फिर स्वतंत्रता दिवस आया, सो फिर हिसाब करने का समय आ गया है। प्रधानमंत्री तो करते ही हैं लालकिले की प्राचीर से अपनी सरकार की उपलब्धियों का हिसाब, लेकिन शायद उनकी नजर में जो विशेष उपलब्धियां रही हैं गुजरे साल में, वे उपलब्धियां नहीं हैं हम आप जैसे भारतीय नागरिकों की नजरों में। यह सच है कि बहुत परिवर्तन आया है गए वर्ष में, लेकिन क्या यह परिवर्तन वही है, जिसके आने से भारत आत्मविश्वास के साथ आगे बढ़ सकेगा?

पिछले पंद्रह अगस्त को नरेंद्र मोदी का दूसरा कार्यकाल शुरू ही हुआ था। बड़ी आशाओं से देश के मतदाताओं ने उनको दूसरी बार प्रधानमंत्री बनाया था। सबसे बड़ी आशा यह थी कि मोदी को जिता कर उनके जीवन में वह आर्थिक परिवर्तन आएगा, जिसका सपना भारत का हर नागरिक देखता है। जहां भी मैं गई थी 2019 के चुनाव अभियान के दौरान, मुझे मिले सिर्फ ऐसे लोग, जिन्होंने आर्थिक मुद्दे उठाए। इनमें रोजगार सबसे ऊपर था। राम मंदिर का जिक्र तक मुझसे किसी ने नहीं किया। न कश्मीर का। न नागरिकता कानून में बदलाव लाने का।

फिर भी मोदी ने अपने दूसरे दौर में आर्थिक मुद्दों को ताक पर रख कर अपना पूरा ध्यान दिया है उन मुद्दों पर, जिनको राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ दशकों से उठाता आया है। सो, पिछले पंद्रह अगस्त से दस दिन पहले मोदी सरकार ने लोकसभा में कानून पारित करके अनुच्छेद तीन सौ सत्तर को इतिहास के कूड़ेदान में फेंक डाला और साथ में जम्मू-कश्मीर के दो टुकड़े कर दिए।

मैं मानती हूं कि इस धारा के होते हुए कश्मीर घाटी में अलगावादियों की संख्या बढ़ती ही गई है पिछले तीन दशकों में, लेकिन इसको जिस तरह हटाया गया, उससे ऐसा लगा कि मोदी सरकार ने अपने अगले कदम पर बिल्कुल ध्यान नहीं दिया था। सो, विकास और परिवर्तन के बदले कश्मीर घाटी को एक पूरा साल कर्फ्यू में रखा गया, ताकि विरोध का प्रयास न हो। मोदी के समर्थक कहते हैं कि बहुत विकास हुआ है पिछले वर्ष घाटी के अंदर, लेकिन कश्मीर में रहने वाले लोग कहते हैं कि गुरबत बढ़ी है, इसलिए कि कोविड के आने से पहले ही पर्यटकों ने कश्मीर जाना बंद कर दिया था।

अनुछेद 370 हटने के बाद नागरिकता कानून में ऐसा संशोधन लाया गया, जिसके आने से पूरे देश के मुसलमानों को लगा कि उनको दूसरे दर्जे का नागरिक बनाने का प्रयास हो रहा है। विरोध शुरू हुआ देश भर में और कट्टरपंथी हिंदुत्ववादियों के हौसले इतने बुलंद हुए हैं कि खुल कर टीवी और सोशल मीडिया पर आज नफरत फैलाने का काम कर रहे हैं।

उधर बंगलुरू में पिछले सप्ताह कट्टरपंथी मुसलमानों ने पुलिस थानों पर हल्ला बोला। हिंसा इतनी भड़की कि पुलिस की गोलियों से तीन लोगों ने जान गंवाई। भारतीय जनता पार्टी के प्रवक्ता टीवी चर्चाओं में बेझिझक कहने लगे हैं कि ‘जिहादियों’ को अगर समर्थन न मिलता हिंदू ‘जयचंदों’ का तो हिंसा न फैलती। फैसला कौन करेगा कि जयचंद कौन हैं और जिहादी कौन?

कहने का मतलब यह कि गए वर्ष के बारे में जब इतिहासकार लिखेंगे तो यही कहेंगे कि इस साल में परिवर्तन यही आया भारत में कि भाई-चारा तकरीबन समाप्त कर दिया गया हिंदुओं और मुसलमानों के बीच। इस माहौल में शिलान्यास किया प्रधानमंत्री ने स्वयं अयोध्या में ‘भव्य’ राम मंदिर का। मंदिर बन सकता था प्रतीक भाई-चारे का, लेकिन इतने बुरे दिनों में रखी गई है इसकी नींव कि इसकी उम्मीद करना बेवकूफी होगी।

रही बात रोजगार और अन्य आर्थिक मुद्दों की, तो कोविड के आने से पहले ही अर्थव्यवस्था पर दिखने लगे थे मंदी के काले बादल। अब जब पूरी दुनिया में छा गए हैं, तो भारत में क्यों न और भी घने हो जाएं। रोजगार बढ़ने के बदले बेरोजगार हुए हैं करोड़ों प्रवासी मजदूर, जो वापस अपने गांव लौट गए हैं, इसलिए कि बड़े महानगरों में रोजगार के अवसर सिकुड़ कर रह गए हैं। सो, परिवर्तन तो लाकर दिखाया है मोदी ने, लेकिन वैसा नहीं, जिससे देश में समृद्धि आ सके।

आर्थिक कठिनाइयों और कोविड से जूझ ही रहे थे हम कि चीन ने लद्दाख में आक्रमण कर दिया और आज भी चीनी सैनिक हमारी सरजमीन पर बैठे हुए हैं। प्रधानमंत्री के समर्थक बेशक मानते हों कि पिछले पंद्रह अगस्त के बाद भारत ने बहुत प्रगति की है। बेशक मानते हों कि राम मंदिर की नींव रख कर मोदी ने इतिहास के जख्मों पर मलहम लगाई है, लेकिन यथार्थ यह है कि गया वर्ष जितना बुरा गुजरा है, शायद ही इतना बुरा कोई दूसरा वर्ष गुजरा होगा भारत के लिए।

मायूसी इतनी दिखती है चारों दिशाओ में कि स्वतंत्रता दिवस का जश्न मनाना मुश्किल रहा है इस देश के वासियों के लिए। तिरंगा जरूर चढ़ाया है हमने अपनी छतों पर, लेकिन दिल में मायूसी रख कर। इस स्वतंत्रता दिवस पर निजी तौर पर मेरी एक ही कामना है कि अगले पंद्रह अगस्त से पहले हमको थोड़े अच्छे दिन दिखने लगें। कम से कम इतना तो हो जाए आने वाले वर्ष में कि कोविड को दुनिया से जाते देख सकें ताकि अर्थव्यवस्था की असलियत हम देख सकें।

इतना बदल गया है समय कि यकीन करना मुश्किल है कि पिछले पंद्रह अगस्त को मैं राष्ट्रपति भवन में थी और स्वतंत्रता दिवस के उस बड़े जलसे में मेहमान थी, जिसमें राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के अलावा आमंत्रित होती हैं देश की बड़ी हस्तियां। यकीन करना मुश्किल है कि कभी पंद्रह अगस्त ऐसे भी गुजारा करते थे हम। अपने दूसरे दौर में मोदी ने परिवर्तन तो लाकर दिखाया है, लेकिन विकास का वादा तभी पूरा होगा, जब नफरत और तनाव के इस माहौल की समाप्ति होगी।