राहुल गांधी एक बार फिर फंस गए हैं, सिर्फ अपनी जबान पर काबू न रख पाने की वजह से। ऐसा लगने लगा है कि बिना सोचे-समझे कुछ भी बोलते हैं। फिर उसका खमियाजा भुगतना पड़ता है। पिछले सप्ताह मानहानि का मुकदमा उन पर थोपा है वीर सावरकर के पोते ने, इसलिए कि कांग्रेस के इस चिर युवराज ने ऐसा आरोप लगाया है उनके दादा पर, जो न सिर्फ बेबुनियाद, बल्कि झूठ है। सावरकर के पोते सात्यकी सावरकर ने पत्रकारों को बताया कि क्यों वे इस बार राहुल गांधी को अदालत तक ले जाने पर मजबूर हुए हैं।

राहुल जब अपने लंदन के दौरे पर थे, तो उन्होंने किसी सभा में कह डाला कि सावरकर ने अपनी एक किताब में लिखा है कि उन्होंने अपने कुछ दोस्तों के साथ एक मुसलिम युवक को पीटा और उसकी पिटाई करके उनको बहुत खुशी हुई थी। सावरकर का पोता अब अदालत में उनसे पूछने वाला है कि उस किताब का नाम क्या है, जिसमें इस घटना के बारे में लिखा है। उनका कहना है कि सारी घटना काल्पनिक है। यानी इस बार अगर राहुल गांधी ने माफी नहीं मांगी, तो बुरी तरह फंस जाएंगे।

फिर कह दूं कि न मैं हिंदुत्ववादी हूं और न अब मोदी भक्त हूं। मगर सावरकर के बारे में मैंने काफी किताबें पढ़ी हैं और सच पूछिए तो जब भी मैं उनके बारे में पढ़ती हूं, मुझे उनके साथ हमदर्दी बढ़ती है। राहुल गांधी अपने शहजादों के अंदाज में कई बार कह चुके हैं कि वे माफी नहीं मांग सकते हैं कभी, क्योंकि ‘मेरा नाम राहुल गांधी है, सावरकर नहीं, गांधी माफी नहीं मांगते हैं’। सच पूछिए तो जब भी मैं उनका यह बयान सुनती हूं, मुझे बहुत गुस्सा आता है।

क्या राहुल जानते नहीं हैं कि काला पानी में सावरकर को किस हाल में रखा था अंग्रेजों ने? क्या जानते नहीं हैं कि इस देश की आजादी के लिए सावरकर ने अपनी सारी जवानी त्याग दी थी? क्या जानते नहीं हैं कि सावरकर से ब्रिटिश सरकार इतनी डरती थी कि अन्य क्रांतिकारियों को जब सावरकर की दलील पर काला पानी से रिहा किया गया था, तो सावरकर को रिहा नहीं किया गया?

निजी तौर पर मैं सावरकर को इसलिए देशभक्ति के सबसे बड़े नायकों में मानती हूं कि यकीन नहीं आता कि जवानी में उन्होंने किस तरह काला पानी की एक कोठरी में तेरह साल से ज्यादा बिताए। सावरकर गिरफ्तार हुए थे 1910 में ब्रिटेन में और उनमें दिलेरी इतनी थी कि जब उनको समुद्र के रास्ते वापस लाया जा रहा था कैदी बना कर, तो उन्होंने ब्रिटिश शिकंजे से निकलने की कोशिश की। जहाज जब फ्रांस में रुका, तो उन्होंने एक खिड़की से छलांग मार कर तैर कर फ्रांस की धरती पर पांव रखा, इस उम्मीद से कि उनके क्रांतिकारी दोस्त मदद करेंगे। ऐसा नहीं हुआ तो उनको तेरह साल काला पानी में रखा गया एक पिंजड़ेनुमा कोठरी में।

जितनी भी उन्होंने चिट्ठियां लिखीं, उस कैदखाने से लिखी थीं अपनी आजादी की लड़ाई जारी रखने के वास्ते। कोई माफी नहीं मांग रहे थे सावरकर, लेकिन माफी मांगते भी तो इसमें शर्म की कोई बात नहीं है, इसलिए कि बहुत कम लोग हैं, जो एक पिंजड़े में इतने साल रह सकते हैं। सावरकर ने हिम्मत नहीं हारी। ऊपर से उन्होंने सनातन धर्म को एक आधुनिक, वैज्ञानिक ढांचे में डालने की बहुत कोशिश की थी। जातिवाद को बिल्कुल नहीं मानते थे सावरकर और न ही उनकी नजरों में गाय की पूजा करनी जरूरी थी।

उन्होंने स्पष्ट शब्दों में लिखा था कि गाय को माता नहीं मानते, मानते थे सिर्फ यह कि गाय एक उपयोगी पशु है। शायद राहुल गांधी जानते नहीं हैं कि सावरकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की बिल्कुल इज्जत नहीं करते थे। उनका कहना था कि संघ वालों का जीवन थोड़े से शब्दों में बयान किया जा सकता है: वे पैदा होते हैं, संघ में भर्ती होते हैं और फिर मर जाते हैं।

सावरकर के ऐसे कई विचार थे, जिनसे मैं बिल्कुल सहमत नहीं हूं। मगर इसमें दो राय नहीं हो सकती कि वे देशभक्त थे और इस देश की स्वतंत्रता के लिए उन्होंने जितनी कुर्बानियां दीं, उनका हिसाब लंबा है। क्रांतिकारी थे और स्वतंत्रता को छीन कर लेने के लिए तैयार थे, सो अहिंसा में उनका विश्वास नहीं था और न ही गांधीजी के दूसरे विचारों से वे सहमत थे। उन पर गांधीजी की हत्या का आरोप जरूर लगा, लेकिन यह भी सच है कि वे दोषी नहीं पाए गए थे। गांधीजी की हत्या के आरोप से बदनामी इतनी हुई उनकी कि कांग्रेस के दौर में उनको खलनायक बना कर बदनाम किया गया। हम जैसे लोग जो उन्हीं किताबों को पढ़े हैं स्कूलों में, जिनसे राहुल ने अपना इतिहास सीखा, जानते हैं कि हमको सिखाया गया था कि सावरकर की गिनती देश के गद्दारों में है।

बड़े होने के बाद मैंने निजी तौर पर सावरकर के बारे में पढ़ना शुरू किया और पाया कि अक्सर जो मुझे सिखाया गया था उनके बारे में, वह झूठ था। राहुल गांधी अब बड़े हो गए हैं। उनको विनम्र सुझाव है कि कम से कम सावरकर पर जो दो किताबें हाल में छपी हैं, उनको पढ़ लें, ताकि दुबारा किसी अदालत में कोई उनको घसीट कर न ले जाए जैसे सावरकर के पोते ले जाने की कोशिश कर रहे हैं। फिलहाल उनका भला इसी में है कि वे सावरकर के पोते से माफी मांग कर स्वीकार करें कि उनको उस किताब का नाम मालूम नहीं है, जिसमें सावरकर ने मुसलिम युवक की पिटाई पर खुशी जताई है।