‘आधार’, हरेक नागरिक को विशिष्ट पहचान नंबर देने का खयाल, 2009 में सामने आया। क्या यह अपने समय से आगे का विचार था? बहुत-से लोगों का यही मानना था, खासकर जो लोग गरीबों तथा उपेक्षित समूहों के बीच जमीनी स्तर पर काम कर रहे थे। ‘आधार’ कोई क्रांतिकारी परिकल्पना नहीं थी। इस स्थापना पर दर्जनों देशों में पहचानपत्र जारी किए गए हैं। आधार कोई नई परिकल्पना भी नहीं थी। भारत में ऐसी कई चीजें जारी की गई हैं- जो चलन में हैं- और जो निश्चित उद््देश्यों के लिए पहचान के प्रमाण के तौर पर काम आती हैं। ऐसी सबसे जानी-पहचानी चीजें हैं पासपोर्ट, ड्राइविंग लाइसेंस, पैन कार्ड और राशन कार्ड।
आधार का खयाल कैसे आया? सरकार विभिन्न तबकों को कई तरह के लाभ देती है। इनमें छात्रवृत्ति, वृद्धावस्था पेंशन, सबसिडी आदि हैं। बहुत बड़ी आबादी वाले एक विशाल देश में ऐसेलाभों को उन तक पहुंचाना जो वास्तव में इसके हकदार हैं, एक कठिन चुनौती है। छद्म, झूठे, जाली पहचानपत्र बन जाना या पहचानपत्र की नकल, चोरी और बेजा इस्तेमाल किसी भी वितरण-व्यवस्था को बर्बाद कर देते हैं। ‘आधार’ के पीछे मकसद वितरण-व्यवस्था की इन जानी-पहचानी बुराइयों से निजात पाना था।
भाजपा का विरोध
लेकिन जब ‘आधार’ की योजना पेश की गई, तो उसे जबर्दस्त विरोध का सामना करना पड़ा। इस विरोध की सबसे उग्र अभिव्यक्ति वित्तीय मामलों की स्थायी संसदीय समिति की रिपोर्ट में हुई, जो 13 दिसंबर 2011 को संसद के दोनों सदनों में रखी गई। उस समिति के अध्यक्ष यशवंत सिन्हा ने आधार के विरोध की अगुआई की थी। भाजपा के प्रमुख नेताओं (नरेंद्र मोदी, प्रकाश जावडेकर और अनंत कुमार) के तब के बयानों को याद करें, तो जाहिर है कि सिन्हा को पार्टी के एक ताकतवर हिस्से का समर्थन प्राप्त था। आज, अगर वह समिति के कुछ निष्कर्षों को पढ़ें तो उन्हें भी हैरानी होगी!
यशवंत सिन्हा की अगुआई वाली संसदीय समिति ने आधार के लगभग हरेक पहलू और उस विधेयक की निंदा की थी जो विशिष्ट पहचान प्राधिकरण (यूआइडीएआइ) की स्थापना के लिए लाया जाने वाला था। उसने बायोमीट्रिक सूचनाएं इकट्ठा करने की समझदारी पर सवाल उठाए; पहचानपत्र में होने वाली धोखाधड़ी के प्रति आगाह किया; बताया कि बायोमीट्रिक रिकार्ड में पंद्रह फीसद तक गड़बड़ी हो सकती है; उसने निजता और आंकड़ों की सुरक्षा संबंधी सवाल उठाए; निजी एजेंसियों की भागीदारी पर चेताया, आदि। समिति का सबसे गंभीर एतराज यह था कि जो सही मायने में लाभ पाने के हकदार हैं वे वंचित हो जा सकते हैं, और उसने साथ में यह भी कहा था: ‘‘हालांकि योजना यह दावा करती है कि आधार नंबर हासिल करना स्वैच्छिक होगा, लोगों में यह आशंका घर कर रही है कि भविष्य में जिनके पास आधार नंबर नहीं होगा वे सार्वजनिक वितरण प्रणाली से मिलने वाले राशन समेत लाभों/ सेवाओं के हकदार नहीं माने जाएंगे।’’
यूपीए ने बरती सावधानी
लेकिन यूपीए सरकार ने अपनी कार्यकारी शक्तियों, संवैधानिक दर्जे से रहित यूआइडीएआइ और नंदन नीलेकणि की अद्भुत प्रतिभा का इस्तेमाल करने में सावधानी से कदम बढ़ाए। यूपीए के सत्ता छोड़ने के समय साठ करोड़ आधार कार्ड जारी किए जा चुके थे (अब सौ करोड़), और प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण की कुछ योजनाओं को आधार से जोड़ा जा चुका था।
