कई बरसों में कोई मौका आता है जब पूरा देश एक ही मन:स्थिति में दिखता है, चाहे वह खुशी की हो या आक्रोश की या निराशा की। लगता है भारत में ऐसा वक्त 2017 में आ गया है।
जो मैं कह रहा हूं उसके ढेरों प्रमाण आपको बीच के पेज के लेखों, स्तंभों, भेंटवार्ताओं, सोशल मीडिया और यहां तक कि कुछ संपादकीयों में भी मिलेंगे। विविध बातचीत और तमाम टिप्पणियों के तार जोड़ने पर जो तस्वीर उभरती मालूम पड़ती है, वह यह कि ‘केंद्र संभाल नहीं पा रहा है’ और हमने 2014 में जिस भारत की कल्पना की थी वह कल्पना चिंदी-चिंदी हो रही है। बेशक, सुनियोजित ढंग से, इससे एक उलट तस्वीर भी बताई जा रही है, जैसा कि सितंबर 2016 (सर्जिकल स्ट्राइक) और नवंबर 2016 (नोटबंदी) के समय हुआ, लेकिन सप्रयास गढ़ा गया वृत्तांत तथ्यों के आगे लचर मालूम पड़ता है।
आंकड़ों की गवाही
मुझे अकाट्य तथ्यों के साथ अपनी बात रखने दें। हिंसा में बढ़ोतरी हुई है, चाहे वे जम्मू-कश्मीर में आतंकी घटनाएं हों या नक्सल प्रभावित इलाकों में माओवादियों के हमले। मारे गए लोगों के आंकड़े इसकी दास्तान बयान करते हैं:
जम्मू व कश्मीर
2014 2015 2016 2017 (अप्रैल तक)
नागरिक 28 17 15 9
आ./उग्र. 110 108 150 43
सुरक्षा बल 47 39 82 15
नक्सल प्रभावित क्षेत्र
नागरिक 222 171 213 59
आ./उग्र. 63 89 222 45
सुरक्षा बल 88 59 65 34
*आ./उग्र.- आतंकवादी/ उग्रवादी
फिर से पैठ बनाते माओवादी?
नक्सल प्रभावित क्षेत्रों की तस्वीर बहुत निराशाजनक है और साफ दिख रहा है कि स्थिति दिनोंदिन और बिगड़ रही है। इस तस्वीर का केंद्र छत्तीसगढ़ है जहां रमन सिंह के नेतृत्व में भाजपा की सरकार चौदह सालों से है। रमन सिंह अपनी सरकार की घोर नाकामी पर परदा डालने और आलोचना का रुख केंद्र सरकार की तरफ मोड़ने में माहिर हैं। राजग सरकार ने यूपीए सरकार द्वारा की गई कई नीतिगत पहल को उलट दिया है। पिछड़ा क्षेत्र अनुदान कोष निरस्त कर दिया गया। एकीकृत कार्रवाई योजना (इंटीग्रेटेड एक्शन प्लान)- जो हर कलक्टर के हाथ में एक कोष देती थी कि वह लोगों की खुद देखी-जानी गई जरूरतों की पूर्ति के लिए खर्च कर सके (और जिस योजना की चौतरफा तारीफ हुई थी)- अचानक बंद कर दी गई। मनरेगा का आबंटन घटा दिया गया। वनवासी अधिकार अधिनियम को कमजोर कर दिया गया। इन सब कदमों का सम्मिलित परिणाम यह हुआ कि जिलों के प्रशासन के पास अपनी पहल पर करने को ऐसा कुछ नहीं रह गया है जिससे वे ‘पूंजीवादी’ व्यवस्था द्वारा उपेक्षा और शोषण के माओवादियों के आरोप की काट कर सकें।
माओवादी तभी पनपते हैं जब उन्हें स्थानीय आबादी से समर्थन मिल रहा होता है। स्थानीय लोगों को माओवादियों के प्रभाव से बाहर तभी निकाला जा सकता है जब राज्य लोगों के, खासकर जनजातीय लोगों के अधिकारों की सुध लेता और उनकी तकलीफों तथा जरूरतों के प्रति संवेदनशील दिखाई दे। चूंकि राज्य ने लोगों केसाथ जीवंत संवाद से मुंह मोड़ लिया है- और राज्य का जो एकमात्र अंग प्रत्यक्ष मौजूद दिखता है वे सुरक्षा बल हैं- ऐसे में लगता है कि माओवादी फिर से अपनी पैठ और हमला करने की क्षमता बढ़ा रहे हैं।
