संसद का शीतकालीन सत्र छब्बीस नवंबर से बुलाया गया है।

अर्थव्यवस्था की हालत संसद सत्र बुलाने से कहीं ज्यादा की मांग करती है। सरकार के मंत्री सार्वजनिक रूप से जो कहते हैं उसके विपरीत- और कुछ मंत्री, बहुत-से अफसर तथा अमूमन सभी कारोबारी और बैंकों के मुखिया निजी तौर पर जो कहते हैं उससे मेल खाते हुए- अर्थव्यवस्था की हालत शोचनीय है। प्रभावहीन वृद्धि दर इसका खुलासा करती है: 2014-15 में 7.3 फीसद, 2015-16 की पहली तिमाही में 7.0 फीसद, और 2015-16 के पूरे साल में 7.3 फीसद रहने का अनुमान।

निराशाजनक संकेत:

सामान्य संकेतकों पर नजर डालें।

दूसरी तिमाही (जून से सितंबर) 2015 लगातार तीसरी तिमाही थी, जिसमें सभी कंपनियों की कुल बिक्री, 2014-15 की दूसरी तिमाही के बरक्स, 5.3 फीसद तक सिकुड़ गई। कुल बिक्री में बारह फीसद की गिरावट के साथ मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर का प्रदर्शन सबसे खराब रहा। दूसरी तिमाही में एक चौथाई गैर-वित्तीय कंपनियों का परिचालन-लाभ ब्याज के तौर पर आने वाले उनके खर्च से भी कम रहा। कारोबार की हालत खराब है।

कारोबारी निराशाजनक आय के चलते नई पूंजी नहीं लगा रहे हैं। 2015-16 के पहले आठ महीनों में निजी क्षेत्र का कुल प्रस्तावित निवेश, पिछले साल की समान अवधि की तुलना में, लगभग तीस फीसद कम था। कंपनियां निवेश के लिए कर्ज लेने की इच्छुक नहीं दिखतीं। चालू वित्तवर्ष में गैर-खाद्य ऋण 8.8 फीसद के हिसाब से बढ़ रहा है, जो कि करीब बीस वर्षों में सबसे धीमी रफ्तार है। औद्योगिक ऋण की गति इससे भी धीमी है, 4.9 फीसद (जो कि मुद्रास्फीति को हिसाब में लेने पर शून्य फीसद के बराबर बैठती है)। मझले उद्योगों के ऋण में तो इस दौरान 6.7 फीसद की गिरावट आई है।

मौजूदा वित्तवर्ष की पहली छमाही (अप्रैल से सितंबर) में औद्योगिक उत्पादन सूचकांक की वृद्धि दर 3.94 फीसद रही। अगर केवल मैन्युफैक्चरिंग पर नजर डालें, तो इसका हाल सबसे बुरा था, केवल 2.64 फीसद की वृद्धि। पहली छमाही में बुनियादी क्षेत्र के उद्योगों की वृद्धि दर 2.33 फीसद रही, जबकि पिछले साल की पहली छमाही में यह 5.07 फीसद थी।

सबसे बुरी दशा निर्यात की है। पिछले साल के मुकाबले इस साल सितंबर के अंत में निर्यात में 17.7 फीसद की गिरावट दर्ज हुई। अक्तूबर 2015 निर्यात में लगातार गिरावट का ग्यारहवां महीना था। रेडीमेड वस्त्र (2.26 फीसद) को छोड़ दें, तो मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर की अमूमन सभी वस्तुओं के निर्यात में गिरावट आई। पिछले साल की पहली छमाही के मुकाबले इस साल की पहली छमाही में सेवा क्षेत्र का निर्यात 1.4 फीसद कम रहा। वैश्विक मंदी असल में इसकी एक बड़ी वजह है, पर गिरावट की गति परेशान करने वाली है, क्योंकि यह डॉलर के मुकाबले रुपए की कीमत 6.6 फीसद गिरने के बावजूद हुई है।
दावे कितने सही हैं:

‘दिल्ली इकोनॉमिक कानक्लेव’ के मौके पर प्रधानमंत्री ने चार दावे किए:

1. विकास दर बढ़ी है; महंगाई कम हुई है।

पहली बात के पक्ष में अभी तक कोई प्रमाण नहीं है। जहां तक दूसरी बात का ताल्लुक है, थोक मूल्य सूचकांक पर आधारित मुद्रास्फीति कम हुई है, पर खुदरा महंगाई जुलाई (3.69 फीसद) से अक्तूबर (5.0 फीसद) के बीच बढ़ी है। खाद्य महंगाई तो बढ़ कर अक्तूबर 2015 के अंत में सवा पांच फीसद हो गई, जो कि जुलाई 2015 के अंत में 2.15 फीसद थी। महंगाई और बढ़ने के आसार हैं। गृहस्थी की गाड़ी खींचने वाले किसी भी व्यक्ति से दालों की कीमत तथा इलाज, शिक्षा और सफर पर आने वाले खर्च की बाबत पूछिए, आपको उसका गुस्सा झेलना पड़ेगा!

