र भी दे दिया था। आखिरकार सरकार को हिंदू कोड बिल विधेयक पास करना पड़ा। इसके जैसा महिला हितों की रक्षा करने वाला विधान बनाना भारतीय कानून के इतिहास की महत्त्वपूर्ण घटना है।