इशरत जहां और तीन अन्य गुजरात पुलिस द्वारा एक मुठभेड़ में मारे गए थे। वह मुठभेड़ प्रामाणिक थी या फर्जी? इसका जवाब मेरे पास नहीं है। कुछ लोग हैं जो दावा करते हैं कि जवाब उन्हें मालूम है। मैं उन लोगों की निश्चयात्मकता पर हैरान हूं जो कहते हैं कि वह वास्तविक मुठभेड़ थी। उनमें से किसी ने न तो केस डायरी देखी है न गवाहों के बयान देखे हैं न फोरेंसिक जांच रिपोर्टें पढ़ी हैं। उनमें से किसी ने इस मामले के आरोपपत्र का भी अध्ययन नहीं किया है। फिर भी, वे पूरी निश्चयात्मकता से कहते हैं कि मारे गए चारों व्यक्ति आतंकवादी थे और मुठभेड़ प्रामाणिक थी!
कसाब बनाम अखलाक
वे शायद ही यह समझने की तनिक जहमत उठाएं कि उनकी ‘तर्क प्रक्रिया’ कानून के शासन को खत्म कर देगी।
मैं गर्व के साथ इस सिद्धांत को मानता हूं कि ‘कोई भी व्यक्ति तब तक निर्दोष है जब तक कि वह उचित व निष्पक्ष कानूनी प्रक्रिया से अदालत के द्वारा दोषी न ठहरा दिया गया हो।’ जिस दिन हम इस सिद्धांत को छोड़ देंगे वह दिन इस देश में कानून के शासन के अंत का आरंभ होगा।
सरकार ने अजमल कसाब के मामले में इस सिद्धांत का परित्याग नहीं किया। एक भीड़ ने, मोहम्मद अखलाक के मामले में, इस सिद्धांत को परे झटक दिया। इशरत जहां मामला, इस सिद्धांत के प्रति हमारी निष्ठा को परखने का एक अच्छा मामला है।
केंद्रीय खुफिया एजेंसियों ने गुजरात पुलिस को यह खुफिया जानकारी दी थी, कि इशरत जहां और तीन अन्य, आतंकवादी थे या आतंकवादियों से जुड़े थे। इस सूचना के मुताबिक कार्रवाई करना, संदिग्धों को गिरफ्तार करना, साक्ष्य इकट्ठा करना, उन्हें आरोपित करना और अदालत के समक्ष पेश करना, गुजरात पुलिस की ड्यूटी थी। पर जो हुआ वह एकदम उलटा था।
15 जून 2004 को, इशरत जहां और तीन अन्य, मार दिए गए। पुलिस ने दावा किया कि यह प्रामाणिक मुठभेड़ थी। इशरत जहां की मां शमीमा कौसर का आरोप था कि यह फर्जी मुठभेड़ थी और चारों व्यक्ति उस वक्त मारे गए जब वे पुलिस हिरासत में थे। एक विशेष न्यायाधीश ने मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट से जांच कराने का आदेश दिया।
जज, एसआइटी और सीबीआइ
7 सितंबर 2009 को, जज तामांग, जांच के बाद इस नतीजे पर पहुंचे कि ये मौतें फर्जी मुठभेड़ में हुई थीं। उनके तथ्य सिहरन पैदा करने वाले थे:
*कि चारों व्यक्ति 14 जून 2004 की रात को मारे गए, जब वे पुलिस हिरासत में थे;
*कि काफी नजदीक से गोलियां चला कर उन्हें मारा गया, जब वे कार में बैठे थे; और
*कि जिन हथियारों से गोलियां चलाई गर्इं वे गैर-लाइसेंसी तथा अवैध थे।
गुजरात हाइकोर्ट ने 12 अगस्त 2010 के अपने आदेश में एक एसआइटी (विशेष जांच टीम) गठित करने का आदेश दिया। जांच के बाद एसआइटी इस नतीजे पर पहुंची कि वह मुठभेड़ एक फर्जी मुठभेड़ थी।
हाइकोर्ट ने 1 दिसंबर 2011 को आदेश दिया कि मामला सीबीआइ के सुपुर्द कर दिया जाए। सीबीआइ ने जांच की और इस नतीजे पर पहुंची कि वह मुठभेड़ एक फर्जी मुठभेड़ थी। सीबीआइ ने 3 जुलाई 2013 को सात पुलिस अफसरों के खिलाफ आरोपपत्र दायर किया। उस सिद्धांत के प्रति, जिसे मैं अनुल्लंघनीय मानता हूं, अपनी निष्ठा कायम रखते हुए, मैं यह कहने को तैयार हूं कि उन पुलिस अफसरों को तब तक निर्दोष माना जाए जब तक वे अदालत से दोषी न ठहरा दिए जाएं।