घाटी की दशा
सुरक्षा संबंधी स्थिति सबसे तेजी से कश्मीर में बिगड़ी है। यह साफ तौर पर बड़ी तेजी से 2010 के दिनों की वापसी है। ए.एस.दुलत ने कहा है कि स्थिति 1990 (जब भाजपा समर्थित सरकार थी) के दिनों से भी ज्यादा भयावह है। वह सही कहते हैं, आंकड़े झूठ नहीं बोलते। सुरक्षा बल ज्यादा आतंकियों को मार रहे हैं, पर वे अपने जवानों को भी कहीं ज्यादा खो रहे हैं, और न उनकी सफलता और न उनकी शहादत कश्मीर घाटी में सामान्य स्थिति बहाल कर पा रही है। सबसे भयावह चीज जो हुई है वह यह कि विरोध-प्रदर्शन की प्रकृति और प्रदर्शनकारियों के हुजूम में बदलाव आया है। इससे पहले कभी भी पत्थरबाजी में युवा लड़कियां शामिल नहीं थीं, इससे पहले कभी भी माताओं ने नहीं कहा था कि वे अपने बच्चों को नहीं रोकेंगी, इससे पहले कभी भी बिना नेतृत्व के इतना व्यापक विरोध नहीं दिखा था, और इससे पहले कभी भी लोग सुरक्षा बलों तथा संदिग्ध आतंकियों के बीच की लड़ाई में आड़े नहीं आए थे। ये बड़े अशुभ संकेत हैं।दूसरा वृत्तांत गढ़ने के लिए हो-हल्ला शुरू हो गया है, मीडिया के एक हिस्से के उकसावे और मदद से, जो या तो कश्मीर घाटी में या पाकिस्तान में लावा फूटते देखना चाहता है। एक बार फिर राष्ट्रवाद बनाम उदारवाद, एकता बनाम आजादी, बहिष्कार बनाम संवाद, गोली बनाम बातचीत, आदि की बातें हो रही हैं- ये बातें सामान्य स्थिति बहाल करने और कश्मीर समस्या का समाधान ढूंढ़ने में प्रासंगिक नहीं हैं। इस तरह कीद्वंद्व भरी शब्दावली के कारण, सामान्य स्थिति और समाधान, दोनों पहले से भी ज्यादा दूर और अप्राप्य लगने लगे हैं।
इनकी तो सुनें
मैं विपक्ष की एक आवाज हूं। मुझे मालूम है ऐसी आवाजें अनसुनी कर दी जाती हैं, पर दूसरी आवाजें भी हैं। एमके नारायणन की बात पर गौर करें, जो राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार रह चुके हैं: ‘शांति सत्तावादी तरीकों से या फरमान जारी कर देने से कायम नहीं की जा सकती’ और ‘जो सबसे अहम है वह यह कि घाटी में शांति के लिए विभिन्न स्तरों पर बातचीत और विभिन्न स्तरों पर विचार-विमर्श शुरू हो और एक खुली तथा उत्साहपूर्ण अपील की जाए’। रॉ के निदेशक रह चुके ए. एस. दुलत की बात पर गौर फरमाएं: ‘एक हताशा का भाव व्याप्त है। वे मरने से डर नहीं रहे हैं। ग्रामीण, छात्र, यहां तक कि लड़कियां भी सड़कों पर उतर आई हैं। यह पहले कभी नहीं हुआ था’ और ‘‘कश्मीरी यह देख कर निराश हैं कि मोदी के सत्ता संभालने के बाद कुछ नहीं हुआ। वाजपेयी का ‘इंसानियत का दायरा’ कहां गया?’’ अब, कृपया जम्मू-कश्मीर पर मेरे स्तंभ पढ़ें, जो अप्रैल और सितंबर 2016 के बीच छपे। यह वह समय था जब सरकार नियंत्रण ‘खो रही’ थी। फिर, मैंने 16 अप्रैल 2017 को लिखा, जब मेरी निजी राय कहती थी कि सरकार नियंत्रण खो चुकी है। माओवाद और कश्मीर, इन दो विषयों में ही यह स्तंभ सिमट गया। यह अपने आप में यह बताता है कि किन आशंकाओं ने हमें घेर रखा है।