2. विदेशी निवेश बढ़ा है; चालू खाते का घाटा कम हुआ है।

सरकार इस बात से खुश है कि एफडीआई 2013-14 के 36 अरब डॉलर से बढ़ कर 2015-16 में 44 अरब डॉलर तक पहुंच गया, साथ ही मौजूदा वित्तवर्ष में इसमें अठारह फीसद की बढ़ोतरी हुई है। वर्ष 2005 से 2007 के बीच एफडीआई में चार गुनी बढ़ोतरी हुई थी, 9 अरब डॉलर से 37 अरब डॉलर। वर्ष 2011-12 में यह 46.5 अरब डॉलर था। एफडीआई की आवक 36 अरब डॉलर से 46 अरब डॉलर के बीच बनी रही है, इसमें कोई उछाल नहीं दिखता। चालू खाते का घाटा कम रहने की वजह कच्चे तेल और सोने की कीमतों में आई अपूर्व गिरावट है।

3. राजस्व बढ़ा है; ब्याज दर घटी है।

सरकार का कर-राजस्व, कुल मिलाकर, बजट में जाहिर की गई अपेक्षाओं से कम है। अप्रत्यक्ष करों की वसूली में छत्तीस फीसद इजाफे का कारण असल में सीमाशुल्क और उत्पाद शुक्ल में हुई बढ़ोतरी है। अतिरिक्त करों के बरक्स देखें, तो वसूली में केवल 11.6 फीसद की वृद्धि हुई है, जो कि सामान्य बात है। जहां तक ब्याज दरों का मामला है, खुद रिजर्व बैंक ने इस बात को लेकर निराशा जताई है कि कर्ज चाहने वालों को कटौतियों का लाभ नहीं मिल पा रहा है। अगर ब्याज दरें घटा कर आकर्षक बना दी गई हैं, तो ऋण-वृद्धि इतनी कम क्यों है?

4. राजकोषीय घाटा कम हुआ है; रुपया स्थिर है।

अगर सरकार राजकोषीय घाटे के काबू में आने को लेकर आश्वस्त है, तो उसे इसको तीन फीसद की सीमा में लाने की लक्षित तारीख 2016-17 को बहाल करना चाहिए। रुपया स्थिर नहीं कहा जा सकता- डॉलर के मुकाबले इसकी कीमत गिरी है, जबकि यूरो और येन के मुकाबले बढ़ी है। दरअसल, रुपए का ‘स्थिर’ होना अपने आप में कोई तारीफ की बात नहीं है। जिस चीज की हमें दरकार है, वह है उपयुक्त विनिमय दर।

नजरिए और नम्रता की जरूरत:

अगर कोई नया अंतरराष्ट्रीय संकट न आए, तो भारत की नई ‘सामान्य’ जीडीपी दर सात फीसद मालूम पड़ती है, और सरकार इसे हासिल करने के लिए हाथ-पांव मार रही है। फीकी वृद्धि दर लोगों की आय नहीं बढ़ा सकती, यह (स्थानापन्न नौकरियों के अतिरिक्त) रोजगार के नए अवसरों का सृजन नहीं कर सकती और यह अतिरिक्त संसाधन नहीं पैदा कर सकती, जो बुनियादी ढांचे तथा शिक्षा, चिकित्सा जैसी सेवाओं से जुड़ी पुरानी समस्याओं के निराकरण और पेयजल, साफ-सफाई, आवास जैसी सुविधाएं मुहैया कराने के लिए जरूरी है।

नई ‘सामान्य’ वृद्धि-दर के घेरे से बाहर निकलने के लिए सरकार को नई स्वप्नशीलता और हिम्मत से काम लेते हुए साहसिक ढांचागत सुधार करने होंगे (जैसा 1991-92 में हुआ था)। इसके साथ ही विपक्ष का सहयोग लेने तथा उसके नजरिए का सम्मान करने का बड़प्पन और विनम्रता भी दिखानी होगी।