संसद सत्र के पहले ही नियमित कार्यदिवसों में मेरे संदेहों की पुष्टि हो गई। जाहिर है, नरेंद्र मोदी की सरकार और उनके सरोकार में कुछ भी नहीं बदला है। प्रत्यक्ष संकेतों (पढ़ें: ‘लगता नहीं कुछ बदला’, जनसत्ता, 30 जून, 2024) के अलावा, यह स्पष्ट है कि मोदी ने दृढ़ता से आदेश दिया है कि चुनाव पूर्व दावों, डींगों, नीतियों, कार्यक्रमों, शैली, आचरण, प्रतिशोध आदि का बचाव किया जाएगा, उन्हें दोहराया और जारी रखा जाएगा।
दुखद है कि मोदी का यह आदेश संसद के दोनों सदनों में भी लागू होता दिख रहा है। परंपरा के अनुसार, संसद के दोनों सदनों में कामकाज आम सहमति से होता है, न कि बहुमत के नियमों से। ‘क्या आज हमें भोजनावकाश रद्द करके सदन की कार्यवाही जारी रखनी चाहिए’ जैसे मामूली सवालों का समाधान पीठासीन अधिकारी या सदन के बहुमत के आदेश से नहीं, बल्कि आम सहमति से किया जाना चाहिए। फिर भी, उदाहरण के लिए, दो पीठासीन अधिकारियों ने राष्ट्रीय परीक्षा एजंसी की परीक्षाओं से जुड़े महाघोटाले पर चर्चा के लिए सैकड़ों सांसदों द्वारा समर्थित स्थगन प्रस्तावों को खारिज कर दिया। यह रवैया पिछले पांच वर्षों की याद दिलाता है। दुखद है।
मोदी की मंशा
संसद के दोनों सदनों में पहली बहस और संसद के बाहर लिए गए फैसलों से सरकार के इरादे- और दिशा- स्पष्ट हो गए हैं: कि देश एक व्यक्ति के फरमान से चलता रहेगा; दो महत्त्वपूर्ण सहयोगी (तेदेपा और जद-एकी) और अन्य छोटे सहयोगियों की सत्ता पक्ष की बेंचों से जयकारे लगाने के अलावा कोई भूमिका नहीं रहेगी; कि मोदी अपने मंत्रियों या दोनों सदनों में विपक्ष के नेताओं को कोई जगह नहीं देंगे; कि सरकार अपनी ओर से कोई गलती स्वीकार नहीं करेगी; कि वर्तमान सरकार की सभी कमियों का दोष जवाहरलाल नेहरू से शुरू करके पिछली सरकारों के मत्थे मढ़ा जाएगा; कि भाजपा के प्रवक्ता आक्रामक और अप्रिय बने रहेंगे; कि किराए के ‘ट्रोल्स’ को और अधिक सक्रिय होने के लिए भुगतान किया जाता रहेगा (शायद थोड़ा अधिक?); और जांच एजंसियों पर कोई नकेल नहीं कसी जाएगी, वे सरकार के इशारे पर काम करना जारी रखेंगी।
जाहिर है, 543 सदस्यों वाली लोकसभा में भाजपा की 240 और राजग के लिए 292 की ‘जीत’ का आंकड़ा मोदी को नहीं रोक पाया है। मगर सांसदों के बारे में क्या? किसी निश्चित निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए चार दिन बहुत कम होते हैं, लेकिन इनसे शुरुआती संकेत तो मिलते ही हैं।
महाराष्ट्र, हरियाणा और झारखंड के राजग/भाजपा सांसद डरे हुए हैं, क्योंकि इन राज्यों में विधानसभा चुनाव नजदीक हैं, और उन्हें सबसे बुरे नतीजे आने का डर है। महाराष्ट्र में महायुति सरकार का धीरे-धीरे पतन; हरियाणा में बराबरी के नतीजे (5 कांग्रेस, 5 भाजपा); और झारखंड उच्च न्यायालय द्वारा हेमंत सोरेन को जमानत के शानदार फैसले ने तीनों राज्यों में ‘इंडिया’ के लिए नई बयार बहा दी है।
राजग/भाजपा को पंजाब, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, मेघालय, मणिपुर, नगालैंड और कर्नाटक में झटका लगा, लेकिन सौभाग्य से, इन राज्यों में तत्काल कोई चुनाव नहीं है।
केरल और तमिलनाडु में राजग/भाजपा पराजित हुई।
