भारतीय रिजर्व बैंक का जन्म असामान्य परिस्थितियों में हुआ था। मुद्रा के नियमन तथा मौद्रिक स्थिरता के लिए मुद्रा का एक निश्चित भंडार बनाए रखने की जरूरत महसूस की गई। वर्ष 1929 में दुनिया ने महामंदी के रूप में एक अप्रत्याशित आर्थिक संकट झेला था। विश्व भर की मौद्रिक व्यवस्थाएं बेहाल थीं। कोई इस बारे में पूरी तरह आश्वस्त नहीं था कि किस तरह की मौद्रिक व्यवस्था भारत के लिए उपयुक्त होगी। लिहाजा, एक अस्थायी प्रावधान किया गया, और वह था रिजर्व बैंक अधिनियम,1934!
रिजर्व बैंक का मुख्य मकसद 1934 में जो था वही आज भी है:
*मुद्रा (नोट) जारी करना, और
*उनका एक निश्चित भंडार बनाए रखना।
एक अपरिवर्तनीय कानून
उपर्युक्त अधिनियम के तहत और ढेर सारे संशोधनों के जरिए रिजर्व बैंक को काफी अधिकार दिए गए। अधिनियम में ‘स्वायत्तता’ शब्द नहीं था, लेकिन कुछ बरसों में केंद्रीय बैंक की स्वायत्तता के सिद्धांत को एक अपरिवर्तनीय कानून के स्तर तक ले जाया गया। हालांकि केंद्र सरकार अधिनियम की धारा 7 के तहत रिजर्व बैंक को ऐसे निर्देश दे सकती थी जिन्हें वह जन-हित में आवश्यक समझती हो, लेकिन केंद्र सरकार को हासिल इस अधिकार को तिरासी वर्षों में कभी भी आजमाया नहीं गया।
ऐसे मौके कई बार आए जब रिजर्व बैंक और केंद्र सरकार में सहमति नहीं बन पाई थी। रिजर्व बैंक के एक गवर्नर ने विरोध में पद छोड़ दिया। एक गवर्नर को इस्तीफा देने के लिए बाध्य किया गया। पर कुल मिलाकर, सरकार और रिजर्व बैंक एक-दूसरे के अधिकार-क्षेत्र का लिहाज करते रहे, और दोनों ने मेलजोल से काम करना सीखा। एक बंद अर्थव्यवस्था और मुद्रा के बहुत कम आरक्षित भंडार वाले दौर में, रिजर्व बैंक को मुद्रा जारी करने वाले तंत्र से ज्यादा बैंकिंग नियामक तथा विदेशी मुद्रा के सख्त नियंत्रक के तौर पर जाना जाता था।
निस्संदेह, 8 नवंबर 2016 से रिजर्व बैंक की भूमिका नोट (मुद्रा) जारी करने वाले तंत्र के रूप में प्रमुख हो गई है। नोट जारी करने के मामले में सारा अधिकार रिजर्व बैंक को ही है (धारा 22)। रिजर्व बैंक बताएगा कि किस कीमत के नोट जारी किए जाएं और किस नोट को चलन से बाहर किया जाए (धारा 24)। इसके अलावा, रिजर्व बैंक की सिफारिश पर ही केंद्र सरकार किसी शृंखला के नोटों की वैधता समाप्त करने की घोषणा कर सकती है (धारा 26)।
नोटबंदी की मौजूदा कवायद में रिजर्व बैंक ने अपनी जिम्मेदारी का कैसा निर्वाह किया है?
परिवर्तित भूमिका
1. सरकार का दावा है कि नोटबंदी की घोषणा रिजर्व बैंक की सिफारिश पर की गई। कोई इस वक्तव्य को तभी स्वीकार कर पाएगा जब अपने संदेह को किनारे रख दे। प्रधानमंत्री के आठ नवंबर के राष्ट्र के नाम संबोधन में रिजर्व बैंक की सिफारिश का कोई जिक्र नहीं था। इसके विपरीत, सरकार और भाजपा के प्रवक्ताओं ने नोटबंदी को पूरी तरह प्रधानमंत्री के दिमाग की उपज बताया है। यानी यह ऊपर से थोपा गया फैसला था, और इस तरह रिजर्व बैंक ने अपनी जवाबदेही को ताक पर रख दिया।
2. रिजर्व बैंक की निर्णय-प्रक्रिया गैर-पारदर्शी और संदेहास्पद थी। रिजर्व बैंक के निदेशक मंडल में स्वतंत्र समझे जाने वाले निदेशकों की संख्या दस होनी चाहिए। इनमें से सात निदेशकों के खाली पदों पर राजग सरकार ने नियुक्तियां नहीं की हैं। सिर्फ तीन स्वतंत्र निदेशकों ने आठ नवंबर की उस अफसोसनाक बैठक में शिरकत की थी। सिफारिश दिल्ली भेजी गई, जहां केंद्रीय मंत्रिमंडल इंतजार कर रहा था! केंद्रीय मंत्रिमंडल को यह कैसे मालूम था कि आरबीआई बोर्ड नोटबंदी की सिफारिश करने जा रहा है?