अध्ययन बताते हैं कि प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण फलदायी सिद्ध हुआ है: इस तरह से वृद्धावस्था पेंशन के वितरण ने गरीबी का विस्तार कम करने में मदद की है। जिन्स के बजाय नकद रूप में सबसिडी दिए जाने से खाद्य खपत पर कोई बुरा असर नहीं पड़ा, बल्कि अंडों, दालों, मछली और मांस की खपत में बढ़ोतरी हुई। दूसरी तरफ, केरोसीन के बजाय नगद सबसिडी दिए जाने से जलाऊ लकड़ी की मांग बढ़ी।
फिर भी सिविल सोसायटी के कुछ समूहों ने आधार को चुनौती देना जारी रखा, इस बिना पर कि इस योजना से वास्तविक लाभार्थियों के वंचित रह जाने का अवांछित नतीजा आएगा। सुप्रीम कोर्ट ने हस्तक्षेप किया और 2013 में अपने एक अंतरिम आदेश के जरिए निर्देश दिया कि सरकार से मिलने वाले लाभों की खातिर आधार को अनिवार्य नहीं बनाया जा सकता। 2015 में सुप्रीम कोर्ट निजता से संबंधित मुद््दों पर विचार करने के लिए राजी हो गया और इस मामले को अपेक्षया एक बड़े पीठ को सौंपा गया। आधार को लागू करने की इजाजत केवल छात्रवृत्तियों, वृद्धावस्था तथा विधवा पेंशन, रसोई गैस सबसिडी, मनरेगा मजदूरी जैसी प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण वाली योजनाओं के लिए दी गई थी।
सत्ता में आते ही भाजपा ने पलटी मारी। अरुण जेटली ने एक तरह से इसे स्वीकार भी किया, जब उन्होंने कहा कि यूआइडीएआइ की तरफ से प्रत्यक्ष जानकारी और सवालों के संतोषजनक जवाब मिलने के बाद सरकार आधार योजना की खूबियों को लेकर आश्वस्त हो गई है!
यह हृदय परिवर्तन स्वागत-योग्य था, पर किसी ने सोचा भी नहीं होगा कि सरकार सारी सावधानियों को हवा में उड़ा देगी और कल्याण योजनाओं के अलावा अन्य कार्यक्रमों की बाबत भी आधार का मनमाना विस्तार करेगी। चाहे सरकार से मिलने वाले लाभ हों या नियामक कानूनों का पालन, सरकार ने व्यवहार में आधार को अनिवार्य बना दिया है। और इस तरह घोर ढिठाई दिखाते हुए सुप्रीम कोर्ट द्वारा तय की गई मर्यादाओं की धज्जियां उड़ा दी हैं। चाहे आय कर रिटर्न जमा करना हो, मोबाइल फोन का कनेक्शन लेना हो या विश्वविद्यालय की डिग्री लेनी हो, या इस तरह का और भी बहुत कुछ, आधार कार्ड अब अनिवार्य है। अंदेशा है कि आधार कार्ड जल्दी ही ड्राइविंग लाइसेंस या हवाई टिकट, यहां तक कि रेल टिकट के लिए भी अनिवार्य कर दिया जाएगा। फिर इसे स्वास्थ्य बीमा कराने या किसी पुस्तकालय की सदस्यता लेने या क्लब के बिल चुकाने की खातिर भी अनिवार्य किया जाएगा?
निजता का मसला
यह निजता पर भारी हमला है, जो कि गैर-संवैधानिक भी है। हालांकि विशिष्ट पहचान नंबर जरूरी है, लेकिन इसे लोगों की जिंदगी के बारे में संभावित जासूसी या निजी सूचनाएं इकट्ठा करने का जरिया नहीं बनाया जा सकता, जिसका सुशासन से कोई लेना-देना नहीं है। हमें याद रखना चाहिए कि हमारे देश में अभी तक आंकड़ों की हिफाजत या निजता को लेकर कोई समग्र कानून नहीं है। आधार जैसी व्यापक पहुंच वाली योजना के लिए सावधानी-भरी रूपरेखा, पायलट प्रोजेक्ट, परीक्षण और वैधताकरण, तथा सुरक्षा के पक्के इंतजाम जरूरी हैं। इस सब के बगैर, आधार को अनिवार्य रूप से लागू करना सरकार के हाथ में नागरिकों पर निगरानी रखने का औजार तथा शक्ति देना होगा। और यह वैसी राज्य-व्यवस्था की तरफ बढ़ना होगा, जिसका चित्रण आॅरवेल ने किया है।