दिल्ली, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, बिहार, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, असम, ओड़ीशा, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और गुजरात के राजग/भाजपा सांसदों के चेहरों पर मुस्कान थी, लेकिन वे ‘गठबंधन’ की चिप्पी से शर्मिंदा हैं और गठबंधन के लंबे समय तक चल पाने को लेकर अनिश्चय से भरे हुए हैं।
पहाड़ की चढ़ाई
भाजपा जानती है कि अजेय पार्टी होने का दावा करने से पहले उसे एक पहाड़ चढ़ना है। इसी तरह, कांग्रेस को भी एक पहाड़ चढ़ना है; बल्कि, एक और बड़ा पहाड़। यहां यह बताता चलूं कि कांग्रेस ने नौ राज्यों में अपनी 99 जमा दो सीटों में से अधिकांश सीटें जीतीं; कुल 170 सीटों वाले नौ अन्य राज्यों में, कांग्रेस ने सिर्फ चार सीटें जीतीं; और कांग्रेस ने 215 सीटों पर चुनाव नहीं लड़ा (उन पर सहयोगी दलों ने चुनाव लड़ा)। हालांकि कांग्रेस और आइएनडीआइए एक मजबूत विपक्ष का गठन करते हैं, पर वे सरकार को हराने की स्थिति में नहीं हैं।
साम्राज्य की चाभियां तेदेपा (16 सांसद) और जद-एकी (12 सांसद) के हाथों में हैं। दोनों ही अपना समय बिताएंगे। दोनों ही बजट का इंतजार करेंगे। दोनों ही ‘विशेष श्रेणी’ के दर्जे की मांग करते रहेंगे, जिसके बारे में उन्हें पता है कि मोदी उन्हें यह दर्जा नहीं देंगे। दोनों ही महाराष्ट्र, हरियाणा और झारखंड में होने वाले विधानसभा चुनावों के नतीजों का इंतजार करेंगे, जो कुछ महीनों में होने वाले हैं।
नीतियों का अनुमान
अनिश्चित राजनीतिक स्थिति का आर्थिक नीतियों के लिए क्या मतलब है? मैं कुछ अनुमान लगा सकता हूं
सरकार लगातार इनकार की मुद्रा अख्तियार किए रहेगी: वह व्यापक बेरोजगारी, रोजमर्रा इस्तेमाल की वस्तुओं (विशेष रूप से खाद्य पदार्थों) में उच्च मुद्रास्फीति, ‘गैर-नियमित’ और ‘आकस्मिक’ श्रमिकों के बीच स्थिर मजदूरी/आय, आबादी के निचले बीस फीसद के बीच गहरी गरीबी और अत्यधिक असमानता से इनकार करेगी। इसलिए, वर्तमान आर्थिक नीतियों में कोई आमूलचूल परिवर्तन या पुनर्निर्धारण नहीं होगा।
सरकार बुनियादी ढांचे और अनावश्यक परियोजनाओं में निवेश करना जारी रखेगी। हालांकि बुनियादी ढांचे पर सरकारी व्यय के आर्थिक लाभ हैं, निजी निवेश की अनुपस्थिति में, विकास दर मध्यम होगी। इसे संदिग्ध आंकड़ों से बढ़ावा दिया जाता रहेगा।
सरकार दक्षिण कोरिया के चाइबोल-नेतृत्व वाले विकास माडल का अनुसरण करना जारी रखेगी। प्रमुख क्षेत्रों में एकाधिकार और अल्पाधिकार पनपेंगे। नतीजतन, एमएसएमई सुस्त हो जाएंगे; रोजगार सृजन सुस्त हो जाएगा। अर्ध-शिक्षित और अकुशल युवा- ऐसे लाखों युवा हर साल नौकरी के बाजार में प्रवेश करेंगे- सबसे ज्यादा पीड़ित होंगे।
एक वृद्ध नेता के नेतृत्व वाली सरकार का तीसरा कार्यकाल उन प्रतिभाओं को आकर्षित करने में सक्षम नहीं होगा, जो शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा, पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन, कृषि और वानिकी, विज्ञान और अनुसंधान तथा विकास जैसे प्रमुख क्षेत्रों में आमूलचूल परिवर्तन ला सकते हैं।
नरेंद्र मोदी इसी तरह के और अधिक काम करते रहने में यकीन करते हैं। संसद में उनके भाषणों से भी यही आश्वासन मिला है। इसलिए, इसी तरह की और अधिक चीजों के लिए तैयार रहिए।