एक महत्त्वपूर्ण लेकिन उपेक्षित प्रश्न है कि क्या वास्तव में भारतीय राजनीतिक दल देश की व्यवस्था में किसी प्रकार का सार्थक परिवर्तन लाना चाहते हैं? क्या हमारी राजनीति जनता के सामने कोई विकल्प प्रस्तुत कर रही है? क्या राजनीतिक दलों के घोषणापत्र भारतीय समाज की मूलभूत समस्याओं और जनता की अपेक्षा के अंतर्गत देश और समाज को सार्थक दिशा वाले मुद्दे सामने ला रहे हैं? क्या हमारे नेता कोई बड़ा परिवर्तन चाहते हैं?

ध्यान से देखा जाए तो भारत में आजादी के बाद से अब तक ‘यथास्थितिवाद’ की जड़ें और गहरी होती चली गई हैं। देश के बुनियादी सामाजिक-आर्थिक ढांचे में कोई बड़ा परिवर्तन नहीं आया है। कम से कम समाज के उपेक्षित लोग उसी तरह उपेक्षित रहे जैसे पहले थे। जिस सामाजिक असमानता, शासन द्वारा दमन, भयानक नौकरशाही, धनवान के हित में न्याय-व्यवस्था को अंगरेज छोड़ कर गए थे वह न केवल आज भी मौजूद है, बल्कि उसका रूप विकराल हो चुका है और वह कई अर्थों में राजनीतिक दलों के हाथों से निकल चुकी है। ‘व्यवस्था’, ‘सत्ता’ या यथास्थितिवाद की शक्तियां इतनी मजबूत हो गई हैं कि उनके साथ छेड़छाड़ बहुत महंगी पड़ सकती है।

भारतीय राजनीतिक दलों ने शिक्षा को कभी बड़ा मुद्दा नहीं बनाया, जबकि संविधान उसे मौलिक अधिकार मानता है। प्राय: सभी सरकारों ने शिक्षा की उपेक्षा की है और अंतत: उसे ‘व्यापारियों’ के हवाले कर दिया है। क्या वे शिक्षा के महत्त्व से परिचित नहीं हैं? इन सवालों का सीधा उत्तर यह हो सकता है कि धर्म, जाति, संप्रदाय, अंधविश्वास, सामंती प्रभाव के अंतर्गत काम करने वाले राजनीतिक दलों के हित में ‘शिक्षा’ नहीं अशिक्षा है।

कोई राजनीतिक दल संविधान में दरकार ऐसे मुद्दों की बात भी नहीं करता, जो पचास साल में बने भारतीय समाज के परिप्रेक्ष्य में आवश्यक है। क्या संविधान में पारदर्शिता, सहभागिता और जवाबदेही जैसे प्रावधानों को शामिल करना आवश्यक नहीं है? क्या संविधान को जनोन्मुखी बनाने की आवश्यकता नहीं है? दरअसल, संविधान पर विचार किए बिना देश के वर्तमान स्वरूप में परिवर्तन आ ही नहीं सकता। लेकिन इस संबंध में किसी पार्टी का घोषणापत्र कुछ नहीं कहता। क्या केंद्र और राज्य के संबंधों पर विचार करना आवश्यक नहीं है? लेकिन इस बारे में भी कोई बहस होती दिखाई नहीं देती।

आजादी के बाद नौकरशाही अधिक जनविरोधी बन गई है। साम्राज्यवाद की नौकरशाही को आजाद देश ने उसी रूप में स्वीकार कर लिया था जैसी वह थी। लेकिन अंतर यह है कि शासक वर्ग आजादी से पहले नौकरशाही को जिस तरह नियंत्रित करता था वह अब नहीं बचा है। नौकरशाही और राजनेताओं के बीच एक ‘अपवित्र गठबंधन’-सा बन गया है। इसके बड़े नकारात्मक प्रभाव पड़ रहे हैं। लेकिन नौकरशाही के इस स्वरूप पर भी राजनीतिक दल चुप्पी साधे हुए हैं।

लोकतंत्र की आत्मा, चुनाव प्रणाली कितनी दोषपूर्ण हो गई है इस पर राजनेताओं का ध्यान नहीं जाता। चुनाव में राजनीतिक दल करोड़ों रुपया खर्च करते हैं, जो निश्चय ही भ्रष्टाचार की जड़ है। चुनाव प्रक्रिया को कालेधन के चंगुल से मुक्त करने के लिए क्या आवश्यक कदम नहीं उठाना चाहिए? कभी-कभी ‘राइट टु रिकॉल’ की चर्चा होती है पर इस मुद्दे पर कोई राजनीतिक दल गंभीर नहीं दिखाई देता। मतलब यह कि एक बार चुने गए प्रतिनिधि के ऊपर किसी तरह की जवाबदेही नहीं है।
हमारे राजनीतिक दल कॉरपोरेट घरानों द्वारा टैक्स चोरी या ‘टैक्स माफी’ को भी बड़ा मुद्दा नहीं बनाते। जनता का लाखों करोड़ रुपया कॉरपोरेट घराने बड़े आराम से हजम कर जाते हैं, किसी के कान पर जूं भी नहीं रेंगती। एक ओर ‘टैक्स चोरी’ हो रही है तो दूसरी ओर ‘टैक्स लगाने’ की होड़ मची हुई है। दरअसल, ‘टैक्स चोरी’ के प्रति यह चुप्पी इसी कारण है कि ‘चोर’ और ‘शाह’ की सांठ-गांठ है।