हलफनामे
शमीमा कौसर द्वारा दायर किए गए इस मामले में केंद्र सरकार की भूमिका हाइकोर्ट में एक हलफनामा दाखिल करने तक सीमित थी। एक हलफनामा- पहला हलफनामा- 6 अगस्त 2009 को दाखिल किया गया। एक महीने बाद, जज तामांग की रिपोर्ट जारी हुई। गुजरात में और गुजरात के बाहर भी इस पर काफी हल्ला मचा। गुजरात पुलिस ने हलफनामे की गलत व्याख्या करते हुए और ‘खुफिया जानकारी’ का हवाला देते हुए मुठभेड़ को सही ठहराने की कोशिश की। लिहाजा, हलफनामे को स्पष्ट करना जरूरी था। इसी तकाजे से, एक ‘दूसरा हलफनामा’ 29 सितंबर 2009 को दाखिल किया गया। देश के महाधिवक्ता (अटार्नी जनरल) ने इस हलफनामे की बारीकी से जांच और पुष्टि की थी। इसके दो पैराग्राफ, पैराग्राफ नं. 2 और 5, बहुत अहम थे (देखिए बॉक्स)। इसमें महत्त्व का स्पष्टीकरण यह था कि खुफिया ‘सूचना अपने में कोई निर्णायक सबूत नहीं है और ऐसी सूचना राज्य सरकार तथा राज्य की पुलिस को कार्रवाई के मकसद से भेजी जाती है।’
कोई भी सरकार किसी को दोषी या निर्दोष नहीं ठहरा सकती। कोई भी यह नहीं कह सकता कि इशरत जहां और तीन अन्य ‘आतंकवादी’ थे। ठीक इसी तरह, कोई भी यह नहीं कह सकता कि सीबीआइ के द्वारा आरोपित किए गए सात पुलिस अफसर हत्या के दोषी थे। यह अधिकार सिर्फ अदालत को है।
अब मेहरबानी कर उन दो पैराग्राफ को पढ़ें (बॉक्स में)। कृपया मुझे बताएं कि इन दो पैराग्राफ में, या कि समूचे ‘दूसरा हलफनामा’ में कौन-सा शब्द, पद या वाक्य नैतिक या कानूनी रूप से गलत था।
असल विवाद हलफनामों को लेकर नहीं, 14/15 जून 2004 की रात को हुई मुठभेड़ को लेकर है। क्या यह फर्जी मुठभेड़ थी? मैं नहीं जानता। लेकिन क्या हलफनामों पर उठा विवाद फर्जी है? बेशक, हां।
दूसरे हलफनामे का अंश
2. मैं यह दूसरा हलफनामा बाद की घटनाओं के मद्देनजर पेश कर रहा हूं जो याचिका से जुड़े मुद््दों से संबंधित हैं और इसका मकसद भारत सरकार द्वारा दिए गए हलफनामे पर उपजी आशंकाओं का निवारण करना और उस हलफनामे के कुछ अंशों की गलत व्याख्या की कोशिशों का प्रतिवाद करना है।
5. मैं विनम्रतापूर्वक यह स्वीकार करता हूं कि केंद्र सरकार ने उपर्युक्त हलफनामे में मामले के गुण-दोष या पुलिस कार्रवाई पर कुछ नहीं कहा था। यह आवश्यक रूप से उन आरोपों से निपटना था, जो केंद्र सरकार के पास उपलब्ध ‘खुफिया सूचनाओं’ से संबंधित हैं, और जो सूचनाएं नियमित तौर पर राज्य सरकारों से साझा की जाती हैं। केंद्र सरकार का प्राथमिक सरोकार यह देखना है कि भारतीय सुरक्षा एजेंसियों द्वारा इकट्ठा की गई सूचनाएं और उनके प्रयास प्रामाणिक हों। पर मैं सभी को यह स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि ऐसी सूचनाएं अपने में निर्णायक सबूत नहीं हैं और इन पर क्या कार्रवाई करनी है यह राज्य सरकार तथा राज्य की पुलिस को तय करना है। केंद्र सरकार ऐसी कार्रवाई के आड़े नहीं आती, न ही वह किसी नाजायज या ज्यादती-भरी कार्रवाई की अनदेखी या पुष्टि करती है।