पिछले साल सर्वोच्च अदालत ने 99वां संविधान संशोधन अधिनियम, 2014 को खारिज कर दिया, जिसने राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग के गठन का रास्ता साफ किया था। अदालत ने घोषित किया कि उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय के लिए जजों के चयन का अधिकार जजों के कोलेजियम को ही है। बहुत-से लोगों को यह फैसला ठीक लगा, वहीं बहुत-से लोगों ने इस फैसले की आलोचना की। यह फैसला कई कारणों से अहम था:

* पांच में से चार जजों ने संविधान संशोधन अधिनियम को असंवैधानिक ठहराया और कोलेजियम के विशेषाधिकार का पक्ष लिया, मगर इस बात पर पांचों जज एकमत थे कि कोलेजियम प्रणाली की अपनी खामियां हैं।

* कोलेजियम प्रणाली के तहत नियुक्ति प्रक्रिया को सुधारने का रास्ता अदालत नहीं तलाश सकी, और इसलिए सरकार से कहा कि वह संशोधित प्रक्रिया-ज्ञापन (मेमोरेंडम आॅफ प्रोसीजर) सौंपे!

* फैसला जिसने विधिवेत्ताओं और विधायिका के सदस्यों का ध्यान खींचा, वह पीठ के बहुमत का दृष्टिकोण नहीं था, जिसे न्यायमूर्ति खेहर ने लिखा था, बल्कि वह न्यायमूर्ति चेलमेश्वर द्वारा लिखी गई असहमति की राय थी (जो न्यायमूर्ति ह्यूगेस के शब्दों में कहें तो, ‘कानून की संभावित चेतना व भावी बुद्धिमत्ता से एक अपील’ थी)।

अदालत द्वारा घोषित कानून

सुप्रीम कोर्ट का फैसला कानून है (देखिए संविधान का अनुच्छेद 141)। कोलेजियम अब कोई विचार या प्रस्ताव नहीं है, यह कानून है। कानून की घोषणा बदली नहीं जा सकती, और जब तक यह अपरिवर्तित है, यह कानून है, और सरकार के लिए बाध्यकारी है। यह सीधा-सा सच सरकार समझ नहीं पा रही है।

फैसले की बाबत मेरे सख्त एतराज थे और उन्हें मैंने 1 नवंबर 2015 के स्तंभ में जाहिर भी किया था। मैंने सुझाया था कि संविधान संशोधन अधिनियम (जो रद््द हो गया) को कैसे फेरबदल करके संसद, कार्यपालिका और न्यायपालिका, सबके लिए स्वीकार्य बनाया जा सकता है। संविधान संशोधन विधेयक का मसविदा फिर से तैयार करने, संसद से पारित कराने और सुप्रीम कोर्ट में उसकी वैधता साबित करने की कोई कोशिश नहीं हुई।

इसके विपरीत, सरकार ने प्रक्रिया-ज्ञापन (मेमोरेंडम आॅफ प्रोसीजर) को फिर से तैयार करने के अवसर का इस्तेमाल सुप्रीम कोर्ट से तर्क-वितर्क में उलझने में किया है। इस अविवेकी टकराव के नतीजे पीड़ादायी हैं।
लंबित मामलों का बढ़ता बोझ

देश के मुख्य न्यायाधीश ने सार्वजनिक रूप से इस बात को लेकर अपनी वेदना प्रकट की कि कोलेजियम की सिफारिशें नजरअंदाज की जा रही हैं और नियुक्तियों में देरी हो रही है। अभी सुप्रीम कोर्ट में जजों के तीन पद रिक्त हैं तथा जनवरी 2017 के प्रथम सप्ताह से पहले पांच और पद रिक्त हो जाएंगे। सोमवार और शुक्रवार को सर्वोच्च अदालत के हर खंडपीठ पर साठ से सत्तर मामलों का बोझ रहता है। बाकी दिनों भी स्थिति भिन्न नहीं होती, क्योंकि मामले अंतिम सुनवाई व निपटारे के लिए सूचीबद्ध होते हैं, पर सूची लंबी होती है और अमूमन कार्यदिवस के अंत तक भी पूरी नहीं होती।

