महाराष्ट्र के विधायक अबू आजमी के बयान ने राजनीतिक विमर्श की दुनिया में हलचल मचा दी है। उनका बयान औरंगजेब का महिमामंडन था। इसका प्रतिकार स्वाभाविक है। ऐसा नहीं कि औरंगजेब का स्तुतिगान पहले नहीं हुआ है। कई इतिहासकार उसकी बर्बरता, क्रूरता और सांप्रदायिक आक्रामकता को सत्ता संघर्ष की संज्ञा देकर उसे ‘सेकुलर’ साबित करते रहे हैं। उसके प्रमाण में वे कुछ उदाहरण ढूंढ़ लाते हैं, जिसमें हिंदू मंदिरों को उसके द्वारा दी गई वित्तीय सहायता थी।

इतिहासकारों की दृष्टि विचारधाराओं से प्रभावित रहती है। इसलिए कोई भी इतिहास निष्पक्ष इतिहास नहीं हो पाता है। इसलिए इतिहास पढ़ने से पहले इतिहासकार की पृष्ठभूमि जाननी चाहिए। यह दृष्टिकोणों की लड़ाई को जन्म देती है। यही लड़ाई औरंगजेब पर लड़ी जा रही है। इस संदर्भ में महत्त्वपूर्ण प्रश्न है कि क्या औरंगजेब का शासनकाल, सामाजिक दर्शन या उसका व्यक्तित्व दृष्टिकोणों के संघर्ष का विषय बनने के लायक भी है? सिर्फ शासक होने से ऐतिहासिक हो जाने की पात्रता नहीं होती है। पर भारतीय इतिहास पर विमर्श की त्रासदी है कि हम इसे बुद्धि विलास, मनोरंजन का साधन या अधिक से अधिक अपने कमजोर वर्तमान को सुदृढ़ करने के साधन के रूप में उपयोग करते हैं। यह इतिहास कम, किस्सा-कहानी अधिक हो जाता है। तथ्य और तर्क का संबंध बिल्कुल टूट जाता है।

अबू आजमी उस मानसिकता का प्रतिनिधित्व करते हैं जो सिद्धांत और मूल्यों से परे ऐतिहासिक पात्रों को जाति, नस्ल, धर्म जैसे मापदंडों के आधार पर अपना और पराया में तब्दील करते हैं। यह इतिहास के साथ ही नहीं, पीढ़ियों के साथ नाइंसाफी है। क्या औरंगजेब की प्रशंसा या आलोचना एक मुसलिम शासक के कारण होनी चाहिए? मुगल शासकों की लंबी शृंखला रही है। पर दो नाम सबसे अधिक उत्तेजना और कटुता का कारण बनता है। ये हैं बाबर और औरंगजेब। इसका कारण उनकी संकीर्णता और कटुतापूर्ण सामाजिक दर्शन था। ठीक इसके विपरीत अकबर और बहादुर शाह जफर के शासन-काल और सामाजिक दृष्टिकोणों पर उत्तेजना रहित विमर्श और मूल्यांकन होता है।

औरंगजेब की क्रूरता का कारण उसका सिर्फ सत्तावादी चरित्र नहीं है। दुनिया के इतिहास में ऐसे शासकों की कमी नहीं रही है। सत्तावाद सदैव संकीर्णता के पीठ की सवारी करती है। इसे इतिहास की दुर्घटना ही माना जाना चाहिए, जिसे सहना उस काल के लोगों की नियति बन जाती है। सत्तावाद का स्वाभाविक परिणाम अवसरवाद, असहिष्णुता, असंवेदनशीलता और अंधकारवादी मानसिकता पैदा करती हैं। ये सत्तावादी रथ के घोड़े होते हैं। औरंगजेब इससे भी मीलों आगे था। वह क्रूरता की पराकाष्ठा थी। उसने अपनी बेटी जेबुन्निसा को इक्कीस वर्षों तक जेल में रखा था। उसकी गलती क्या थी? वह संगीत और कविता की प्रेमी थी।