3. रिजर्व बैंक के गवर्नर डॉ. ऊर्जित पटेल ने नोटबंदी को सही ठहराया है, यह कहते हुए कि यह एक ऐसी नीतिगत कार्रवाई है जो अर्थव्यवस्था की तस्वीर बदल देगी। सन 1978 से, उनसे पहले के किसी भी आरबीआई गवर्नर ने नोटबंदी की वकालत नहीं की थी, तब भी नहीं जब अर्थव्यवस्था गंभीर चुनौतियों का सामना कर रही थी। डॉ. पटेल को यह खयाल तब आया जब पद संभाले उन्हें बस पैंसठ दिन हुए थे, और जब अर्थव्यवस्था बढ़ती पर थी, आंकड़ों के मुताबिक सात फीसद की दर से!
4. समझा जाता है कि रिजर्व बैंक ने संसदीय समिति को बताया कि सरकार ने (7 नवंबर को) उससे सिफारिश की थी कि ज्यादा मूल्य वाले नोटों को विमुद्रीकृत कर दिया जाए। हड़बड़ी दिखाते हुए रिजर्व बैंक ने (8 नवंबर को) सरकार से सिफारिश कर दी कि ज्यादा मूल्य वाले नोटों को अमान्य किया जा सकता है! यह भूमिकाओं में एक असामान्य हेर-फेर था। रिजर्व बैंक ने अपनी बैठक का एजेंडा-नोट या ब्योरा जाहिर करने से मना कर दिया है। उसने इस सवाल का जवाब देने से भी इनकार कर दिया है कि क्या किसी निदेशक ने और सूचनाएं मांगी थीं, या असहमति जताई थी।
साख पर आंच
5. नोटबंदी के बाद पैदा होने वाले हालात को संभालने की रिजर्व बैंक की तैयारी बिल्कुल नहीं थी। उसके पास कम मूल्य वाले नोट पर्याप्त मात्रा में नहीं थे। उसने केवल दो हजार रुपए के नोट छापे थे, जिन्हें तुड़वाना और जिनसे बाजार में लेन-देन बहुत मुश्किल था। इसके अलावा, नया नोट एटीएम के उपयुक्त नहीं था। रिजर्व बैंक ने पांच सौ रुपए और उससे कम कीमत के नोटों की छपाई बहुत देर से शुरू की। एक खौफनाक खयाल खौफनाक अमल की वजह से और भी दर्दनाक साबित हुआ।
6. रिजर्व बैंक के पास एक मौद्रिक नीति समिति है जिसका गठन बरसों के विचार-विमर्श के बाद हाल में हुआ था। मुद्रा की आपूर्ति, मौद्रिक नीति का एक अनिवार्य पहलू है। लेकिन मौद्रिक नीति समिति को निर्णय-प्रक्रिया से पूरी तरह बाहर रखा गया था।
7. इकतीस दिसंबर के राष्ट्र के नाम अपने संबोधन में मोदी जी ने एक ऐसे क्षेत्र में दखलंदाजी की, जहां पहले किसी प्रधानमंत्री या वित्तमंत्री ने दखल नहीं दिया था। उन्होंने बैंकों को निर्देश दिया कि छोटे उद्योगों के लिए ऋण-सीमा कुल कारोबार के बीस फीसद से बढ़ा कर पच्चीस कर दें और कार्यकारी पूंजी की सीमा बीस फीसद से बढ़ा कर तीस फीसद कर दें। उन्होंने बैंकों से कहा कि वे वरिष्ठ नागरिकों के लिए दस साल की आवधिक-जमा पर आठ फीसद की दर से ब्याज मुहैया कराएं। प्रधानमंत्री ने शनिवार को बैंकों से कर्ज पर ब्याज दरें घटाने को कहा, और रविवार को, स्टेट बैंक ने अगुआई करते हुए ब्याज दरों में कटौती की घोषणा कर दी! प्रधानमंत्री की हरेक घोषणा ने रिजर्व बैंक की स्वायत्तता और साख को गंभीर क्षति पहुंचाई।
देश के भीतर भी और बाहर भी, रिजर्व बैंक की तीखी आलोचना हुई है। मैं यह भरोसा करना चाहूंगा कि रिजर्व बैंक मौजूदा केंद्रीय शासन के द्वारा ‘संस्थागत कब्जे’ का शिकार नहीं हुआ है। मैं यह भी भरोसा करना चाहूंगा कि रिजर्व बैंक की स्वायत्तता विकसित व सुदृढ़ करने के वर्ष व्यर्थ नहीं गए हैं।