आर्थिक असमानता देश में बढ़ रही है। करोड़पतियों की संख्या के साथ गरीबों की संख्या भी बढ़ रही है। असंगठित क्षेत्र में कामगारों की हालत में सुधार पर कोई राजनीतिक दल किसी प्रकार के सुझाव नहीं प्रस्तुत करता। अब तो गरीबी के बारे में बात भी नहीं की जाती।

न्याय व्यवस्था ने जो आकार लिया है उससे आम लोग त्रस्त हैं। अदालतों, विशेष रूप से निचली अदालतों में लाखों मुकदमे सुनवाई की प्रतीक्षा में पड़े हैं। सौ साल पुराने कानूनों से देश चल रहा है या उन्हें झेल रहा है। नए कानून बनाने की मांग एक-दो वामपंथी दल करते हैं, पर वे अपनी मांग को व्यवहारिक या कारगर तरीके से नहीं रख पाते। कानून धनवान के पक्ष में जाता दिखाई पड़ता है।

बहुत से लोकतंत्र प्रधानमंत्री को यह छूट नहीं देते कि वे जिसे चाहें जिस मंत्रालय का मंत्री बना दें। लेकिन हमारे देश में यही होता है, जो सामंती सोच को दर्शाता है। प्रधानमंत्री ही क्यों, मुख्यमंत्री तक किसी को मंत्री बना या हटा देने को अपना निजी अधिकार मानते हैं। नतीजतन, प्रशासन पर नौकरशाहों की गिरफ्त और मजबूत हो जाती है, जिन्हें प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री अपने अनुसार दिशा-निर्देश देता है।

बाजार पर किसी का कोई नियंत्रण नहीं है। देश के सबसे बड़े उत्पादक किसान के अलावा दीगर सभी सामान बनाने वाले अपना न्यूनतम मूल्य खुद तय करते हैं। किसान को उचित मूल्य नहीं मिल पाता। बिचौलिए मालामाल हो जाते हैं। उपभोक्ता महंगाई की मार झेलता है। इस बाजार को नियंत्रित करने के लिए किसी राजनीतिक दल ने कोई कार्यक्रम, कोई योजना, कोई नीति प्रस्तावित नहीं की है। क्या मुनाफा कमाने की कोई सीमा नहीं होनी चाहिए? क्या बाजार पर सरकार का कोई नियंत्रण नहीं होना चाहिए?

बड़े शहरों के अनियंत्रित विकास ने भयावह स्थितियां पैदा कर दी हैं। बिना सोचे-समझे या सोच-समझ कर बड़े शहरों को इतना बड़ा बना दिया गया है कि वे बड़ा बाजार तो बन गए हैं, जहां ‘माल’ बेचा जा सकता है, खरीदने वाले भी हैं, लेकिन और कुछ नहीं है। सड़कों पर जगह नहीं है। हवा नहीं है, पानी नहीं है, हरियाली नहीं है और दूसरी बुनियादी सुविधाओं का अकाल है। इन बड़े शहरों के विकास के केंद्र में साधारण लोग नहीं हैं। अंगरेजों की कोठियों के पीछे सर्वेंट क्वार्टर हुआ करते थे। लोदी कालोनी बनाई गई, तो उसके साथ सेवा नगर भी बनाया गया था। लेकिन अब बड़े शहरों में ‘सेवा’ करने वालों के लिए झुग्गी-झोंपड़ी बस्तियां हैं। गैरकानूनी रिहायशी ‘स्लम एरिया’ है, जहां पुलिस प्रशासन के खाने-कमाने का इंतजाम तो है लेकिन बुनियादी सुविधाएं नहीं हैं। दूसरी तरफ गांवों और छोटे कस्बों की हर तरह से भारी उपेक्षा हुई है। परिणामस्वरूप शहरों की तरफ पलायन हुआ है। यह सब राजनेताओं की चिंता का विषय नहीं है।

पर्यावरण की चिंता किस राजनीतिक दल को है? पवित्र नदियों को दूषित करने का काम लगातार हो रहा है। करोड़ों रुपया पानी की तरह बहाया जा रहा है, पर पानी साफ नहीं हो रहा। सफाई अभियान जिस प्रकार चलाया गया वह हमारे सामने है। जितना कूड़ा रोज साफ किया जाता है उससे अधिक कूड़ा फैला दिया जाता है। कूड़े की सफाई पर तो बात होती है, पर कूड़े का जन्म कैसे होता है, कहां से आता है, क्यों आता है- इस पर चर्चा नहीं होती।

हमारे राजनीतिक दल क्या देश के सामने ‘विकल्प’ प्रस्तुत कर रहे हैं? क्या एक बेहतर और मानवीय देश बनाने का ‘सपना’ किसी राजनीतिक दल के पास है? क्या बुनियादी समस्याओं के समाधान की चिंता किसी राजनीतिक दल को सताती है? लगता तो यह है कि हमारी राजनीति ‘सत्ता प्राप्त करो’ से आगे नहीं बढ़ पाई है और वह यथास्थिति को ही स्वीकार कर चलती है।