औरंगजेब को यह नापसंद था। वह जेल में मर गई। संकीर्ण सांप्रदायिक मानसिकता ने वात्सल्य को भी कुचल डाला। उसने अपने चौथे बेटे अकबर अहमद को भी जेल में मार डाला। अपने शासन के तौर-तरीके के प्रति असहमति उसे नापसंद थी। पिता को कारावास और भाई दारा शिकोह की हत्या इनमें प्रमुख है। ऐसे तो सत्ता संघर्ष में अपनों की हत्या के अनेक उदाहरण हो सकते हैं। पर औरंगजेब उससे बिल्कुल भिन्न है। वह पीढ़ियों को क्या प्रेरणा देता है, यह उसके महिमामंडन करने वाले को बताना चाहिए।

दारा शिकोह की घटना गौरतलब है। यह आज के भारतीय समाज के लिए पहले से कहीं अधिक प्रासंगिक है। धर्मनिरपेक्षता के पैरोकार ‘गंगा जमुनी संस्कृति’ द्वारा हिंदू-मुसलिम एकता को संबोधित करते हैं। इस सिद्धांत और व्यवहार का जनक दाराशिकोह था। उसने 52 उपनिषदों का फारसी में अनुवाद किया। काशी में विद्वानों की टीम एकत्रित कर इस कार्य को पूरा किया गया। इसके अतिरिक्त भगवद्गीता और योगवासिष्ठ का भी अनुवाद हुआ। वह सिर्फ अनुवादक नहीं था। इसके द्वारा वह धर्म के समान सूत्र ढूंढ़ने का रचनात्मक प्रयास करता रहा। वेद का अनुवादक मैक्समूलर तो हमारी स्मृतियों और संदर्भों में सम्मानजनक तरीके से रहता है, पर दारा शिकोह को हमारी स्मृति से मिटाने का प्रयास हुआ। दारा ने अनुवाद के साथ दार्शनिक पहचान भी बनाई थी। कार्ल अर्न्स्ट जैसे विद्वानों ने संस्कृत से फारसी अनुवाद की उपयुक्तता को स्थापित किया है।

उपनिषदों के अनुवाद से दो वर्ष पूर्व दाराशिकोह ने जो पुस्तक लिखी, उसे भुला दिया गया। इसका नाम है, ‘माजमा-उल-बहरीन’, जिसका अर्थ है ‘दो सागरों का परस्पर मिलने का स्थान’। उसने इसका संस्कृत अनुवाद ‘समुद्रसंगम’ नाम से किया। जो लोग ‘गंगा जमुनी’ संस्कृति कहते थकते नहीं हैं, वे दाराशिकोह को क्यों भुला देना चाहते हैं। औरंगजेब की क्रूरता का एक और उदाहरण है। गुरु तेग बहादुर के सिर को शरीर से अलग कर उनकी हत्या कर दी गई। दोनों के बीच टकराव का कारण क्या था? औरंगजेब हिंदुओं का बलात् धर्म परिवर्तन करा रहा था। उन्होंने इसका प्रतिकार किया था।

हम भलीभांति जानते हैं भारत के संविधान में धर्म स्वातंत्र्य को विशिष्ट स्थान दिया गया है। इसके बिना पंथनिरपेक्षता का कोई अर्थ नहीं रह जाता है। लोगों को अपने विवेक के आधार पर पूजा पद्धति और आस्था रखने की स्वतंत्रता किसी भी सभ्य समाज की थाती होती है। औरंगजेब ने धर्म स्वातंत्र्य के दर्शन पर हमला करने में हिंदुओं को तो नहीं छोड़ा, इसके लिए पहल करने वाले अपने सगे-संबंधियों की हत्या की या कारावास दिया। इतिहास अगर-मगर से नहीं चलता है। घटनाओं और दृष्टिकोणों की आंख-मिचौनी का कोई स्थान नहीं होता है। इसीलिए फासीवादी शासकों में इतिहास को ही मिटा देने की ललक रही है। दुर्भाग्य की बात है छद्म धर्मनिरपेक्ष ताकतों का व्यवहार वैसा ही है। औरंगजेब का महिमामंडन करना गुरु तेगबहादुर के त्याग का तिरस्कार करना है।

हम पश्चिम में धार्मिक सुधार के लिए मार्टिन लूथर किंग को सम्मान से देखते हैं। दाराशिकोह को वह दर्जा न मिलना चिंतनीय है। इतिहास में दृष्टिकोण की विविधता और भिन्नता विरोधाभासी नहीं बन जाना चाहिए। औरंगजेब उसी विरोधाभास की उपज है।