उच्च न्यायालयों में रिक्त पदों का अनुपात बहुत चिंताजनक स्तर पर पहुंच गया है। जजों के कुल स्वीकृत पद 1079 हैं, जिनमें से 601 पदों को छोड़ बाकी रिक्त हैं। कई उच्च न्यायालयों में रिक्त पदों का अनुपात लगभग पचास फीसद है, और चार उच्च न्यायालयों में यह पचास फीसद से अधिक है। प्रत्येक जज दो जजों का कार्यभार वहन कर रहा है। काम में डूबे जज बहुत बार शाम छह बजे तक बैठे रहते हैं। ऐसे में कानूनी साहित्य पढ़ने, कुछ सोचने-विचारने और फैसले लिखने के लिए समय कहां से निकालें? कई मामलों में फैसले सुरक्षित रख लिये जाते हैं और एक साल से ज्यादा समय से लंबित रहते हैं।

लंबित मामलों के आंकड़े भयावह हैं। सर्वोच्च न्यायालय में 62,657 मामले। उच्च न्यायालयों में कुल 38,70,373 मामले। लंबित मामलों के निपटारे में काफी साल लगेंगे। लंबित मामलों का बोझ इतना बड़ा है कि मैं ‘केस मैनेजमेंट’ की किसी व्यवस्था के बारे में नहीं सोच पाता, जिसके जरिए समस्या पर काबू पाया जा सके। अधिकतर जज हताश हो चुके हैं: वे अपना काम कर्तव्यनिष्ठा से करते हैं और जितने अधिक मामले निपटाए जा सकें, निपटाते हैं, इस बात को लेकर परेशान नहीं होते कि अटके पड़े मुकदमों की तादाद कितनी है।
टालमटोल छोड़े

जैसे-जैसे रिक्त पदों की संख्या और बढ़ती जाती है, उन्हें भरना और चुनौतीपूर्ण होता जा रहा है। अगर एक हाइकोर्ट में एक या दो खाली पद हर तीन माह में भरे जाएं, तो इस चुनौती से पार पाया जा सकता है। अगर एक सौ साठ पदों में से बासठ पद रिक्त हों (जैसा कि इलाहाबाद हाइकोर्ट में है), तो उन्हें आप एक ही बार में कैसे भर सकते हैं? वकील-उम्मीदवारों के बीच वरिष्ठता के मसले को आप कैसे सुलझाएंगे? आप कैसे सुनिश्चित करेंगे कि वकील-उम्मीदवारों और जज-उम्मीदवारों (जिलों के जजों) का अनुपात 2:1 का होगा।

इस सब की कीमत न्याय को चुकानी पड़ रही है। मुकदमों की सुनवाई बार-बार मुल्तवी होती है। दिल्ली उच्च न्यायालय में ‘सुनवाई की अगली तारीख’ तीन-चार महीने के भीतर मिलना मुश्किल हो चुका है; अन्य उच्च न्यायालयों में भी स्थिति भिन्न नहीं है। बारंबार स्थगन की कीमत मुवक्किलों को चुकानी पड़ती है (आने-जाने के खर्च और वकीलों की फीस आदि के रूप में)। किसी मामले की सुनवाई शुरू होती है तो वह लगातार नहीं हो पाती है। स्वीकार किए जाने के लिए आने वाले मुकदमों की प्रारंभिक सुनवाई को केवल चंद मिनट मिलते हैं। जजों समेत सारे लोग असंतुष्ट और निराश हैं।

सरकार शायद एक ‘आदर्श’ प्रक्रिया-ज्ञापन (मेमोरेंडम आॅफ प्रोसीजर) तैयार करने में जुटी हुई है, जिसमें राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग की मूलभूत बातों को समाहित किया जा सके। सरकार को टालमटोल से बाज आना चाहिए। संसद के संप्रभु अधिकार पर जोर देने का एक ही तरीका है- अगर संसद वैसा चाहे- कि संविधान संशोधन का नया विधेयक लाना, जो परीक्षा में पास हो। वरना सरकार ऐसा प्रक्रिया-ज्ञापन देने को बाध्य है, जो पूरी तरह सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अनुरूप हो।
कोलेजियम और सरकार के बीच गतिरोध अस्वीकार्य है, क्योंकि यह न्यायिक व्यवस्था के शक्तिविहीन होने की गति को और तीव्र ही करेगा।